Lokvadi Tulsidas
Author:
Vishwanath TripathiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
कई लोगों का ख़याल है कि तुलसी की लोकप्रियता का कारण यह है कि हमारे देश की अधिकांश जनता धर्म-भीरु है। और क्योंकि तुलसी की कविता भक्ति का प्रचार करती है, इसलिए वह इतनी लोकप्रिय और प्रचलित है।</p>
<p>लेकिन इस पुस्तक के लेखक का तर्क है कि सभी भक्त-कवि तुलसी-जैसे लोकप्रिय नहीं हैं। यदि धर्मभीरुता ही लोकप्रियता का आधार होती तो नाभादास, अग्रदास, सुन्दरदास, नन्ददास आदि भी उतने ही लोकप्रिय होते।</p>
<p>वे इस पुस्तक में बताते हैं कि तुलसीदास की लोकप्रियता का कारण यह है कि उन्होंने अपनी कविता में अपने देखे हुए जीवन का बहुत गहरा और व्यापक चित्रण किया है। उन्होंने राम के परम्परा-प्राप्त रूप को अपने युग के अनुरूप बनाया है। उन्होंने राम की संघर्ष-कथा को अपने समकालीन समाज और अपने जीवन की संघर्ष-कथा के आलोक में देखा है। उन्होंने वाल्मीकि और भवभूति के राम को पुन: स्थापित नहीं किया है, बल्कि अपने युग के नायक राम को चित्रित किया है।</p>
<p>तुलसी की लोकप्रियता का कारण यह है कि यथार्थ की विषमता से देश को उबारने की छटपटाहट उनकी कविता में है। देश-प्रेम इस विषमता की उपेक्षा नहीं कर सकता। इसीलिए तुलसी दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से रहित राम-राज्य का स्वप्न निर्मित करते हैं। यही उनकी कविता की नैतिकता और प्रगतिशीलता है।
ISBN: 9789391950989
Pages: 158
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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विचार का आईना शृंखला के अन्तर्गत ऐसे साहित्यकारों, चिन्तकों और राजनेताओं के ‘कला साहित्य संस्कृति’ केन्द्रित चिन्तन को प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्होंने भारतीय जनमानस को गहराई से प्रभावित किया। इसके पहले चरण में हम मोहनदास करमचन्द गांधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, राममनोहर लोहिया, रामचन्द्र शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ और गजानन माधव मुक्तिबोध के विचारपरक लेखन से एक ऐसा मुकम्मल संचयन प्रस्तुत कर रहे हैं जो हर लिहाज से संग्रहणीय है।
छायावाद के आधार स्तम्भों में से एक महादेवी कवि और विमर्शकार दोनों ही रूपों में अद्वितीय हैं। अपनी कविताओं में उन्होंने स्त्री जीवन की मार्मिक विडम्बनाओं को स्वर दिया है तो अपनी चर्चित कृति ‘शृंखला की कड़ियाँ’ में उन्होंने उन अवरोधों की सटीक पहचान की जिन्होंने सदियों से स्त्री को पराधीनता के घेरे में रोक रखा है। स्त्री की अस्मिता की खोज करते हुए अपने पूरे परिवेश के प्रति सहज राग उनके समूचे चिन्तन को उल्लेखनीय विशिष्टता प्रदान करता है। करुणा उनके चिन्तन की धुरी है। हमें उम्मीद है कि उनके कला, साहित्य और संस्कृति सम्बन्धी प्रतिनिधि निबन्धों की यह किताब उन पाठकों के लिए बहुत उपयोगी होगी जो भारतीय स्त्री जीवन की विडम्बनाओं को समझते हुए उसकी मुक्ति के देशज स्रोतों की तलाश में हैं।
Bhakti Andolan Aur Bhakti Kavya
- Author Name:
Shivkumar Mishra
- Book Type:

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प्रस्तुत पुस्तक का सम्बन्ध भक्ति-आन्दोलन और भक्ति-काव्य से है, भक्ति-आन्दोलन के मूल में जनता के दुःख-दर्द ही हैं और उन दुःख-दर्दों को बड़ी जीवन्त मानवीयता के साथ उभरने, उनसे एकमेक होकर सामने आने में ही भक्ति-आन्दोलन की शक्ति को देखा जा सकता है। अनुमान कर सकते है कि तीन शताब्दियों से भी अधिक समय तक अपने पूरे वेग के साथ गतिशील होनेवाले इस भक्ति-आन्दोलन में जनता के ये दुःख-दर्द कितनी गहरी संवेदनशीलता के सान्निध्य में उभरे होंगे। भक्तिकाव्य में, उसके रचनाकारों में, अन्तर्विरोध भी हैं, उनकी सीमाएँ भी हैं। पुस्तक में उनकी चर्चा भी की गई है।
हम भक्तिकाव्य जैसा काव्य आज नहीं चाहते, पर जिन मूलवर्ती गुणों के कारण भक्ति कविता कालजयी हुई, वे गुण ज़रूर उससे लेना चाहते हैं, और इन गुणों के नाते ही हम उसे साथ लेकर चलना भी चाहते हैं।
पुस्तक में निबन्धों में पुनरुक्ति भी मिल सकती है। अलग-अलग समय में लिखे गए निबन्ध ही मिल-जुलकर यह किताब बना रहे हैं। इनमें से कबीर, सूर तथा भक्ति-आन्दोलन से जुड़े निबन्ध प्रकाशित भी हो चुके हैं। यहाँ वे कुछ संशोधित परिवर्द्धित रूप में फिर से प्रकाशित हो रहे हैं। मलिक मुहम्मद जायसी, तुलसी, भक्ति-आन्दोलन का पहला निबन्ध अप्रकाशित है। वे यहाँ पहली बार ही प्रकाशित हो रहे हैं। नानकदेव तथा गुरु गोविन्द सिंह पर लिखे निबन्ध भी अप्रकाशित हैं। ये विशेष अवसर के लिए लिखे गए निबन्ध थे, किन्तु किताब के विषय की सीमा में आ सकने के नाते उन्हें भी समेट लिया गया है। भक्ति-आन्दोलन सम्बन्धी निबन्धों में प्रमुखतः के. दामोदरन, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तथा गजानन माधव मुक्तिबोध के विचारों को ही रेखांकित किया गया है।
Sarjnatmak Kavyalochan
- Author Name:
Pandeya Shashibhushan 'Shitanshu'
- Book Type:

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Description:
हिन्दी में सर्जनात्मक काव्यालोचन का प्राय: अभाव रहा है, जिससे आलोचना की सर्जनात्मक मौलिकता अब तक स्थापित-प्रतिष्ठित नहीं हो पाई है। अभाव-रूपी इस अफाट सन्नाटे को भंग करनेवाली डॉ. ‘शीतांशु’ की यह पुस्तक ऐसी पहली सहृदय-संवेद्य, प्रगुणात्मक पुस्तक है, जिसमें लेखक ने 28 हिन्दी कविताओं के काव्यमर्म तथा अन्तर्न्यस्त साभिप्रायता को उद्घाटित-विवेचित किया है।
कविता का विवेचन उसकी सर्जनात्मक सार्थकता का विवेचन होता है। यह सार्थकता भावकीय प्रतिभा से कविता की कलावटी गाँठों को खोलते हुए उसके अर्थ-गह्वर में प्रवेश करने से सम्भव हो पाती है। हिन्दी काव्यालोचन अब तक अपनी लक्ष्मण-रेखा में घिरा रहा है। वह प्रवृत्तिगत, विकासात्मक, सैद्धान्तिक और वादारोपित बहस-मुबाहसे से ग्रस्त-सा है। मार्क्सवादी आलोचना को तो अपनी एकरसता में किसी भी कविता की आन्तर गहराई में उतरने से प्राय: परहेज़ ही रहा है, जिसके कारण कविता का भावन और बोधन केवल सामाजिक यथार्थ की अभिधेयात्मकता तक सीमित-प्रतिबन्धित रह गया है, जबकि उसमें अशेष प्रतीयमान, सर्जनात्मक साभिप्रायता विद्यमान होती है। यहाँ तक कि इसमें मार्क्सवादी सामाजिक यथार्थ की अनेकानेक परतें भी समाविष्ट रहती हैं।
ऐसे में प्रतीयमान आभ्यन्तर को उद्घाटित करनेवाली यह वह प्रतीक्षित आलोचना-कृति है, जो स्थापित करती है कि कविता की सही पहचान-परख उसके तलान्वेषित कथ्यों और अर्थच्छवियों की बहुआयामिता पर निर्भर है।
कहना होगा कि कविताओं की साभिप्राय पुनस्सर्जना के माध्यम से काव्यलोचन के नए क्षितिज का सन्धान और दिशा-निर्देश करनेवाली यह पुस्तक अब तक की निर्धारित लक्ष्मण-रेखा के बाहर जाकर हिन्दी काव्यालोचन को समृद्ध करती है। साथ ही नई आलोचकीय प्रतिभाओं को इस दिशा में सक्रिय होने हेतु आमंत्रित भी करती है। हिन्दी आलोचना में कविता के पाठकों और आलोचकों को संवेदन-समृद्ध करनेवाली एक अत्यन्त उपयोगी एवं पठनीय पुस्तक।
Hindi Sahitya Ka Itihas
- Author Name:
Acharya Ramchandra Shukla
- Book Type:

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1930 का दशक आधुनिक हिन्दी साहित्य के रचनात्मक विकास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। एक ओर कथानक और परम्परागत स्थूल वृत्त प्रेमचन्द के हाथों में दृष्टि-सम्पन्न कथा-कृतियाँ बनते हैं तो दूसरी ओर प्रसाद-निराला-पन्त-महादेवी के यहाँ पिछले इतिवृत्तात्मक काव्य-वर्णन सूक्ष्म अनुभूति-विधान का रूप लेते हैं। इसी के समानान्तर रामचन्द्र शुक्ल कवि-वृत्त संग्रह को इतिहास बनाते हैं।
इतिहास-लेखन में रामचन्द्र शुक्ल एक ऐसी क्रमिक पद्धति का अनुसरण करते हैं जो अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करती चलती है। विवेचन में तर्क का क्रमबद्ध विकास ऐसे है कि तर्क का एक-एक चरण एक-दूसरे से जुड़ा हुआ, एक-दूसरे में से निकलता दिखेगा। इसीलिए पाठक को उस पर चलने में सुगमता होती है, जटिल से जटिल प्रसंग आसानी से हृदयंगम हो जाता है। लेखक को अपने तर्क पर इतना गहरा विश्वास है कि आवेश की उसे अपेक्षा नहीं रह जाती। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक आचार्य शुक्ल का इतिहास इसी प्रकार तथ्याश्रित और तर्कसम्मत रूप में चलता है। वे एक प्रवृत्ति के अन्तर्गत सक्रिय या कि समकालीन लेखकों के मूल्यांकन में दोनों पक्षों के वैशिष्ट्य और उनकी सीमाओं का भी अकुंठ विवेचन करते चलते हैं।
अपनी आरम्भिक उपपत्ति में आचार्य शुक्ल ने बताया है कि साहित्य ‘जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्बित होता है,’ और इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाने में आचार्य शुक्ल का इतिहास और आलोचना-कर्म निहित है।
इस इतिहास की एक बड़ी विशेषता है कि आधुनिक काल के सन्दर्भ में पहुँचकर लेखक यूरोपीय साहित्य का एक विस्तृत, यद्यपि कि सांकेतिक ही, परिदृश्य खड़ा करता है, जैसे कि आदि तथा मध्यकाल के सन्दर्भ में संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश काव्यशास्त्र तथा साहित्य का। इससे उसके ऐतिहासिक विवेचन में स्रोत, सम्पर्क और प्रभावों की समझ स्पष्टतर होती है। यही नहीं, लेखकों के साथ-साथ यूरोपीय संगीतकार और कलावन्तों पर भी नई प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में वह यथावश्यक टिप्पणी करता है।
—रामस्वरूप चतुर्वेदी
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