Gandhi Aur Kala Tatha Anya Nibandh
Author:
Raman SinhaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
भारतीय कलाओं, उनकी परम्पराओं और भाव-पक्ष पर सुनियोजित ढंग से विचार करने वाली ‘गांधी और कला तथा अन्य निबन्ध’ पुस्तक डॉ. रमण सिन्हा के समय-समय पर लिखे गए निबन्धों और व्याख्यानों का संकलन है। ‘गांधी और कला’ शीर्षक सुदीर्घ निबन्ध इसकी विशेष उपलब्धि है जिसमें कलाओं को लेकर गांधी की दृष्टि और विभिन्न कलाओं में गांधी व उनके विचारों के अंकन को अलग-अलग कोणों से देखा गया है।
कलाओं की आन्तरिक परस्परता को भारतीय कला-दृष्टि की विशिष्टता बताते हुए यह पुस्तक उन कला-रूढ़ियों को भी रेखांकित करती चलती है जो वक़्त-वक़्त पर विदेशी लोगों के आगमन के साथ भारत की कला-धारा में समाहित होती रहीं, और उसे नया रूप देती रहीं। मध्यकालीन भारतीय कला और संस्कृति पर विचार करते हुए लेखक कहते हैं कि भारतीय चित्रकला के इतिहास में मुग़ल शैली का उद्भव एक युगान्तरकारी घटना सिद्ध हुई, जिसमें दो संस्कृतियों ने एक-दूसरे के साथ आदान-प्रदान का सम्बन्ध कायम किया तथा देशी का विदेशी के साथ व परम्परा का नवाचार के साथ संवाद बना।
‘तुलसीदास का प्रतिमा-निरूपण’, ‘कविता और राग’ तथा ‘हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत : लौकिक या पारलौकिक?’ आदि निबन्धों के अलावा अभिनय के माध्यम से अपने आत्म का अन्वेषण करनेवाले फ़िल्मकार ऋतुपर्ण घोष पर केद्रित एक आलेख भी इसमें शामिल है जो इस कला-विवेचन को हमारे आज के कला-बोध से जोड़ता है।
ISBN: 9789360860585
Pages: 192
Avg Reading Time: 6 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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चन्द्रकान्त देवताले पर लिखे गये इन निबन्धों में मैंने इस बात की कोशिश की है कि अपने आस्वाद के अनुभवों को इस तरह लिख सकूँ, कि उनकी रचना के मुक्त विन्यास को, पाठक अपनी तरह से पढ़ने का खुला अवकाश पा सकें।
—प्रस्तावना से
''आलोचना सच्चा-गहरा साहचर्य भी होती है। हिन्दी कवि चन्द्रकान्त देवताले और कवि-आलोचक प्रभात त्रिपाठी सिर्फ़ कविता में सहचर नहीं थे, मुक्तिबोध को लेकर सहचर-पाठक नहीं थे, वे कई बरस भौतिक रूप से साथ रहे थे। यह पुस्तक उस साहचर्य का किंचित् विलम्बित प्रतिफल है। हमें विश्वास है कि चन्द्रकान्त देवताले की कविता को समझने में इसकी निर्णायक भूमिका होने जा रही है। रज़ा पुस्तक माला में इसे प्रस्तुत करते हुए हमें प्रसन्नता है।’’
—अशोक वाजपेयी
Krantikari Yashpal : Ek Samarpit Vyaktitva
- Author Name:
Madhuresh
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Description:
साम्राज्यवादी शोषण और दासता के विरुद्ध उद्वेलित भारत ने जिन नौजवानों को जन्म देकर क्रान्ति की दिशा में बढ़ने को प्रेरित किया, उनमें यशपाल अत्यन्त भास्वर तेजोद्दीप्त, और इसीलिए सबसे भिन्न दिखाई पड़ते हैं। भिन्न इस अर्थ में कि अन्य क्रान्तिकारियों के निकट क्रान्ति जब ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हिंसात्मक कार्यों और लूट-मार तक सीमित थी, तब यशपाल के निकट इसका कुछ और महत्तर और अधिक व्यापक अर्थ था और वह यह कि शोषणपरक विदेशी शासन से राजनीतिक मुक्ति तो मिले ही, शासन-व्यवस्था (समाज-व्यवस्था) भी बदले; अर्थात् शासन-सूत्र का हस्तान्तरण तो वे चाहते ही थे, शासन-पद्धति में भी परिवर्तन चाहते थे। यही बात यशपाल को उनके अन्य साथियों से भिन्न भूमि पर अवस्थित करती है। वस्तुतः वैचारिक स्तर के जिस उच्च धरातल पर खड़े होकर यशपाल सोच रहे थे, वहाँ तक उनके साथी नहीं पहुँचे थे। यही कारण है कि यशपाल को अपने साथियों के बीच कई भ्रान्तियों का शिकार होना पड़ा।
रचनाकार के रूप में यशपाल के आविर्भाव के पहले कथा-साहित्य में प्रेमचन्द का अवतरण हो चुका था और कथा-साहित्य को रहस्य-रोमांस तथा तिलिस्म की दुनिया से उबारकर सामाजिक यथार्थ के ठेठ आमने-सामने खड़ा कर वे एक नए प्रवर्त्तन का कार्य सम्पन्न कर चुके थे। सामाजिक यथार्थ के पथ पर चलते हुए एक के बाद एक उनकी अनेक जीवन्त उपलब्धियाँ भी सामने आ चुकी थीं। उनके द्वारा हिन्दीभाषी एक विशाल पाठक-समाज की रुचियों का परिष्कार और संस्कार हुआ था। अब वह ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ जैसे उपन्यासों में रस लेनेवाला पाठक-समाज न रहकर ‘सेवासदन’, ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’ जैसी कृतियों को अंगीकार कर चुका था। सामाजिक यथार्थ की राह पर चलते हुए प्रेमचन्द ने उसे इतना प्रशस्त कर दिया था कि परवर्ती रचनाकारों को उस पथ पर चलने में किसी भी प्रकार की झिझक और कठिनाई न हो, बशर्ते कि वे सही अर्थों में एक ज़िम्मेदार लेखन का संकल्प लेकर रचना के क्षेत्र में उतरे हों। किन्तु प्रेमचन्द जिस चीज़ को पाना चाहकर भी अपनी असामयिक मौत के कारण नहीं पा सके थे, और जो बस कौंधकर ही उनकी परवर्ती रचनाओं में रह गई थी, वह चीज़ यथार्थ के प्रति वह वैज्ञानिक दृष्टि थी, जो उनके निधन के साथ प्रगतिशील आन्दोलन और समाजवाद का अंग बनकर सामने आई। यशपाल चूँकि इसी प्रगतिशील आन्दोलन की उपज हैं, अतः सहज ही उन्हें यथार्थ के प्रति यह वैज्ञानिक दृष्टि प्राप्त हुई। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही माना जाएगा कि यशपाल यथार्थ को, प्रेमचन्द द्वारा मिली इस विरासत को समाजवाद के आलोक में और भी सम्पन्न करके प्रस्तुत करते। उनके सामने सवाल प्रेमचन्द की इस विरासत के संरक्षण का ही नहीं, संवर्धन का भी था, और एक योग्य उत्तराधिकारी के रूप में यशपाल ने उसे संवर्धित भी किया।
अपने युग के यथार्थ को जितनी व्यापकता, विस्तार तथा संश्लिष्टता से, उसके सारे ज्वलन्त प्रश्नों के साथ यशपाल ने चित्रित किया है, वैसा कम देखने को मिलता है। एक प्रतिबद्ध तथा सामाजिक दृष्टि से सम्पन्न रचनाकार होने के नाते अपने युग के यथार्थ का चित्रण मात्र करके उन्होंने छुट्टी नहीं ली है, वरन् वर्तमान जीवन के मूलभूत प्रश्नों को कुरेद-कुरेदकर उन पर तीखी टिप्पणियाँ भी की हैं, सार्थक निष्कर्ष भी दिए हैं। जितनी निर्ममता से उन्होंने युग की सामन्तवादी-पूँजीवादी मनोवृत्तियों पर चोट की है, जितनी निर्भीकता से समाज के अतिचार तथा उसके ज़िम्मेदार व्यक्ति तथा संस्थाओं का पर्दाफ़ाश किया है, जितने दो-टूक ढंग से उच्चवर्गीय नैतिकता तथा झूठी आभिजात्य-भावना के खोखलेपन को उजागर किया है, मध्यवर्गीय आडम्बरों की धज्जियाँ उड़ाई हैं, उतनी ही आत्मीयता से समाज के पिसते हुए जन-समुदाय, किसान, मज़दूर, नारी, अछूत, वेश्याओं, पतिताओं तथा ठुकराई गई समस्त मनुष्यता को देखा है, और उसकी आशाओं, आकांक्षाओं, स्वप्नों तथा संघर्षों को उभारा है। यशपाल की यह दृष्टि ही एक प्रगतिशील चेतना से सम्पन्न यथार्थनिष्ठ रचनाकार के रूप में उन्हें प्रतिष्ठा देती है।
Acharya Nand Dulare Vajpeyi
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Vijay Bahadur Singh
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- Description: Awating description for this book
Hindi Sahitya Ka Aalochanatmak Itihas
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Ramkumar Verma
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“साहित्य और संस्कृति एक वृन्त के दो पुष्प हैं, और उनका पोषण एक ही रस से होता है। एक ही रस में रचे-पचे तथा परस्पर अभिन्न अन्तरंगता से जुड़े ऐतिहासिक चेतना के अद्वैत तत्त्व हैं।” ऐसी लेखक की अवधारणा है।
डॉ. वर्मा साहित्येतिहास को धर्म, दर्शन, मनोविज्ञान और सामाजिक धारणाओं के अखंड प्रतिफल के रूप में परिभाषित करते हैं, इसलिए आपके समक्ष प्रस्तुत ‘हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ सांस्कृतिक सन्दर्भों की कसौटी पर अत्यन्त प्रामाणिक और विश्वसनीय बनकर उतरता है।
आचार्य रामकुमार वर्मा का यह इतिहास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास के बाद ही नहीं लिखा गया, बल्कि शुक्ल जी के इतिहास-लेखन की अवधारणाओं से भिन्न प्रत्ययों के आधार पर लिखा गया।
लेखक ने संस्कृति, समाज, धर्म आदि को साहित्य के इतिहास-लेखन के लिए प्रभावकारी और पोषणीय तत्त्व के रूप में स्वीकार किया। इसलिए उनका इतिहास केवल साहित्य का इतिहास न होकर संवत् 750 से लेकर संवत् 1750 तक के मनुष्य की सोच, भावुकता, समन्वयशीलता, प्रतिरोधात्मकता, रक्षणशीलता, आचरणपरकता और समग्र क्रियाशीलता का इतिहास भी है। यह जितना साहित्य का इतिहास है, उतना ही संस्कृति विमर्श है।
डॉ. वर्मा ने सन्धिकाल और चरणकाल पर जितने विस्तार और गम्भीरता से प्रमाण-पुष्ट उदाहरणों द्वारा विचार किया है, वैसा किसी साहित्य के इतिहासकार ने नहीं किया।
कलाकाल या रीतिकाल का इतिहास भी लिखा है और मेरी राय में वह रीतिकाल पर लिखे गए इतिहासों से अधिक प्रामाणिक और व्यवस्थित है। भक्तिकाल का एक अर्थ में इतिहास तो वर्मा जी ने ही लिखा।
इस इतिहास-ग्रन्थ से आदिकालीन और भक्तिकालीन साहित्य की गम्भीर समझ विकसित होती है और साहित्य के निर्वचन की शक्ति प्राप्त होती है।
Muktibodh : Vimarsh Aur Punah Path
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Gajanan Madhav Muktibodh
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प्रस्तुत पुस्तक में मुक्तिबोध को वर्तमान के आलोक में देखने परखने की एक कोशिश की गयी है। इसी क्रम में पुस्तक में मुक्तिबोध के लेखन के विविध पक्षों पर आलेख शामिल किये गये हैं। हर रचनाकार अपनी रचना में अपने समय और उसकी विडम्बनाओं को उकेरने की कोशिश करता है। इसका आशय यह भी होता है कि इन विडम्बनाओं को दूर किया जाना चाहिए। एक समय का सच आखिरकार ‘अतीत का वह सच’ बन जाता है जिसको वर्तमान ख़ारिज कर चुका होता है। काश रचनाकार की रचनाएँ भी ‘अतीत का सच’ बन पातीं। सही अर्थों में यह किसी भी रचनाकार का असल मन्तव्य भी होता है। मुक्तिबोध आजीवन संघर्ष के साक्षी रहे। इसीलिए संघर्ष उनकी रचनाओं का प्रत्यक्ष है। काश ‘सामूहिक मुक्ति’ का मुक्तिबोध का सपना साकार हो पाता। यह पुस्तक एक तरह से उन सपनों की पड़ताल है।
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