Jab Prashnchinh Bokhla Uthe
Author:
Gajanan Madhav MuktibodhPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 156
₹
195
Unavailable
गजानन माधव मुक्तिबोध का कवि हमारी साझा साहित्यिक स्मृति में एक अविकल रूप से सजग और जाग्रत उपस्थिति है। उनकी कविताएँ उस कवि की अभिव्यक्तियाँ हैं जो अपने एक भी शब्द, एक भी भाव के प्रति कामचलाऊ रवैया नहीं अपनाता। यही दृष्टि व्यक्ति और विचारक मुक्तिबोध की अपने समाज और संसार के प्रति भी है।</p>
<p>इस पुस्तक में संकलित उनके राजनीतिक निबन्ध यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि सच्ची कविता अपने समय-संसार के साथ सच्चे और ईमानदार सरोकारों के बिना सम्भव नहीं है। अपने समय की राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थितियों पर मुक्तिबोध न सिर्फ़ पैनी निगाह रखते थे, बल्कि बराबर उन पर लिखते भी थे।</p>
<p>वे ‘सारथी’ में लगभग हर सप्ताह ‘यौगन्धरायण’, ‘अवन्तीलाल गुप्त’ और ‘विंध्येश्वरी प्रसाद’ आदि छद्म नामों से लिखा करते थे। इस संग्रह में ‘मुक्तिबोध रचनावली’ के प्रकाशन के बाद प्राप्त उनके राजनीतिक निबन्धों को संकलित किया गया है। कहने की ज़रूरत नहीं कि इस सामग्री से पाठकों को मुक्तिबोध की विश्वदृष्टि, चिन्तन की व्यापकता और सरोकारों की गहराई के नए आयाम देखने को मिलेंगे।</p>
<p><strong> </strong>
ISBN: 9788126718023
Pages: 132
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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शमशेर एक बड़े कवि के साथ-साथ एक आलोचक भी हैं। एक कवि-आलोचक। इस बात का साक्ष्य उनकी पहली आलोचनात्मक कृति ' दोआब' है। उन्होंने भारतीय साहित्य की परम्परा के महान रचनाकारों और साथ ही अपने समकालीन रचनाकारों और उनकी रचनाओं पर दिलचस्पी के साथ आलोचनात्मक चिन्तन किया है। शमशेर ने ऐसे रचनाकारों पर उस समय आलोचनाएँ लिखी हैं जब हिन्दी आलोचना में उन पर बात करना मुनासिब नहीं समझा जाता था; क्योंकि हिन्दी आलोचना बहुधा पूर्वाग्रहों और दायित्वहीनता का शिकार होती रही है।
शमशेर की आलोचना-दृष्टि का सबसे सबल पक्ष उसकी प्रगतिशीलता एवं भारतीयता है। आज का परिवेश इतिहासबोध, सदियों से चली आ रही सामाजिक संरचना और मौजूदा व्यवस्था में जीवनानुकूल परिवर्तन की बात करता है। इसके लिए संघर्ष की आवश्यकता होती है। शमशेर को जिस किसी रचना और रचनाकार में यह संघर्ष दिखता है; वह उन्हें अपील करता है।
उनकी मनोभूमि और रचनात्मक चिन्ताओं को जानने-समझने के लिए उनकी कविताओं से अधिक उनकी आलोचनाओं पर भरोसा किया जा सकता है। शमशेर ने अपनी आलोचनाओं में भारतीय संस्कृति पर भी चिन्तन किया है। वे अपनी आलोचना के लिए भारतीय भाषाओं की ऐसी रचनाओं का चुनाव करते हैं जो भारतीय संस्कृति के 'सामासिक स्वरूप' को सामने लाती हैं।
परम्परा का मूल्यांकन शमशेर की आलोचना-दृष्टि की आधारभूमि है, तो समकालीन रचनाशीलता का मूल्यांकन उनकी तटस्थता और सजगता का प्रमाण। अपने समय के प्रति जागरूक रचनाकार ही साहित्य, समाज और मनुष्य को अपनी 'मनुष्यता खोने के डर' से उबारकर इन सबको 'मनुष्यता की उच्च भूमि' पर खड़ा कर सकता है। शमशेर इस ओर क़दम बढ़ाते नज़र आते हैं।
शमशेर निर्मम आलोचक नहीं हैं। निराला, ग़ालिब, सुभद्रा कुमारी चौहान, नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन आदि न जाने कितने रचनाकारों पर लिखी आलोचना उनके सन्तुलित और स्वस्थ दृष्टिकोण की परिचायक है। नागार्जुन को 'मुँहफट कवि', त्रिलोचन को 'साहित्य का हनुमान' आदि कह देना शमशेर की बेबाक आत्मीयता का ही प्रमाण है। शमशेर के बारे में अब तक 'अनकही' अनेक बातों को कहने की कोशिश के साथ यह पुस्तक 'पब्लिक स्फ़ियर' में प्रस्तुत है।
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