Bharat Ke Pracheen Bhasha Pariwar Aur Hindi : Vols. 1-3
Author:
Ramvilas PaswanPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 2240
₹
2800
Available
भारतीय भाषाओं का आपस में बहुत गहरा रिश्ता है। आर्य, द्रविड़, कोल और नाग—भारत के इन चारों मुख्य भाषा-परिवारों में कई ऐसी भाषाएँ हैं जिन पर बहुत कम बातचीत हुई है, जबकि आधुनिक भारतीय भाषाओं के आपसी सम्बन्धों को जानने के लिए यह कार्य अत्यावश्यक है। दूसरे शब्दों में—आर्य, द्रविड़, कोल और नाग भाषा-परिवारों के अन्तर्गत कम परिचित जितनी भाषाएँ हैं, उनका वैज्ञानिक अध्ययन आम प्रचलित भाषाओं के सम्बन्धों की सही पहचान कराने में सक्षम होगा। साथ ही भारतीय भाषा-परिवारों का विश्व के ग़ैर-भारतीय भाषा-परिवारों से क्या सम्बन्ध है, इसकी भी गहरी पहचान सम्भव होगी। भारतीय भाषाओं के वैज्ञानिक अध्ययन के इसी महत्त्व को रेखांकित करते हुए सुविख्यात समालोचक डॉ. रामविलास जी ने यह कालजयी शोध-कृति प्रस्तुत की थी।</p>
<p>तीन खंडों में प्रकाशित इस ग्रन्थ का यह प्रथम खंड है, जिसमें उन्होंने हिन्दीभाषी क्षेत्र की बोलियों का गहन अध्ययन किया, और हिन्दी तथा सम्बद्ध बोलियों के विकास को प्राचीन आर्य कबीलाई भाषाओं के साथ रखा-परखा है। भाषाविज्ञान पर एक अप्रतिम और युगान्तरकारी ग्रन्थ।
ISBN: 9789390971541
Pages: 1293
Avg Reading Time: 43 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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इस पुस्तक के रचनाक्रम के बारे में सुपरिचित कथाकार गोविन्द मिश्र के इन शब्दों को उद्धृत किया जाना चाहिए—'ऐसा शायद हमेशा रहा होगा जब एक समय में लिख रहे दो साहित्यकार पारस्परिक संवाद में लम्बे समय के लिए रहे हों—उनकी हर रचना में पारस्परिक साझेदारी रही हो। मुंशी अजमेरी और मैथिलीशरण गुप्त, गुलेरी जी और रामचन्द्र शुक्ल आदि में ऐसा कुछ सुना जाता है। ये वे दिन थे जब चीज़ें अपेक्षाकृत साफ़ थीं, आस्थाएँ भी सुनिश्चित थीं। आज जैसा आस्था का संकट तब नहीं था। इसलिए तब रचनाशीलता में साझेदारी फ़ॉर्म, भाषा, छन्द...इन तक सीमित रहती होगी। जो हमारा समय है, उसमें संवाद, साझेदारी रचना के पहले की...ये ज़्यादा ज़रूरी हो गए हैं...कि हम एक-दूसरे को भटकने से बचाए रख सकें, जो साहित्य में संघर्ष का रास्ता है, उसी पर चलने की अपनी ज़िद बनाए रख सकें। जो तकलीफ़ें, विषाद, संत्रास उपजे, उन्हें आपस में बाँटते हुए चल सकें—चलने की गरिमा महसूस करते हुए। बल्लभ और मेरा संवाद जो इधर अनायास हुआ, वह इसी कशिश को लेकर हुआ है।’
एक समय और एक ही विधा में लिख रहे दो संवेदनशील साहित्यकारों—गोविन्द मिश्र और बल्लभ सिद्धार्थ—के इस संवाद में प्रेरणा एक-दूसरे को तर्क से काटने की नहीं, बल्कि दूसरे की बात को कुरेदने और विस्तार करने की है। यह संवाद उन सभी सवालों से जूझता है, जिनसे आज का कोई भी रचनाकार किनारा नहीं कर सकता—दुःख, संत्रास, जीवन, संसार, आज का समय, लेखकीय कर्म, अध्यात्म और धर्म, समाज या व्यवस्था और लेखक का विरोध, उस विरोध का स्वरूप, साहित्य और कला की पहचान, कलाकार की मृत्यु...और, और भी जाने कितने सवाल। इन बड़े सवालों की तह में हमें दो लेखकों की कशमकश की झलक भी मिलती है। अगर लेखक की कार्यशाला जैसी कोई चीज़ हो सकती है तो यहाँ वह भी है।
संक्षेप में कहा जाए तो हिन्दी में अपनी तरह की यह पहली और दुर्लभ पुस्तक है।
Kitabnama
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

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Description:
नामवर सिंह पाठ से गहरा, आत्मीय और संवादी तादात्म्य स्थापित कर सकने वाले आलोचक थे। अपने व्याख्यानों और साक्षात्कारों में वे उपन्यासों, कहानियों, कविताओं, निबन्धों, नाटकों और आलोचना-निबन्धों पर जिस तरह बात करते थे, उससे इसकी पुष्टि होती है।
पाठ का आस्वाद करने की क्षमता आलोचक के संवेदनात्मक आधारों पर निर्भर करती है और उसका विवेचन कर पाने की शक्ति उसकी ज्ञानात्मक तैयारी पर। यदि वह अपनी तैयारी के दौरान अन्तरानुशासित होकर जीवन-जगत को देखने की दृष्टि विकसित कर पाया है, तभी वह रचना के पाठ के जीवन-जगत में फैले आधारों को देख पाएगा।
प्रत्येक कृति अन्तत: एक विशिष्ट भाषा, उसकी साहित्यिक परम्परा और विधागत विरासत से संबद्ध होती है। एक परम्परा-सजग आलोचक ही इस बात की पहचान कर सकता है कि रचना परम्परा में कहाँ और किस वैचारिक-सौन्दर्यात्मक धारा में स्थित है। नामवर सिंह एक आलोचक के रूप में ‘पाठ’ से ऐसा गहरा और संवादी रिश्ता बना पाते थे, जहाँ उनकी ये सारी खूबियाँ एक साथ देखी जा सकती हैं।
Rachna Ka Garbhgriha
- Author Name:
Krishna Sobti
- Book Type:

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Description:
कृष्णा सोबती का हर क्षण सामान्यत: लेखक का ही क्षण होता था; लेखक होने को उन्होंने जीने की एक शैली के रूप में विकसित किया। लेकिन रचना के आत्यंतिक क्षण की अनायासता और उसके रहस्य को उन्होंने कभी भंग नहीं होने दिया। उस अनुभव की सम्पूर्णता उनके लिए एक बड़ी चीज़ थी। उस कौंध की आभा को जिससे रचना की पहली पंक्ति फूटती है, उन्होंने किसी ऐहिक उतावलेपन का शिकार नहीं होने दिया।
इसीलिए उनकी हर कृति एक घटना की तरह प्रकट हुई। साहित्य समाज के लिए भी, और ख़ुद उनके लिए भी।
इस किताब में उनकी वे टीपें ली गई हैं जो उन्होंने अपनी कुछ कृतियों की रचना-प्रक्रिया के तौर पर लिखी थीं। लेखन तथा रचनात्मकता के विषय में उनके ऐसे आलेख भी इसमें शामिल हैं, जो उनकी अपनी रचना-प्रक्रिया के साथ-साथ लेखकीय अस्मिता सम्बन्धी उनकी धारणाओं पर भी प्रकाश डालते हैं।
नई पीढ़ी के लेखकों के लिए अपनी एक महत्त्वपूर्ण पूर्वज के रचना-कक्ष की यह यात्रा नि:सन्देह उपयोगी सिद्ध होगी है।
Jo Bacha Raha
- Author Name:
Nand Chaturvedi
- Book Type:

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वरिष्ठ रचनाकार नन्द चतुर्वेदी विविध विधाओं में लिखते रहे हैं। प्रस्तुत पुस्तक संस्मरण और आलोचना के मिश्रण से बने लेखों का संग्रह है। अनेक अनुभवों से समृद्ध इन लेखों में रचनाकारों का मूल्यांकन है, जीवन-शैली का विश्लेषण है, सिद्धान्तों की यात्रा है और सर्वोपरि उस दृष्टि की तलाश है जिसके बिना दिशाएँ विलुप्त हो जाती हैं।
नन्द चतुर्वेदी ने नईम, रजनीकान्त वर्मा, जीवनानन्द दास, लोहिया, मीराँ, हरीश भादानी, गणपतचन्द भंडारी और मदन डागा आदि पर लिखते हुए उनके सकारात्मक पक्षों को सामने रखा है। आलोचनात्मक दृष्टि सक्रिय है...लेकिन तर्कों और तथ्यों को विस्मृत नहीं किया गया है। व्यक्तिगत रिश्ता होते हुए भी लेखकीय तटस्थता लेखों की उल्लेखनीय विशेषता है। वे कई जगह भ्रान्तियों का निवारण भी करते चलते हैं।
इन लेखों के केन्द्र में केवल साहित्यकार नहीं हैं। पत्रकारिता के साथ कुछ ऐसे व्यक्तियों का ज़िक्र भी है जिनमें आदर्शों की झलक दिखाई देती है। मौसाजी, मास्साब रामचन्द्रजी और नेमिचन्द भावुक पर लिखते समय नन्द चतुर्वेदी ने यह ध्यान रखा है। यह कहना ज़रूरी है कि लेखों की भाषा में पर्याप्त पारदर्शिता है, जिससे अर्थ चमक उठता है, जैसे—'पोप और शंकराचार्य शान्ति और सद्भाव की प्रार्थनाओं के बावजूद वास्तविकताओं की बात नहीं करते और न उन व्यवस्थापकों को अपराधी करार देते हैं जो शोषकों के अगुआ हैं। ईश्वर को आगे करने से इस सारी व्यवस्था के अपराधी चरित्र को वैधता हासिल होती है और शोषकों को हैसियत मिल जाती है।’ इन लेखों को पढ़ते हुए ‘संवाद’ की अनुभूति होती है, यह बहुत सुखद है।
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