Kahanikar Premchand : Rachana Drishti Aur Rachana Shilp
Author:
Shivkumar MishraPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 240
₹
300
Available
19वीं सदी का उत्तरार्द्ध हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल का प्रस्थान-बिन्दु है। <br />पं. रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इस आधुनिक काल को ‘गद्य काल’ की संज्ञा दी है। आधुनिक काल की दूसरी अनेक विशेषताओं के अलावा उसकी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता आधुनिक काल में खड़ी बोली गद्य, गद्य-भाषा और गद्य-विधाओं का उदय और विकास है। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में विज्ञान के विकास तथा औद्योगिक प्रगति के साथ जब छापेख़ाने का आविष्कार हुआ, हिन्दी में समाचार-पत्रों तथा पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। इन पत्र-पत्रिकाओं में ही सबसे पहले गद्य की कहानी, आलोचना, निबन्ध तथा रेखाचित्र जैसी विधाओं ने रूप पाया। अतएव कहा जा सकता है कि गद्य की दूसरी तमाम विधाओं के साथ, आज जिसे हम कहानी या लघु-कहानी के नाम से जानते हैं, वह अपने वर्तमान रूप में 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध की ही देन है।</p>
<p>कहानी एक संक्षिप्त, कसावपूर्ण, कल्पना-प्रसूत विवरण है जिसमें एक प्रधान घटना होती है, और एक प्रमुख पात्र होता है। इसमें एक कथावस्तु होती है जिसका विवरण इतना सूक्ष्म तथा निरूपण इतना संगठित होता है कि वह पाठकों पर एक निश्चित प्रभाव छोड़ता है। कहानी की प्राचीन परम्परा को महत्त्व देने के बावजूद आधुनिक कहानी के बारे में प्रेमचन्द का सुस्पष्ट मत है कि उपन्यासों की तरह आख्यायिका की कला भी हमने पश्चिम से ली है, कम से कम इसका आज का विकसित रूप तो पश्चिम का है ही।</p>
<p>“सबसे उत्तम कहानी वह होती है जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर हो।...बुरा आदमी भी बिलकुल बुरा नहीं होता। उसमें कहीं देवता अवश्य छिपा होता है, यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। उस देवता को खोलकर दिखा देना सफल आख्यायिका लेखक का काम है। प्रेमचन्द अपनी कहानी-चर्चा को आगे बढ़ाते हुए उसमें समस्या प्रवेश को ज़रूरी मानते हैं। किसी समस्या का समावेश कहानी को आकर्षक बनाने का सबसे उत्तम साधन है।”
ISBN: 9788180310799
Pages: 232
Avg Reading Time: 8 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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- Description: शताब्दियों से ‘राष्ट्रभाषा’ के रूप में प्रतिष्ठित और लोक-व्यवहार में प्रचलित ‘हिन्दी’ पिछले कई दशकों से ‘राजभाषा’ के संवैधानिक दायरे में भी विकासोन्मुख है। ‘राष्ट्रभाषा’ की मूल प्रकृति तथा ‘राजभाषा’ की संवैधानिक स्थिति को अलगानेवाली प्रमुख रेखाएँ आज भी शिक्षित समाज के बहुत बड़े वर्ग के लिए अस्पष्ट-सी हैं। इसके लिए जहाँ हिन्दी भाषा के उद्भव से लेकर ‘मानक’ भाषा तथा ‘राष्ट्रभाषा’ स्वरूप धारण करने तक की सुदीर्घ विकास-परम्परा का सर्वेक्षण आवश्यक है, वहीं 14 सितम्बर, 1949 ई. से लेकर आज तक के समस्त संवैधानिक प्रावधानों, नियमों-अधिनियमों एवं शासकीय आदेशों और संसदीय संकल्पों आदि का सम्यक् अनुशीलन भी वांछनीय है। इस अनुशीलन-प्रक्रिया के दौरान तत्सम्बन्धी समस्याओं तथा उनके व्यावहारिक समाधान के समायोजन का उपक्रम भी अपेक्षित है। आज इन अपेक्षाओं के दायरे और भी विस्तृत हो गए हैं क्योंकि हिन्दी अब लोक-व्यवहार की सीमाओं से आगे बढ़कर, विभिन्न शैक्षणिक, प्रशासनिक, व्यावसायिक तथा कार्यालयी स्तरों पर भी अपनी प्रयोजनमूलकता प्रतिपादित करने के दायित्व-निर्वाह की ओर अग्रसर है। इस दायित्व-निर्वाह का निकष है—उसके संरचना-सामर्थ्य का अनुप्रयोगात्मक कार्यान्वयन। इस दिशा में विभिन्न स्तरों पर विविध प्रयास चल रहे हैं, किन्तु उनमें एकरूपता, पारस्परिक एकसूत्रता तथा समन्वयशीलता का अभाव होने से, अनेक समस्याएँ गत्यावरोध का कारण बन रही हैं। इन्हीं समस्याओं के निवारण हेतु हिन्दी के प्रयोजनमूलक संरचना-सूत्रों के समुचित संयोजन तथा उनकी अनुप्रयोगात्मक सम्भावनाओं के समन्वित-सुसंग्रथित रेखांकन का विनम्र प्रयास इस पुस्तक का लक्ष्य है।
Lokvadi Tulsidas
- Author Name:
Vishwanath Tripathi
- Book Type:

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Description:
कई लोगों का ख़याल है कि तुलसी की लोकप्रियता का कारण यह है कि हमारे देश की अधिकांश जनता धर्म-भीरु है। और क्योंकि तुलसी की कविता भक्ति का प्रचार करती है, इसलिए वह इतनी लोकप्रिय और प्रचलित है।
लेकिन इस पुस्तक के लेखक का तर्क है कि सभी भक्त-कवि तुलसी-जैसे लोकप्रिय नहीं हैं। यदि धर्मभीरुता ही लोकप्रियता का आधार होती तो नाभादास, अग्रदास, सुन्दरदास, नन्ददास आदि भी उतने ही लोकप्रिय होते।
वे इस पुस्तक में बताते हैं कि तुलसीदास की लोकप्रियता का कारण यह है कि उन्होंने अपनी कविता में अपने देखे हुए जीवन का बहुत गहरा और व्यापक चित्रण किया है। उन्होंने राम के परम्परा-प्राप्त रूप को अपने युग के अनुरूप बनाया है। उन्होंने राम की संघर्ष-कथा को अपने समकालीन समाज और अपने जीवन की संघर्ष-कथा के आलोक में देखा है। उन्होंने वाल्मीकि और भवभूति के राम को पुन: स्थापित नहीं किया है, बल्कि अपने युग के नायक राम को चित्रित किया है।
तुलसी की लोकप्रियता का कारण यह है कि यथार्थ की विषमता से देश को उबारने की छटपटाहट उनकी कविता में है। देश-प्रेम इस विषमता की उपेक्षा नहीं कर सकता। इसीलिए तुलसी दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से रहित राम-राज्य का स्वप्न निर्मित करते हैं। यही उनकी कविता की नैतिकता और प्रगतिशीलता है।
Aadi, Ant Aur Aarambh
- Author Name:
Nirmal Verma
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Description:
‘भारत सिर्फ़ एक ‘नेशन स्टेट’ नहीं है। शताब्दियों से हमारे देश की सीमाएँ वे स्वागत-द्वार रही हैं जिनके भीतर आते ही उत्पीड़ित और त्रस्त जातियाँ अपने को सुरक्षित पाती रही हैं।’
यह लिखते हुए निर्मल वर्मा यह भी कहते हैं कि एक प्राचीन वट-वृक्ष की तरह भारतीय संस्कृति ने अपनी छाया तले अनेक समुदायों को ऐसा पवित्र स्पेस दिया जहाँ वे मुक्त हवा में साँस ले सकें।
क्या आजादी के बाद हमने एक राष्ट्र के रूप में अपनी इस विराटता को छीज जाने दिया?
ऐसे ही प्रश्नों पर मनन करते हुए इस पुस्तक के निबन्ध उस आत्म-उन्मूलन को भी रेखांकित करते हैं जिसके चलते आधुनिक मनुष्य अपने ही स्पेस में शरणार्थी जैसा हो चला है। अलग-अलग अवसरों पर लिखे गए इस पुस्तक के अधिकांश निबन्ध, भले ही उनके विषय कुछ भी हों, आत्म-उन्मूलन के इस ‘अन्धकार’ को कहीं-न-कहीं चिह्नित करते हैं।
भारतीय बुद्धिजीवी की भूमिका, धर्म और साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता और भारतीयता आदि विषयों के अलावा यहाँ संकलित निबन्ध हिन्दी भाषा और साहित्य से जुड़े कुछ प्रश्नों को भी अपने दायरे में लेते हैं।
चेकोस्लोवाकिया पर सोवियत सेना के आक्रमण और भारत के आपातकाल से जुड़े दो आलेख भी इस पुस्तक में शामिल हैं।
Vichar Ka Aina : Kala Sahitya Sanskriti : Ajneya
- Author Name:
Sachchidananda Hirananda Vatsyayan 'Ajneya'
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Description:
विचार का आईना शृंखला के अन्तर्गत ऐसे साहित्यकारों, चिन्तकों और राजनेताओं के ‘कला साहित्य संस्कृति’ केन्द्रित चिन्तन को प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्होंने भारतीय जनमानस को गहराई से प्रभावित किया। इसके पहले चरण में हम मोहनदास करमचन्द गांधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, राममनोहर लोहिया, रामचन्द्र शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ और गजानन माधव मुक्तिबोध के विचारपरक लेखन से एक ऐसा मुकम्मल संचयन प्रस्तुत कर रहे हैं जो हर लिहाज से संग्रहणीय है।
सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ ऐसे लेखक हैं जो परम्परा और आधुनिकता, पूरब और पश्चिम के सन्धि-बिन्दु पर खड़े दिखाई देते हैं। लगभग मिथकीय जीवन जीनेवाले अज्ञेय क्रांतिकारी, सैनिक, अध्यापक, अधिकारी और सम्पादक का जीवन जीते हुए उसी के समानान्तर कवि, कथाकार, उपन्यासकार, अनुवादक और निबन्धकार भी रहे। जैसे उनके व्यक्तित्व में बहुत सारी तहें शामिल थीं वैसे ही उनके रचनाकार की भी बहुत सारी पर्तें रहीं और वे सभी रूपों में अद्वितीय रहे। बतौर सम्पादक उन्होंने हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता को दिशा देने का काम किया। वे व्यक्ति-स्वातंत्र्य के प्रबल पक्षधर होते हुए भी समष्टि के हामी थे। हमें उम्मीद है कि उनके कला, साहित्य और संस्कृति सम्बन्धी प्रतिनिधि निबन्धों की यह किताब अपने पाठकों को वह बौद्धिक संतुष्टि देने में सफल रहेगी जिसके लिए अज्ञेय जाने जाते हैं।
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