Jogiya Rang ki Bahar
Author:
Shah Turab Ali QalandarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
शाह तुराब अली क़लन्दर के फ़ारसी और उर्दू कलाम के साथ साथ उनकी ठुमरियों का पहली बार हिन्दी में प्रकाशन हो रहा है. किताब के संपादक सुमन मिश्र हैं..
ISBN: 9789394494992
Pages: 170
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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कविता अन्ततः एक भाषिक संरचना है। शब्दों को बरतने की कला है। लय और संरचना उसके अनिवार्य तत्व हैं। समकालीन भारतीय राजनीति की शिकार सिर्फ़ मनुष्यता ही नहीं हमारी भाषा भी हुई है। वो भाषा जो अमीर ख़ुसरो, ग़ालिब, मीर, रहीम से लेकर मुक्तिबोध की सृजनात्मकता से गुज़रकर हमें प्राप्त हुई।
हरिओम की कविताएँ भाषा का एक खोया हुआ आत्मीय संसार गोया हमे वापिस सौंपती हैं। उनके लेखन में एक स्वाभाविक लय है जो अपनी सहजता से हमें चकित करती है। इसे एक लम्बे अभ्यास के बिना प्राप्त करना असम्भव है। कहीं-कहीं नए शब्दों को शामिल करते हुए अनायास ही वे भाषा की न सिर्फ़ पुनर्रचना करते प्रतीत होते हैं; बल्कि उसे नया संस्कार भी देते हैं।
और हम सदियाँ बिताकर आ गए थे जैसे लम्हों में—वाक्य ऐसे लगते हैं जैसे किसी शेर का पूरा मिसरा हों। भूख से नहीं मरता कोई—जैसा यांत्रिक, संवेदनहीन अहम्मन्य वाक्य जैसे किसी ग़ैरज़िम्मेदार तानाशाह का प्रतीक बन जाता है। अपने समय और समाज की गहरी चिन्ता और एहसास के बावजूद इस संग्रह की मुख्य थीम प्रेम है। वे कहते हैं—वक़्त ने जगह को ऐसे घेर रखा है/जैसे मेरी बाँहों ने तुम्हें।
वक़्त और जगह याद करिए—Time & Space—आइंस्टाइन ने जब समय को स्थान का अनिवार्य चौथा आयाम बताया था तो वैज्ञानिकों को ये समझने में कुछ समय लगा था। किन्तु प्रेम की अनुभूति के बरक्स समय और स्थान के युग्म को हरिओम इस सहजता से लाकर रख देते हैं कि हमें ये बोध ही नहीं होता कि उनकी बाँहों में समय है। और उनकी प्रेमिका जिसे वे ‘तुम’ कहकर सम्बोधित कर रहें हैं—वो जगह है, वो पृथ्वी है, वो अन्तरिक्ष है। जिसका समय से मुक्त होना असम्भव है बल्कि अस्तित्व भी असम्भव है।
हरिओम युवा हैं। अपने शब्दों को यक़ीन के साथ स्वर देते हैं और लय पर उनका अधिकार है। तारीख़ हमें साथ लिये जाती है संग्रह में इसके अलावा भी बहुत कुछ है और जो नहीं है वो अगली रचनाओं में और ताक़त के साथ आएगा।
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सत्यमोहन की साहित्य और रंगकर्म की गतिविधियों में उत्साही और सक्रिय सहभागिता रही है। उम्र के इस पड़ाव पर साहित्यिक जागरूकता और संलग्नता बनाए रखना प्रशंसनीय उपलब्धि है। उम्मीद है कि उनकी कल्पनाशील और आस्थावान रुचियाँ अभी भी जीवन्त रहेंगी।
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सत्यमोहन जी के लेखन में साफ़-सुथरी भाषा और सम्प्रेषण क्षमता है। उनकी रचनात्मकता की उड़ान काफ़ी ऊँची है। वे इस पड़ाव पर भी सक्रिय हैं यह क्या कम है, उनके जीवन की अपेक्षाएँ पूरी हों यही हमारी कामना है।
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मंगलेश डबराल का यह कविता-संग्रह वर्षों पहले प्रकाशित हुआ था और पिछले कई वर्ष से अनुपलब्ध था। यह कविता की आन्तरिक शक्ति और सार्थकता ही कही जाएगी कि एक बड़े अन्तराल के बाद भी कविता के समर्थकों के बीच इस संग्रह की ज़रूरत आज भी बनी हुई है। इस संग्रह के पहले संस्करण में लिखी पंकज सिंह की टिप्पणी को यहाँ याद करना शायद अप्रासंगिक नहीं होगा :
‘‘मंगलेश की कविताएँ जहाँ एक ओर समकालीन जीवन के अँधेरों में घूमती हुई अपने सघन और तीव्र संवेदन से जीवित कर्मरत मनुष्यों तथा दृश्य और ध्वनि बिम्बों की रचना करती हैं और हमारी सामूहिक स्मृति के दुखते हिस्सों को उजागर करती हैं, वहीं वे उस उजाले को भी आविष्कृत करती हैं जो अवसाद के समानान्तर विकसित हो रही जिजीविषा और संघर्षों से फूटता उजाला है।
‘‘अपने अनेक समकालीन जनवादी कवियों से मंगलेश कई अर्थों में भिन्न और विशिष्ट है। उसकी कविताओं में ऐतिहासिक समय में सुरक्षित गति और लय का एक निजी समय है जिसमें एक ख़ास क़िस्म के शान्त अन्तराल हैं। पर ये शान्त कविताएँ नहीं हैं। इन कविताओं की आत्मा में पहाड़ों से आए एक आदमी के सीने में जलती-धुकधुकाती लालटेन है जो मौजूदा अंधड़-भरे सामाजिक स्वभाव के बीच अपने उजाले के संसार में चीज़ों को बटोरना-बचाना चाह रही है और चीज़ों तथा स्थितियों को नए संयोजन में नई पहचान दे रही
है।‘‘कविता के समकालीन परिदृश्य में ‘पहाड़ पर लालटेन’ की कविताएँ हमें एक विरल और बहुत सच्चे अर्थों में मानवीय कवि-संसार में ले जाती हैं जिसमें बचपन है, छूटी जगहों की यादें हैं, अँधेरे-उजालों में खुलती खिड़कियाँ हैं, आसपास घिर आई रात है, नींद है, स्वप्न-दुस्वप्न हैं, ‘सम्राज्ञी’ का एक विरूप मायालोक है मगर यह सब ‘एक नए मनुष्य की गंध से’ भरा हुआ है और ‘सड़कें और टहनियाँ, पानी और फूल और रोशनी और संगीत तमाम चीज़ें हथियारों में बदल गई हैं।’
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अपनी ईमानदारी और सदाशयता के बावजूद एकरस होती जा रही अधिकांश हिन्दी कविता के बीच भगवत रावत इसलिए अपनी अनायास और अप्रगल्भ पहचान तथा अस्मिता प्राप्त कर लेते हैं कि उनके यहाँ अपने कवि और कविताई को लेकर उतना हिसाब-किताब नहीं है जितनी कि अपनी और औरों की इनसानियत और दोस्ती को बचा पाने और चरितार्थ कर पाने की चिन्ता। इसलिए अभिव्यक्ति को लेकर उनकी कविता में कई क़िस्म के ‘कलात्मक’ संकोच या आत्म-प्रतिबन्ध नहीं हैं। लिखना उनके लिए इसलिए ज़रूरी नहीं है कि कविता एक प्रतिष्ठा का प्रश्न है या उसे लिखकर कुछ सिद्ध किया जाना है, बल्कि आज के भारतीय समय में जो लिख सकते हैं, उनके पास लिखने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। वे लिखकर अमरत्व प्राप्त नहीं करना चाहते बल्कि यदि कोई विकल्प न हो तो मर-मर कर लिखना चाहते हैं।
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‘उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ’ केदारनाथ सिंह का पाँचवाँ काव्य-संकलन है, जिसमें पिछले छह-साढ़े छह वर्षों के बीच लिखी गई कविताएँ संगृहीत हैं। यह दौर बाहर और भीतर, दोनों ही धरातलों पर क्षिप्र परिवर्तनों का दौर रहा है। इस संग्रह की कविताओं में उसकी कुछ अनुगूँजें सुनी जा सकती हैं। पर एक ख़ास बात यह है कि यहाँ बहुत-सी कविताएँ एक ऐसे स्मृतिलोक से छनकर बाहर आई हैं, जहाँ समय के कई सम-विषम धरातल एक साथ सक्रिय हैं। इस संग्रह तक आते-आते कवि की भाषा में एक नई पारदर्शिता आई है। इस भाषालोक में कुछ भी वर्जित या अग्राह्य नहीं है—पर यहाँ ऐसे शब्दों पर भरोसा बढ़ा है, जो मानव-व्यवहार में लम्बे समय तक बरते गए हैं।
इस संग्रह की कविताओं में अपने स्थान के साथ कवि का रिश्ता थोड़ा बदला है, जिसका एक संकेत ‘गाँव आने पर’ जैसी कविता में देखा जा सकता है। रचना में यह नया धरातल एक तरह के आन्तरिक विस्थापन की सूचना देता है। विस्थापन की यह पीड़ा अनेक दूसरी कविताओं में भी देखी जा सकती है—यहाँ तक कि ‘कुदाल’ में भी। कोई चाहे तो कह सकता है कि यह कवि के काव्य-विकास में एक नए प्रस्थान की आहट है—हालाँकि ये कविताएँ अपने स्वभाव के अनुसार इस तरह का कोई दावा नहीं करतीं। इस संकलन की बहुत-सी कविताओं में एक अन्तर्निहित प्रश्नात्मकता है। वे अक्सर कुछ पूछती हैं—बाहर से कम और अपने-आपसे ज़्यादा। ‘उत्तर कबीर’ शीर्षक अपेक्षाकृत लम्बी कविता इस प्रश्नात्मक बेचैनी का एक बेलौस उदाहरण है। फिर इस पूछने की धार के आगे मुक्ति भी विडम्बनापूर्ण लगने लगती है और स्वयं कवि-कर्म भी—जो सड़ रहा है और ज़ाहिर कि बहुत कुछ है जो सड़ रहा है क्या मैं उसे बचा सकता हूँ कविता लिखकर?
Ek Bahut Komal Tan
- Author Name:
Leeladhar Mandoi
- Book Type:

- Description: Poems
Solitude's Embrace
- Author Name:
Anna Belmonte
- Rating:
- Book Type:

- Description: Solitude’s Embrace is born of independent musings, provocative suggestions and novel observations, all pieced together to offer readers a chance to explore their own world with a new perspective. Maybe even spark a script of their own. With everything being outward and flashy, it can be a pleasant change of pace to switch the lens. To look closer to home, turn inward; not with judgment but with curiosity and awe. With over 150 possible branches in these pages to explore, get started to find which ones take root and speak to your individuality – grow a tree of thoughts all your own.
Prarthna Ke Shilp Mein Nahin
- Author Name:
Devi Prasad Mishra
- Book Type:

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Description:
देवी प्रसाद मिश्र के लिए 1987 का ‘भारत भूषण पुरस्कार’ प्रस्तावित करते हुए प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह की संस्तुति थी कि परम्परा के साथ एक नए सम्बन्ध की स्थापना, सामाजिक सरोकार और जीवन्त भाषा-संवेदना के कारण देवी प्रसाद मिश्र युवा कवियों में अपनी विशिष्ट पहचान बनाते हैं।
‘परम्परा पाठ’ और ‘यह समय’ दो हिस्सों में बँटी इस कविता-पुस्तक का कैनवस किसी आदिम मनुष्य की संघर्ष-कथा से लेकर 1988 में मुफ़लिसी और तकलीफ़ में टूटते राम गरीब तक फैला है। हिन्दी कविता में सम्भवतः पहली बार अतीत और समकालिकता को उनकी अविच्छिन्नता और द्वन्द्वात्मकता में आमने-सामने रखा गया है। एक विस्तृत समय-संवेदना में फैली ये कविताएँ भारतीय मनुष्य की उत्पीड़ा और प्रतिरोध को अद्भुत अन्तरंगता, अनुभूति और इतिहासोन्मुखता के साथ व्यक्त करती हैं। अनुभूति और सहानुभूति की इतनी विस्तारधायी और सघन उपस्थिति सचमुच विरल है। दु:ख और दु:ख के कारणों की पड़ताल करती ये कविताएँ किसी भी दुखवाद के विरुद्ध हैं।
राज्य, सत्ता, अत्याचार, दु:ख, अस्तित्व, भाषा, कविता, सरोकार, नैतिकता, संघर्ष, क्रान्ति, परिवर्तन जैसे मुद्दों से टकराती देवी प्रसाद की कविताएँ शिल्प के किसी एकाश्मीय या मोनोलिथिक रूप को अस्वीकृत करती हैं और इस तरह मानो निराला के रचनाकर्म के प्रति प्रतिश्रुत होती हैं।
‘प्रार्थना के शिल्प में नहीं’ सिर्फ़ निरीहता और याचक मानसिकता के निषेध की ही नहीं, एक सकारात्मक और जनवादी विकल्प की अपूर्व और संवेदनशील प्रस्तावना है।
Jashn-E-Deewangi
- Author Name:
Rahul Ranjan Mahiwal
- Book Type:

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कहने की शैली जितनी पठनीय बन पाती है उतनी की लयात्मकता के साथ शायर अपने शब्दों को शायराना गीतों में आबद्ध कर पाता है। उल्लेखनीय है कि राहुल रंजन महिवाल की शायरी पर भी इस उक्ति का प्रभाव दिखाई देता है।
शायरी, गीत और नज़्म की रचनात्मकता में पनपती शाब्दिक अनुभूतियों का आश्रय शायर को पहले-पहल मोहम्मद रफ़ी साहब के गाए शायराना गीतों को सुनकर मिला था। जो यह कहने के लिए पर्याप्त अवसर देता है कि इस संग्रह की शायरी भी फ़िल्मी अन्दाज़ की निश्छलता से लबालब भरी हुई है।
‘जश्न-ए-दीवानगी’ में शामिल सौ से अधिक ग़ज़लों, गीतों और नज़्मों का विषय क्षेत्र पर्याप्त विविधता और आस्वाद से परिपूर्ण है। शायर न केवल इश्क़िया मनोभावों को इनमें रचने में सफल हुआ है बल्कि सामाजिक सरोकारों की लयात्मकता को चिह्नित करने का कार्य भी बख़ूबी करता है।
कोई भी शायर जब अपने शब्दों को गढ़ रहा होता है तो वह अनुभूति के स्तर पर अपने पाठकों को झकझोरने और उनकी चेतना में नए अनुभवों की संरचना का दायित्व जगाने का कार्य करता ही है। उर्दू शायरी में यह कार्य जिस तत्परता से होता रहा है वह उल्लेखनीय है। इधर हिन्दी शायरी में भी यह प्रयास मुक़म्मल ढंग से होने लगा है। राहुल रंजन महिवाल अपनी पुस्तक ‘जश्न-ए-दीवानगी’ में शायरी विधा और उसकी पसंदगी का वही अनुभव पैदा करते हैं। जो अवश्य ही शायरी के रसिकों और सुधि पाठकों को सुरुचिपूर्ण लगेगा।
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