Bhasha Aur Sameeksha Ke Bindu
Author:
Satyadev MishraPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 240
₹
300
Unavailable
आधुनिक हिन्दी-समीक्षा के स्वरूप-विकास में पौर्वात्य से कहीं अधिक पाश्चात्य समीक्षा-दर्शन का अनुप्रभाव परिलक्षित हो रहा है। आज विश्वविद्यालयों और प्रतियोगी-परीक्षाओं में जिन समीक्षा-सिद्धान्तों, आलोचनात्मक प्रत्ययों, समीक्षा-आन्दोलनों की चर्चा का विषय बनाया जा रहा है, प्रश्नांकनों की कसौटी पर कसा जा रहा है, उनमें से अधिकांश पाश्चात्य भाषा-विमर्श, साहित्य-कला-दर्शन और अन्य साहित्येतर अनुशासनों से अनुस्यूत हैं। इन नवोन्मेषी सिद्धान्तों, वादों और समीक्षात्मक संकल्पनाओं, साहित्येतर अवधारणाओं का प्रामाणिक विमर्श इस ग्रन्थ में है।</p>
<p>प्रस्तुत कृति संगोष्ठियों में विमर्श के अधुनातन सन्दर्भों से सम्पृक्त है। विश्वास है कि शिक्षकों-शिक्षार्थियों, प्रतियोगियों और जिज्ञासुओं के लिए यह उपादेय सिद्ध होगी।
ISBN: 9788180310683
Pages: 365
Avg Reading Time: 12 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
Recommended For You
Dakshina
- Author Name:
Sirpi Balasubramaniam
- Rating:
- Book Type:

- Description: A literary digest of South Indian Languages.
Aadhunik Hindi Kavyalochna Ke Sau Varsh
- Author Name:
Pushpita Awasthi
- Book Type:

-
Description:
काव्यालोचना के सौन्दर्यशास्त्र और भाषा के वर्तमान परिदृश्य को उर्वर बनाने में एक साथ कम से कम तीन पीढ़ियाँ सक्रिय दिखाई देती हैं जिनमें विभिन्न तरह की प्रेरणाएँ, प्रक्रियाएँ देखी जा सकती हैं। काव्य-आलोचना का अद्यतन परिदृश्य विभिन्न-दृष्टियों के ताने-बाने से निर्मित है।
कविता अपनी रचना में ही कैसे अपना नया काव्यशास्त्र रचती-रचती है? कविता और काव्यालोचना का सौन्दर्य कैसे बनता है? जीवनानुभवों और मनस्तत्वों की भाषा में कैसी बुनावट है? क्या कारण है कि तुलसी-जायसी के व्याख्याता आचार्य शुक्ल कबीर से सहानुभूति-सह-अनुभूति नहीं महसूस करते? लेखिका इस पुस्तक में आधुनिक हिन्दी कविता और काव्यालोचना का नया सौन्दर्यशास्त्र सृजन करने के क्रम में समीक्षा की भाषा के अलावा ऐसे कई सवालों से भी दो-चार हुई हैं।
हिन्दी काव्यालोचना के सौ वर्ष की गहन पड़ताल करनेवाली यह पुस्तक कविता के अध्येताओं, शोधार्थियों व काव्य-प्रेमियों के लिए उपयोगी है।
Hindi Kavita : Abhi, Bilkul Abhi
- Author Name:
Nandkishore Naval
- Book Type:

-
Description:
अपनी इस पुस्तक में नामवरोत्तर हिन्दी आलोचना के अग्रगण्य आलोचक
डॉ. नंदकिशोर नवल ने अपने समकालीन कवियों की कविता पर विचार किया है। ये वे कवि हैं, जिनके साथ वे उठे हैं, दौड़े हैं और झगड़े हैं; स्वभावत: इन कवियों पर लिखना अग्नि–परीक्षा से गुज़रना था, लेकिन साहित्य की पवित्रता की पूरी तरह से रक्षा करते हुए वे उसमें सफल हुए हैं। कभी–कभी उन्होंने कवियों की त्रुटियों की ओर भी संकेत किया है, लेकिन उसका ज़रूरत से ज़्यादा महत्त्व नहीं है, क्योंकि उनका लक्ष्य कवियों के वैशिष्ट्य का निरूपण रहा है और यह कार्य उन्होंने पूरे वैदग्ध्य से किया है। एक पीढ़ी के कवियों की पारस्परिक भिन्नता को रेखांकित करना आसान नहीं है, लेकिन उनकी कविताएँ उनकी नसों में इस क़दर प्रवाहित रही हैं कि उसमें उन्हें ज़रा भी दिक़्क़त नहीं हुई है।डॉ. नवल आलोचना साधारण पाठकों को सामने रखकर लिखते हैं। इतना ही नहीं, वे उनके साथ चलते हैं, उन्हें प्रासंगिक संस्मरण सुनाते हैं और घुमाते हुए कवि की सम्पूर्ण चित्रशाला का दर्शन करा देते हैं। वे उस आलोचना के सख़्त ख़िलाफ़ हैं, जो कविता की ज़मीन छोड़कर चील की तरह आकाश की गहराइयों में उड़ती है और वहाँ उड़ते कीड़ों की जगह पाठकों का शिकार करती है। ऐसी आलोचना पाठकों को आतंकित जितना कर ले, उसकी मित्र और बन्धु नहीं बन पाती।
निश्चय ही आलोचना कविता को कहानी या यात्रा–वर्णन बना देना नहीं है, लेकिन यदि उसे ‘रचना’ का ओहदा प्रदान करना है, तो उसमें रचना जैसी संवेदनशीलता लानी होगी। संवेदनशीलता के साथ स्पष्टता और आत्मीयता डॉ. नवल की ऐसी विशेषताएँ हैं, जिन्हें सराहते ही बनता है। अन्त में उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि ‘अब निर्मल जल–भर है, सेवार नहीं है’।
Angrezi-Hindi Abhivyakti Kosh
- Author Name:
Dr. Kailash Chandra Bhatia
- Book Type:

- Description: अंग्रेज़ी-हिंदी .अभिव्यक्ति कोश हिंदी के प्रगामी प्रयोग के लिए राजभाषा विभाग (गृह मंत्रालय) बराबर जोर दे रहा है । इस प्रक्रिया को सुलभ व सरल बनाने के लिए और राजभाषा प्रेमियों की सुविधा के लिए केंद्र तथा राज्य स्तर पर अनेक महत्त्वपूर्ण शब्दकोशों का निर्माण किया गया है । ये सभी कोश शब्दों पर ही अधिक बल देते हैं । वैसे इस प्रकार के कुछ बहुप्रयुक्त फ्रेजेज समेकित प्रशासन शब्दावली के अंत में दिए गए हैं । मध्य प्रदेश सरकार ने भी इस दिशा में अच्छा कार्य किया है । कंप्यूटर युग में शब्दकोश के साथ ही शब्द-समूह /पद-बंध / प्रयोग और संबंधित क्षेत्र की प्रयुक्तियों को प्रमुखता मिलना स्वाभाविक है । अभी तक अंग्रेजीं-हिंदी का ऐसा कोई बृहत् कोश उपलब्ध नहीं है जिसमें प्रशासन/कार्यालय से संबंधित दैनिक व्यवहार में आनेवाले शब्द-समूह तथा फ्रेजेज को संकलित किया गया हो । विधि, न्याय तथा प्रशासन से संबंधित पदाधिकारियों और अंग्रेज़ी- हिंदी अनुवाद के क्षेत्र में कार्यरत अधिकारियों को ऐसे शब्दकोश का अभाव ज्यादा खटकता रहा है । इन कठिनाइयों का लेखक ने प्रत्यक्ष अनुभव किया और उसी का परिणाम है यह ' अंग्रेज़ी-हिंदी अभिव्यक्ति कोश ' ।
Upanyason Ke Rachna Prasang
- Author Name:
Kushum Vashney
- Book Type:

- Description: ी भी कृति की रचना-प्रक्रिया को जानना बेहद दिलचस्प और रोमांचक होता है। मानस की कितनी ही गूढ़ और अनजानी परतों से होकर कोई रचना जन्म लेती है। प्रस्तुत पुस्तक में लेखिका ने विभिन्न महत्त्वपूर्ण उपन्यासों की रचना-प्रक्रिया की परख-पड़ताल की है। पुस्तक के पहले दो अध्याय— ‘अंकुरण : अनुभूति से अभिव्यक्ति बिन्दु तक की प्रक्रियाएँ’ और ‘अवतरण : अभिव्यक्ति की प्रक्रियाएँ’ में रचना-प्रक्रिया को समझने और विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है। इसमें देश-विदेश के बहुत से उपन्यासकारों के वक्तव्यों और विचारों को इसीलिए संकलित किया गया है ताकि भिन्न-भिन्न परिवेश और देश, विभिन्न संस्कृति और सभ्यता, विभिन्न भाषायी उपन्यासकारों के वक्तव्यों को आमने-सामने रखकर रचना-प्रक्रिया का सार्थक विश्लेषण किया जा सके। पुस्तक में संकलित ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ के अवतरण की कहानी विशेष उपलब्धि है जिसमें अमृतलाल नागर के इस महत्त्वपूर्ण उपन्यास के रचना-प्रसंग की कथा बयान की गई है। पाठकों के लिए हमेशा ही काम आनेवाली एक महत्त्वपूर्ण कृति।
Aadhunik Hindi Upanyaas : Vol. 2
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

-
Description:
आठवें दशक की समाप्ति के साथ हिन्दी उपन्यास को लेकर जिस नई गहमागहमी का दौर शुरू हुआ था, वह आज परिपक्वता प्राप्त कर चुका है। ‘नौकर की कमीज़’ से लेकर ‘आख़िरी कलाम’ तक विस्तृत हिन्दी उपन्यास का लगभग तीन दशकों का यह सफ़र भारतीय समाज के साथ उपन्यास के जनतांत्रिकरण का भी दौर रहा है।
मध्यवर्गीय उभार, साम्प्रदायिकता, उपभोक्तावादी संस्कृति व हाशिए के लोगों की दास्तान समेटे हिन्दी उपन्यास ने जहाँ अपने सरोकारों का विस्तार किया है, वहीं कथ्य व रूप की एकरसता को भी तोड़ा है। कहा जा सकता है कि इस दौर में उपन्यास महज़ साहित्यिक संरचना न रहकर एक सामाजिक संरचना के रूप में भी अधिक पुष्ट और समृद्ध हुआ है।
लेकिन यही वह दौर भी है जब हिन्दी उपन्यासों में दो दृष्टियों का टकराव भी सामने आया। एक दृष्टि भारतीय समाज के संश्लिष्ट यथार्थ से मुठभेड़ करती हुई बदलते सामाजिक परिदृश्य की साक्षी थी तो दूसरी ‘विश्व नागरिकता’ की ललक में भाषायी खिलन्दड़ेपन का नट–सन्तुलन करते हुए ऐसी कलात्मक चकाचौंध को जन्म देती हुई जो यथार्थ को दृश्य–ओझल कर देती थी।
विश्वकथा साहित्य की तर्ज पर नारी-चेतना के सशक्त तेवरों की अनुगूँज भी इधर के हिन्दी उपन्यासों में अत्यन्त प्रभावी ढंग से प्रकट हुई। नारी–देह का जुलूस निकालती पुरुषवादी रतिक दृष्टि के समानान्तर स्त्री लेखिकाओं का नारी–विमर्श नारी जीवन की गोपन सच्चाइयों व उन हादसों को बेपर्दा करता है जो अपनी समस्त विकृति, कुत्सा व अविश्वसनीयता के बावजूद भारतीय समाज का नग्न व क्रूर यथार्थ है ।
‘आधुनिक हिन्दी उपन्यास’ के इस दूसरे खंड के सम्पादक डॉ नामवर सिंह हैं और इसमें अस्सी के दशक से 2003 तक के तीस उपन्यासों पर चर्चा शामिल है–प्रत्येक उपन्यास पर उसके लेखक के संस्मरणात्मक आलेख और किसी समीक्षक द्वारा की गई एक सारगर्भित समीक्षा के साथ ।
Samkaleen Rang-Paridrishya
- Author Name:
Satyendra Kumar Taneja
- Book Type:

-
Description:
इस पुस्तक के लेख और समीक्षाएँ लेखक की लम्बी यात्रा के दस्तावेज़ हैं। इनमें नाटक और रंगमंच से जुड़े हर पहलू पर न सिर्फ़ व्यापक रूप से चर्चा की गई है, बल्कि कई समकालीन सवालों और समस्याओं का हल भी तलाशने की कोशिश की गई है।
थियेटर के व्यावसायिक होने की चिन्ताओं पर विमर्श जहाँ कई ज़रूरी बातों को रेखांकित करता है, वहीं भारतीय रंगमंच-निर्देशन और अभिनय की दुनिया की विरल प्रतिभाओं के अप्रतिम योगदान के अतिरिक्त जिन विशिष्ट निर्देशकों-अभिनेताओं ने अपने अद्वितीय प्रस्तुतीकरण से रंग-जगत को अमिट स्मृतियों से समृद्ध किया—हबीब तनवीर, इब्राहिम अल्काज़ी, श्यामानन्द जालान, ब.व. कारन्त—उन पर भी पर्याप्त सामग्री दी गई है।
हिन्दी रंगमंच के विकास की दिशा बहुमुखी रही है, उसे सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए कुछ लेख ऐसे हैं जो न केवल रंगमंच के इतिहास के कुछ पहलुओं या स्थितियों को जानने में मदद करते हैं, बल्कि उनके परवर्ती प्रभावों की महत्ता को भी स्पष्ट करते हैं; जैसे—'इच्छा-शक्ति का इतिहास और इप्टा की सीमाएँ’, 'जब्तशुदा साहित्य, पत्रकारिता और पारसी थियेटर’, 'विद्रोही वृत्ति का मंत्र बना नीलदर्पण का प्रकाशन’, 'पचास वर्षों में भी सामाजिकचर्या नहीं बना : दिल्ली का रंगकर्म’, 'दिल्ली का पंजाबी रंगमंच’।
पुस्तक के कुछ लेख संस्मरणात्मक हैं—'आपबीती के बहाने नाट्यालोचन पर एक विमर्श’, 'बुल्ला...की जाने...मैं कौन!’, 'कारन्त की समकालीनता’। 'क्रान्ति का विचार और संस्कृत नाटक’ इस लेख में प्रचलित छवि से हटकर, संस्कृत नाटक के एक अछूते पक्ष को लेखक ने नई दृष्टि के साथ उजागर किया है। वहीं नाट्य-पुस्तक हो या रंगकर्म सम्बन्धित कोई मुद्दा या गतिविधि, उसकी अन्तर्वस्तु से उठते या जुड़े इतर सवालों को, समीक्षा लिखते समय उसके शीर्षक के माध्यम से प्रतिध्वनित किया गया है—'विद्रोह के लुभावने स्वर’, 'युद्ध के निमित्त राष्ट्र-प्रेम और राजनीति’, 'औपनिवेशिक परिवेश में विदेशी भाषाओं के नाट्यानुवाद’, 'प्रासंगिकता के दबाव से घिरे कुछ नाटक’ आदि।
'समकालीन रंग-परिदृश्य’ लेखक के अपने विषय के प्रति वर्षों से लगाव, गहरी दिलचस्पी तथा अपने दृष्टिकोण की खोज का एक विशिष्ट परिणाम है।
Muslim Navjagran Aur Akbar Allahabadi Ka 'Gandhinama'
- Author Name:
Virendra Kumar Baranwal
- Book Type:

-
Description:
हिन्दी में सम्भवत: यह पहली किताब है जिसमें अकबर इलाहाबादी के ‘गांधीनामा’ की पृष्ठभूमि में मुस्लिम नवजागरण, उसके विविध पक्षों तथा उसमें योगदान देनेवाले प्रमुख उन्नायकों के अवदान के बारे में इतनी बारीक चर्चा की गई है। इसमें शाह वली उल्लाह से लेकर मौलाना आज़ाद तक जैसे विख्यात युगपुरुषों के अवदान पर विचार तो किया ही गया है, इसके अलावा दो ऐसे विचारकों के योगदान पर भी विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है जिनके सम्बन्ध में बहुत कम लोग जानते हैं। मिर्ज़ा अबू तालिब और मौलवी मुमताज़ अली दो ऐसे ही नाम हैं। मिर्ज़ा अबू तालिब को मुस्लिम जगत में आधुनिकता की पहली आहट निरूपित किया गया है और मौलवी मुमताज़ अली को पहले मुस्लिम नारीवादी के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
हिन्दू नवजागरण के प्रवर्तक राजा राममोहन राय और मुस्लिम नवजागरण के उन्नायक सर सैयद अहमद ख़ाँ के नेतृत्व वाली अलग-अलग ये दोनों धाराएँ बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में महात्मा गांधी पर आकर एक बार एक हो जाती हैं। अकबर इलाहाबादी का ‘गांधीनामा’ दोनों पुनर्जागरणों के मिलन-बिन्दु का काव्य है। अकबर को व्यंग्य और विनोद के कवि के रूप में ही प्राय: सीमित कर दिया जाता है, उनकी कविता का प्रबल उपनिवेश विरोधी स्वर अकसर रेखांकित नहीं हो पाता। दरअसल गांधी जी की तरह वह भी पश्चिमी सभ्यता के अन्धाधुन्ध नक़ल और मशीनों के ख़िलाफ़ थे। इस तरह गांधी और अकबर के विचारों में अद्भुत समानता है। ‘गांधीनामा’ में यह स्वर बहुत अच्छी तरह से मुखर है।
Meri Dharti Mere Log
- Author Name:
Sheshendra Sharma
- Book Type:

-
Description:
कवि तीखा होता हुआ मनहर है—वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि। कितनी सरल, कितनी कोमल जनान्तिक, फिर भी अभिजात, कितनी आम-अवाम को पुकारती उसकी आवाज़ है। शब्दों का औदार्य, रचना की सुघराई, गिरा की गरिमा, भावों की तीखी सादगी सिद्ध करती है कि—सिम्पल इज़ द कल्मिनेशन ऑफ़ द कॉम्प्लेक्स।
—डॉ. भगवतशरण उपाध्याय
यह कृति सिखाती है कि किस तरह कवि संवेदना में जनवादी और क्रान्तिकारी हो सकता है। यह काव्य स्वाद और आग एक साथ देता है। इस आग से रूपान्तरित व्यक्तित्व आदमी नहीं रहता, वह क्रान्ति का अस्त्र बन जाता है, जिसे इतिहास इस्तेमाल करता है।
—डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
शेषेन्द्र के काव्य में भारतीय आत्मा की लाक्षणिक अभिव्यक्ति है। इसकी बनावट बौद्धिक नहीं, हार्दिक और आत्मिक है। यह केवल मस्तिष्क को उत्तेजित करके नहीं छोड़ देता बल्कि एक गहितर वेदना और संवेदना से हमें भीतर ही भीतर गला देता है।
—वीरेन्द्र कुमार जैन
शेषेन्द्र तेलगू-काव्य के ही नहीं, बल्कि विश्व-काव्य के आशा-सूर्य हैं। कविता-रहस्य जितना वह जानते हैं, उतना अन्य आधुनिक कवि कम जानते हैं। श्रमिक-जीवन की भूमिका पर आधारित ‘मेरी धरती : मेरे लोग’ बीसवीं शती की जिह्वा और आगामी पीढ़ियों की हृदय-ध्वनि है। शेषेन्द्र वह कवि हैं जिसे राजेश्वर ने अपनी ‘काव्य-मीमांसा’ में इस तरह वर्णित किया है—वायं पताकामिव यस्य दृष्ट्वा जनः कवीनाम अनुपृष्ठ मेति।
—डॉ. सरगूकृष्ण मूर्ति
Bhartiya Kavyashastra Ke Nai Chhitij
- Author Name:
Rammurti Tripathi
- Book Type:

-
Description:
...परम्परा कोई विच्छिन्न क्रम नहीं है। उसका स्वाभाविक विकास निरन्तर होता रहता है। कई बार उसमें बड़े निर्णायक उभार दिखाई देते हैं, लेकिन वे स्वत: स्वतंत्र नहीं होते। वे बड़े वैचारिक द्वन्द्व के, सांस्कृतिक उथल–पुथल के प्रतिबिम्ब मात्र होते हैं। अनेक बार अतिरिक्त उत्साह के कारण हम बिना जाने ही अपनी परम्परा से विरासत में प्राप्त ज्ञान को व्यर्थ और अनुपयोगी मान बैठते हैं, जिससे हम उस शक्ति से वंचित हो जाते हैं जो हमारे साहित्य और सांस्कृतिक जगत की प्राण–धारा है।
डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी ने अपने आलोचनात्मक ग्रन्थ ‘भारतीय काव्यशास्त्र के नए क्षितिज’ में इसी शक्ति को, इसी प्राण–धारा को सुरक्षित रखने का गम्भीर प्रयास किया है। पुरातन मनीषा आज के साहित्यालोचन की कहाँ तक सहयात्री हो सकती है, यही मूल चिन्ता लेखक के सम्पूर्ण विश्लेषण में व्याप्त है।
लेखक ने अपने मंतव्य को कोरे सैद्धान्तिक कथनों में प्रकट न करके साहित्य के गम्भीर विश्लेषण के माध्यम से प्राचीन आचार्यों के वैचारिक मन्थन को सारग्राही, प्रौढ़ और आवश्यक सिद्ध किया है। यद्यपि विद्वान लेखक ने विभिन्न काव्य–सम्प्रदायों के आचार्यों का चिन्तन गवेषणापूर्ण ढंग से विश्लेषित किया है, किन्तु सर्वाधिक शक्तिशाली काव्य–सिद्धान्त के रूप में आचार्य आनन्दवर्द्धन रस–ध्वनि मत की अत्यन्त विशद और गूढ़ विवेचना को केन्द्र में रखा है।
आधुनिक काव्यशास्त्र के क्षेत्र में सक्रिय आलोचकों और समीक्षकों की सोच की व्यापक पड़ताल, उनके मतों की भारतीय सन्दर्भों में समीक्षा के द्वारा लेखक ने पुरातन चिन्तन की सार्थकता को सिद्ध करने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया है। इसी के साथ पौरस्त्य और पाश्चात्य की वैचारिकता के प्रस्थान बिन्दु, इलियट, क्रोचे आदि मनीषियों के अवदान की चर्चा ने ग्रन्थ की उपादेयता और बढ़ा दी है।
Hindi Sahitya : Ek Saral Parichay
- Author Name:
Suraiyya Sheikh
- Rating:
- Book Type:

- Description: इतिहास ग्रन्थों के अतिरिक्त हिन्दी साहित्य के विभिन्न कालखंडों, काल-रूपों और धाराओं पर अनेक शोध-प्रबन्ध एवं समीक्षात्मक ग्रन्थ प्रकाश में आए हैं। इनमें साहित्य के अनेक अज्ञात तथ्यों और अनिर्णीत प्रश्नों को नवीन दृष्टिकोण से नवालोक में प्रस्तुत किया गया है, किन्तु हिन्दी अनुसन्धान-जगत के इन नवीन निष्कर्षों और परिणामों का अतीव सतर्कतापूर्वक समन्वय एवं समाहितीकरण इतिहास-लेखन की दिशा में अभी शेष है। अतः नवीन शोध-परिणामों और विकसित साहित्य-चेतना के आलोक में हिन्दी साहित्य के इतिहास का पुनर्गठन और लेखन आवश्यक है। निस्सन्देह आज हिन्दी साहित्य के इतिहास में सम्बन्धित शताब्दिक पुस्तकें उपलब्ध हैं, किन्तु अभी तक इस दिशा में उचित व सन्तोषजनक प्रगति नहीं हुई है। हमने उस अभाव को दृष्टि में रखकर इस ग्रन्थ का प्रणयन किया है।
Kabir Ka Yugpath
- Author Name:
Jaipal Singh
- Book Type:

-
Description:
अपने समय में कबीर जनमानस को समझा रहे थे कि पाहन पूजने वाली दुनिया अपने घर की चक्की नहीं पूजती, जिसका पीसा खाती है। तब से लेकर आज तक कबीर के शब्द भारतीय मानस में गूँज रहे हैं। फिर भी दुनिया का पागलपन पहले से ज्यादा बढ़ गया। हमारे समाज में ज्यों-ज्यों अंधविश्वास, मिथ्या आडंबर, रूढ़ियाँ और लंपटता बढ़ती जा रही है, त्यों-त्यों कबीर और अधिक प्रासंगिक होते जा रहे हैं। जिस संसार को कबीर ने ‘दुनिया ऐसी बावरी’ कहा था, उसमें अब चतुर्दिक्, झूठ का ही बोलबाला है। झूठ ने अपने मिथ्या प्रवाद से सच का मुँह बंद कर दिया है। पूरे संसार में लोकतांत्रिक-मूल्यों का क्षरण हो रहा है। पर आज उनके विपक्ष में खड़ा कबीर-जैसा कोई कवि नहीं है।
भारतीय समाज की बहुसंख्यक जनता कबीर की कृतज्ञ है कि उन्होंने अपनी कविता से हजारों सालों से लोगों के मन पर लदा शास्त्रों के बुद्धि-विलास, परंपरा की जड़ता, अंधविश्वास, अतार्किकता, रूढ़ियों और असत्य धारणाओं का जो बोझ था, उससे निर्भार कर दिया। कबीर ने जनता को शास्त्र नहीं, कविता से शिक्षित किया, साधुता को श्रम से जोड़ा और भिक्षा से मुक्त किया। हजारों वर्ष बीत गए, हमारा अभिजात वर्ग आज भी श्रम को हेय दृष्टि से देखता है। कबीर ने अपनी चादर खुद बुनी और सिद्ध कर दिया कि दूसरे की बुनी चादर ओढ़कर कबीर नहीं बना जा सकता।
‘कबीर का युगपथ’ पुस्तक का प्रणयन जयपाल सिंह ने इसी भाव से किया है। देश की अग्रणी पंक्ति के विद्वानों ने इसमें भागीदारी की है। प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह से लेकर प्रो. ए. अरविन्दाक्षन जैसे दो दर्जन विद्वानों ने इस पुस्तक में अपने विचार प्रकट किए हैं। जयपाल ने इस पुस्तक के लिए अथक श्रम किया है, मुझे विश्वास है कि यह पुस्तक कबीर के अध्येताओं और बृहत्तर भारतीय समाज में प्रशंसित होगी।
—दिनेश कुशवाहा, सुप्रसिद्ध कवि
Pracheen Kavi
- Author Name:
Vishvambhar 'Manav'
- Book Type:

-
Description:
हिन्दी के विशाल वाङ्मय के अन्तर्गत ब्रज, अवधी और खड़ी बोली तीनों का काव्य आता है; पर खड़ी बोली के प्रति अत्यधिक मोह होने के कारण हमने अपने को एक गौरवशाली परम्परा से विच्छिन्न कर लिया है और इस प्रकार अपने उत्तराधिकार से स्वयं वंचित हो गए हैं। अतीत के काव्य का अपना एक महत्त्व है, एक स्थान है, एक सौन्दर्य है।
आलोचक के लिए साहित्य के सम्पूर्ण विकास की जानकारी अपेक्षित है, अत: आधुनिक काव्य को समझने के लिए भी प्राचीन काव्य का अध्ययन अनिवार्य रहेगा—अपनी परम्परा के परिचय के लिए भी और उसे उचित परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने के लिए भी। यदि हम साहित्य के किसी भी काल से अपरिचित हैं, तो हम उसके किसी अन्य काल के प्रति भी न्याय नहीं कर सकेंगे। हमें अपने साहित्य की सभी युगों की ऊँचाइयों से परिचित होना चाहिए। मेरा विश्वास है कि जो व्यक्ति ‘रामचरितमानस’, ‘पद्मावत’ और ‘सूरसागर’ की गरिमा को नहीं पहचानता, वह ‘साकेत’, ‘कामायनी’ और ‘प्रिय-प्रवास’ के सम्बन्ध में भी अतिरंजित ढंग की बातें करेगा।
रीतिकालीन-काव्य चिन्तन-प्रधान भी है। चिन्तन जीवन की सीमाओं के भीतर से उसकी ज्वलन्त समस्याओं को लेकर हुआ है। जीवन में केवल भावना से काम नहीं चलता, उसके पथ की बाधाओं को पार करने के लिए बुद्धि के सहयोग की भी अपेक्षा है। जीवन की कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के लिए जन-धारणाओं को अनुभवी लोगों के व्यावहारिक ज्ञान की आवश्यकता पड़ती ही है।
इस समीक्षा ग्रन्थ में चन्द बरदाई से लेकर दीनदयाल गिरि तक सत्रह प्रमुख प्राचीन कवियों के जीवन और काव्य का विवेचन इस रूप में किया गया है, जिससे बीसवीं शताब्दी के पूर्व के सम्पूर्ण ब्रज और अवधी काव्य का सौन्दर्य आज के प्रबुद्ध पाठक के सामने प्रत्यक्ष होकर, कबीर और जायसी, सूर और तुलसी, देव और बिहारी आदि में हमारी अनुरक्ति नए सिरे से जगा सके।
Hindi Bhasha Aur Mahavir Prasad Dwivedi
- Author Name:
Madhu Gautam
- Book Type:

-
Description:
युग-निर्माता आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने अपने युग के लेखकों की भाषा में जो सुधार किए एवं उनकी रचनाओं का भाषा-विश्लेषण किया है, उनके योगदान का सम्यक् इस पुस्तक में मूल्यांकन किया गया है। लेखिका ने आलोच्य पुस्तक में महावीरप्रसाद द्विवेदी का मूल्यांकन भाषा-वैज्ञानिक पद्धति पर किया है, जिसके साथ उनका साहित्यिक अवदान भी स्पष्ट होता चला है। ‘सरस्वती’ पत्रिका में द्विवेदी जी के सम्पादन-कर्म का सम्यक् मूल्यांकन भी इस पुस्तक की अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता है।
द्विवेदी जी द्वारा प्रयुक्त शब्दकोश को भी प्रस्तुत किया गया है। जिन पाठकों को द्विवेदी जी के समस्त कार्यों का अवगाहन कर ‘सरस्वती’ के महत्त्व को जानने की जिज्ञासा हो, साथ ही नवजागरण से युक्त हिन्दी साहित्य के व्याकरणिक परिवर्तन को देखने की इच्छा हो उनके लिए यह पुस्तक अवश्य पठनीय एवं मनन योग्य है। महावीरप्रसाद द्विवेदी जी के मूल्यांकन में यह पुस्तक नए आयाम खोलती है, जिसका आधार भाषाशास्त्र है।
Mopala Kand Arthat Mujhe Usse Kya?
- Author Name:
Vinayak Damodar Savarkar
- Book Type:

- Description: Awating description for this book
Sampoorn Rachnayen : Rahim
- Author Name:
Ramkishor Sharma
- Book Type:

- Description: रहीम मध्यकाल के ऐसे विलक्षण कवि हैं, जिनके अनुभव बहुआयामी हैं। इन्होंने जीवन में वैभव, सम्पन्नता तथा प्रतिष्ठा प्राप्त की और विपन्नता, तिरस्कार तथा बर्बर व्यवहार की पीड़ा भी झेली। इन्होंने धर्मनीति, राजनीति तथा लोकनीति से सम्बन्धित अपने अनुभूत विचारों को छन्दबद्ध करके जन-साधारण को चमत्कृत कर दिया। तुलसीदास, कबीरदास आदि भक्तों की तरह यदि किसी की उक्ति सामान्य शिक्षित व्यक्ति के द्वारा समय-समय पर उद्धृत की जाती है तो वह है रहीम की नीति सम्बन्धी उक्ति का कथन। रहीम की रचनाओं को सही ढंग से समझने के लिये उनका सटीक संस्करण प्रस्तुत किया जा रहा है। इनमें उनकी हिन्दी, संस्कृत तथा ज्योतिष सम्बन्धित सभी रचनाओं को समाहित किया गया है। एक लम्बी भूमिका में उनकी रचना की विशेषताओं को उद्घाटित किया गया है। भारतीय सांस्कृतिक उदारता, आस्था, विश्वास तथा सहिष्णुता आदि रहीम को उसी आलोक में परखने की चेष्टा इस कृति की विशेषता है। पूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत ग्रन्थ रहीम की रचनाओं के मूल अभिप्राय को समझने में अध्येताओं, छात्रों तथा प्राध्यापकों के लिए उपयोगी होगा।
Etihasik Bhashavigyan Aur Hindi Bhasha
- Author Name:
Ramvilas Sharma
- Book Type:

-
Description:
रामविलास जी ने भाषा की ऐतिहासिक विकास-प्रक्रिया को समझने के लिए प्रचलित मान्यताओं को अस्वीकार किया और अपनी एक अलग पद्धति विकसित की।
वे मानते थे कि कोई भी भाषापरिवार एकान्त में विकसित नहीं होता, इसलिए उसका अध्ययन अन्य भाषापरिवारों के उद्भव और विकास से अलग नहीं होना चाहिए। वे चाहते थे कि प्राचीन लिखित भाषाओं की सामग्री का उपयोग करते समय जहाँ भी समकालीन उपभाषाओं, बोलियों आदि की सामग्री प्राप्त हो, उस पर भी ध्यान दिया जाए, इसी तरह आधुनिक भाषाओं पर काम करते हुए उनकी बोलियों के भाषा-तत्त्वों को भी सतत ध्यान में रखा जाए। भाषा की विकास-प्रक्रिया के विषय में उनकी मान्यता थी कि भाषा निरन्तर परिवर्तनशील और विकासमान है। विरोध और भिन्नता के बिना भाषा न गतिशील हो सकती है, न वह आगे बढ़ सकती है। इसलिए किसी भी भाषा के किसी भी स्तर पर, विरोधी प्रवृत्तियों और विरोधी तत्त्वों के सहअस्तित्व की सम्भावना के लिए हमें तैयार रहना चाहिए।
इन तथा कुछ और बातों, जो रामविलास जी की भाषावैज्ञानिक समझ का अनिवार्य अंग थीं, को ध्यान में रखते हुए ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के क्षेत्र में अनुसन्धान नहीं किया गया, अगर ऐसा किया जाता तो निश्चय ही कुछ नए निष्कर्ष हासिल होते। रामविलास जी ने विरोध का जोखिम उठाकर भी यह किया, जिसके प्रमाण इस पुस्तक में भी मिल सकते हैं।
KASHMIR : Bharat-Pakistan Sambandhon ke Aaine Mein
- Author Name:
Sisir Gupta
- Book Type:

- Description: अगस्त-सितंबर 1965 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध की मुख्य सीख यह थी कि प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देनेवाली अराजकता की पृष्ठभूमि में आज एक अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था कार्यरत है, जो मँझली एवं छोटी शक्तियों को बल प्रयोग द्वारा मुद्दों के समाधान की अनुमति प्रदान नहीं करती है। आज की दुनिया में ऐसी अवस्था को दृष्टिगत करना कठिन है, जहाँ शत्रु को सफलतापूर्वक परास्त करने के उपरांत भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी के भी द्वारा शांति की शर्तों का निर्धारण किया जाए। प्रस्तुत पुस्तक में भारत के विभाजन-काल की परिस्थितियों, जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत में विलय मामले पर संयुक्त राष्ट्र में चर्चा, द्विपक्षीय वार्त्ताओं और इस मुद्दे पर महाशक्तियों के रुख तथा जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटने के बाद की बदली परिस्थिति, विकास कार्य एवं जम्मू- कश्मीर पुनरुत्थान आदि का विस्तृत और निष्पक्ष विवरण है। संबंधित पक्षों पर नेताओं, विशेषज्ञों की टिप्पणियाँ और प्रेस के उद्धरण पुस्तक को और भी पठनीय बनाते हैं। कश्मीर में रुचि रखने वाले शोधकर्ताओं, प्राध्यापकों के साथ-साथ अन्य पाठकों के लिए भी यह पुस्तक रोचक और ज्ञानवर्धक है।
Kavi Ka Akelapan
- Author Name:
Mangalesh Dabral
- Book Type:

-
Description:
कवियों के गद्य में कोई न कोई विशेषता तो होती होगी जो हम उसे अक्सर आम गद्य से अलग करके देखने की कोशिश करते हैं। वह विशेषता क्या हो सकती है? क्या कवि का बादल लिखना हम पर छाया कर जाता है? क्या कवि के बारिश लिखने से हम भीगने लगते हैं? कवि का प्रेम या ख़ून के बारे में कुछ लिखना हमें बेचैन करने लगता है? मंगलेश डबराल का गद्य पढ़ते हुए कितनी ही बार हम संवेदना के कई ऐसे बारीक़ उतार-चढ़ावों से गुज़र सकते हैं। मगर यह कहना कि उनका गद्य दरअसल उनकी कविता का ही एक आयाम है, इस गद्य की विशेषता को पूरा अनावृत नहीं करता। इससे गुज़रते हुए सबसे पहले तो यही लगता है कि यह गद्य क़तई महत्त्वाकांक्षी नहीं है। यह सिर्फ़ भाषा के स्तर पर आपको मोहित नहीं करता, बल्कि कविताओं और एक कवि के दूसरे कई सरोकारों की समाजशास्त्रीय और राजनीतिक विवेचना की गहराई इसे असली उठान देती है। उसमें अनुभव की गहराई, विचार की प्रतिबद्धता और शिल्प की सुन्दरता एक साथ बुनी हुई है।
‘कवि का अकेलापन’ दो हिस्सों में बँटा हुआ है। पहले हिस्से में मंगलेश अपने कुछ प्रिय कवियों की रचनाओं, उनकी पंक्तियों को खोलते हुए उनके अर्थ-स्तरों और उस भावभूमि तक पहुँचने की कोशिश करते हैं, जहाँ से वे पंक्तियाँ अवतरित हुई होंगी और ऐसा करते हुए वह अलग-अलग स्थितियों, विषयों और विचारों के सन्दर्भ में उस कवि के और साथ ही स्वयं अपनी सोच और कल्पना को उघाड़ते हैं। यह हमें एक साथ दो-दो कवियों के भीतरी लोक में समाहित काव्यात्मक स्पन्दन और विमर्श के संसार की अद्भुत छवियाँ दिखाता है। दूसरे हिस्से में कवि की बेतरतीब डायरी है। यह डायरी एक बेचैन व्यक्ति, एक आम नागरिक, एक पुत्र, एक दोस्त, एक संगीत-प्रेमी और इन सबसे थोड़ा ज़्यादा एक कवि के रूप में मंगलेश डबराल को हमारे सामने खोलने का काम करती है और अन्ततः हम यह सोचकर विस्मित हुए बिना नहीं रह पाते कि एक कवि अपने अकेलेपन में किस तरह अपने चारों ओर फैले दृश्यों, बदलावों, अदृश्य दबावों, विस्मृतियों, तकलीफ़ों की नज़र न आनेवाली वजहों और न जाने कितने ही दूसरे अमूर्तों की शिनाख़्त कर उन्हें मूर्त कर सकता है। अगर इसी किताब में प्रयुक्त शीर्षकों की मदद से कहा जाए तो यह ‘असमय के बावजूद’, ‘प्रसिद्धि के उद्योग’ और ‘बर्बरता के विरुद्ध’ एक कवि का ‘लौटते हुए पूर्णतर’ होते जाना है।
Kamayani : Ek Punarvichar
- Author Name:
Gajanan Madhav Muktibodh
- Book Type:

-
Description:
‘कामायनी : एक पुनर्विचार’, समकालीन साहित्य के मूल्यांकन के सन्दर्भ में, नए मूल्यों का ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। उसके द्वारा मुक्तिबोध ने पुरानी लीक से एकदम हटकर प्रसाद जी की ‘कामायनी’ को एक विराट फ़ैंटेसी के रूप में व्याख्यायित किया है, और वह भी इस वैज्ञानिकता के साथ कि उस प्रसिद्ध महाकाव्य के इर्द-गिर्द पूर्ववर्ती सौन्दर्यवादी-रसवादी आलोचकों द्वारा बड़े यत्न से कड़ी की गई लम्बी और ऊँची प्राचीर अचानक भरभराकर ढह जाती है।
मुक्तिबोध द्वारा प्रस्तुत यह पुनर्मूल्यांकन बिलकुल नए सिरे से ‘कामायनी’ की अन्तरंग छानबीन का एक सहसा चौंका देनेवाला परिणाम है। इसमें मनु, श्रद्धा और इडा जैसे पौराणिक पात्र अपनी परम्परागत ऐतिहासिक सत्ता खोकर विशुद्ध मानव-चरित्र के रूप में उभरते हैं और मुक्तिबोध उन्हें इसी रूप में आँकते और वास्तविकता को पकड़ने का प्रयास करते हैं। उन्होंने वस्तु-सत्य की परख के लिए अपनी समाजशास्त्रीय ‘आँख’ का उपयोग किया है और ऐसा करते हुए वह ‘कामायनी’ के मिथकीय सन्दर्भ को समकालीन प्रासंगिकता से जोड़ देने का अपना ऐतिहासिक दायित्व निभा पाने में समर्थ हुए हैं।
‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ व्यावहारिक समीक्षा के क्ष्रेत्र में एक सर्वथा नवीन विवेचन-विश्लेषण-पद्धति का प्रतिमान है। यह न केवल ‘कामायनी’ के प्रति सही समझ बढ़ाने की दिशा में नई दृष्टि और नवीन वैचारिकता जगाता है, बल्कि इसे आधार-ग्रन्थ मानकर मुक्तिबोध की कविता को और उनकी रचना-प्रक्रिया को भी अच्छे ढंग से समझा जा सकता है।
Customer Reviews
0 out of 5
Book
Be the first to write a review...