Aastha Aur Saundarya
Author:
Ramvilas SharmaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 716
₹
895
Available
डॉ. रामविलास शर्मा की यह मूल्यवान आलोचनात्मक कृति भारोपीय साहित्य और समाज में क्रियाशील आस्था और सौन्दर्य की अवधारणाओं का व्यापक विश्लेषण करती है। इस सन्दर्भ में रामविलास जी के इस कथन को रेखांकित किया जाना चाहिए कि अनास्था और सन्देहवाद साहित्य का कोई दार्शनिक मूल्य नहीं है, बल्कि वह यथार्थ जगत की सत्ता और मानव-संस्कृति के दीर्घकालीन अर्जित मूल्यों के अस्वीकार का ही प्रयास है। उनकी स्थापना है कि साहित्य और यथार्थ जगत का सम्बन्ध सदा से अभिन्न है और कलाकार जिस सौन्दर्य की सृष्टि करता है, वह किसी समाज-निरपेक्ष व्यक्ति की कल्पना की उपज न होकर विकासमान सामाजिक जीवन से उसके घनिष्ठ सम्बन्ध का परिणाम है।</p>
<p>रामविलास जी की इस कृति का पहला संस्करण 1961 में हुआ था। इस संस्करण में दो नए निबन्ध शामिल हैं। एक ‘गिरिजाकुमार माथुर की काव्ययात्रा के पुनर्मूल्यांकन’ और दूसरा ‘फ़्रांस की राज्यक्रान्ति तथा मानवजाति के सांस्कृतिक विकास की समस्या’ को लेकर। इस विस्तृत निबन्ध में लेखक ने दो महत्त्वपूर्ण सवालों पर ख़ास तौर से विचार किया है कि क्या मानवजाति के सांस्कृतिक विकास के लिए क्रान्ति आवश्यक है और फ़्रांस ही नहीं, रूस की समाजवादी क्रान्ति भी क्या इसके लिए ज़रूरी थी? कहना न होगा कि समाजवादी देशों की वर्तमान उथल-पुथल के सन्दर्भ में इन सवालों का आज एक विशिष्ट महत्त्व है।</p>
<p>संक्षेप में, यह एक ऐसी विवेचनात्मक कृति है जो किसी भी सौन्दर्य-सृष्टि की समाज-निरपेक्षता का खंडन करते हुए उसके सामाजिक-सांस्कृतिक सम्बन्धों और आस्थावादी मूल्यों का तलस्पर्शी उद्घाटन करती है।
ISBN: 9788126703654
Pages: 257
Avg Reading Time: 9 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
Recommended For You
Marxvadi, Samajshastriya Aur Aitihasik Alochna
- Author Name:
Pandeya Shashibhushan 'Shitanshu'
- Book Type:

-
Description:
साहित्य की आलोचना केवल अन्तर्लक्ष्यी (Intrinsic) अथवा पाठ-केन्द्रित (Text Centered) आलोचना नहीं होती, अपितु वैसी बहिर्लक्ष्यी (Extrinsic) आलोचना भी होती है, जो पाठ से बाहर-पाठ के सम्यक् अवबोध के लिए रचनाकार के जीवनवृत्त, उसके जीवन-दृष्टिकोण, उसके युग, उसके सामाजिक यथार्थ, उसकी परम्परा, उसकी संस्कृति आदि को सामाजिक सन्दर्भों में रखकर देखती-परखती और साहित्य का मूल्यांकन करती है। ऐसी आलोचना शब्दों के जोड़-मात्र से बनी वैसी हर रचना को, जिसके पीछे ठोस वास्तविकता नहीं होती, वायवीय मानती है—‘शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्प:’ (योगसूत्र)।
हिन्दी में अब तक इसके सिद्धान्त पर तात्त्विक विवेचन और सार्थक बहस प्रस्तुत करनेवाली एक भी पुस्तक नहीं है। ऐसे में पाश्चात्य साहित्य-सिद्धान्त के प्रति डॉ. शीतांशु के वर्षों के गहरे लगाव, सम्यक् अध्ययन और अनवरत चिन्तन से परिणामित उनकी यह पुस्तक हिन्दी में पहली बार बहिर्लक्ष्यी आलोचना-सिद्धान्तों का तथ्यपूर्ण, प्रामाणिक उप-स्थापन करती क्रमश: मार्क्सवादी, समाजशास्त्रीय, साहित्येतिहास बनाम ऐतिहासिक और ऐतिहासिक आलोचना की स्वरूपगत मान्यताओं का समीचीन विवेचन प्रस्तुत करती है। पूर्वग्रहहीन सैद्धान्तिक निरूपण के साथ-साथ प्रतिमानों और निदर्शनों की बोध-व्याख्या इस पुस्तक की विशेषता है, जिससे बहुमुख अनुप्रयोग की दिशा भी सहज ही उजागर हो उठी है।
प्रस्तुत पुस्तक यदि एक ओर मार्क्सवादी आलोचनात्मक चिन्तन को रूढ़िवादी विवेचन-सीमा से आगे लाकर उसके उत्तरपक्षीय सैद्धान्तिक स्वरूप तक को निरूपित-व्यवस्थित करती है, तो दूसरी ओर समाज में साहित्य की स्थितिगत पहचानवाली चकाचौंध से निकलकर समाजशास्त्रीय आलोचना के बतौर साहित्य मे निरूपित समाज की पहचान-प्रक्रिया की भी गम्भीर विवेचना करती है; यदि एक ओर साहित्येतिहास बनाम ऐतिहासिक आलोचना की प्रकृति, सैद्धान्तिकी और प्रकार्य-प्रक्रिया को आलोचित-प्रत्यालोचित करती है, तो दूसरी ओर उस ऐतिहासिक आलोचना को भी सावयव और सप्रमाण उपस्थापित करती है, जिसे कभी हिन्दी के एक वरिष्ठ आलोचक ने फतवा देते हुए आलोचना के क्षेत्र से ही ख़ारिज कर दिया था। तथ्यत: ‘बहिर्लक्ष्यी आलोचना-सिद्धान्तों को जानने, पहचानने और मापने; साथ ही साहित्य को समझने और समझाने की दृष्टि से डॉ. शीतांशु की यह पुस्तक एक अनिवार्य पठनीय पुस्तक है, जिससे हिन्दी के एक बड़े अभाव की महत्त्वपूर्ण पूर्ति हो जाती है।
Aadhunik Kavi
- Author Name:
Vishvambhar 'Manav'
- Book Type:

-
Description:
बीसवीं शताब्दी में खड़ी बोली का काव्य इतना समृद्ध हो गया है कि उसे संसार के किसी भी सभ्य देश के काव्य की तुलना में रखा जा सकता है। इस युग में विभिन्न साहित्यिक वादों और आन्दोलनों का प्रचार हुआ, इस युग ने हमें प्रथम श्रेणी के अनेक महाकाव्य और खंड-काव्य दिए और इसी युग में एक ओर गीति-काव्य और दूसरी ओर मुक्त छंद का ऐसा प्रसार हुआ, जिसकी समता अतीत के सम्पूर्ण इतिहास में नहीं मिलती। अत: समय की माँग है कि आधुनिक काव्य के भावगत एवं कलागत सौन्दर्य का लेखा-जोखा अब लिया जाए।
औद्योगीकरण एवं उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव केवल निम्न वर्ग पर ही नहीं, बल्कि उसकी गिरफ़्त में सम्पूर्ण मानवीय समाज है। धर्म की अमानवीय व्याख्या स्वार्थपरकता, अर्थलोलुपता, विज्ञान के द्वारा विकसित विनाश के विभिन्न साधन आदि के कारण सम्पूर्ण मनुष्यता के लिए ही संकट पैदा हुआ। मनुष्य का बचना बहुत प्राथमिक है। अभी भी मनुष्य जीवन और मृत्यु के अनेक प्रश्नों से टकरा रहा है। परिवर्तन की गति इतनी तेज है कि यह आशंका होने लगती है कि मनुष्य की पहचान करानेवाले लक्षण ही न लुप्त हो जाएँ। अशोक वाजपेयी ऐसे रचनाकार हैं जो मनुष्यता के व्यापक प्रश्नों से टकराते हैं और नई परिस्थितियों में मानवीय सभ्यता को रचना के माध्यम से स्थापित करते हैं।
नयी कविता से जुड़े अनेक कवियों ने अपनी निजी अनुभूति और शिल्प के द्वारा रचनात्मक ऊँचाई हासिल की, उनकी रचनाधर्मिता को काव्यधारा के दायरे में पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता है, बल्कि उनका अलग-अलग विवेचन अपेक्षित है।
इस ग्रन्थ में भारतेन्दु से लेकर अरुण कमल तक ऐसे चौवालीस प्रतिनिधि कवियों के काव्य का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है जिनका साहित्य के इतिहास में विशेष महत्व है और जिन्होंने अपनी साधना से अपने व्यक्तित्व की छाप इस युग पर किसी न किसी रूप में छोड़ी है।
Achhi Hindi
- Author Name:
Ramchandra Verma
- Book Type:

- Description: आज-कल देश में हिन्दी का जितना अधिक मान है और उसके प्रति जन-साधारण का जितना अधिक अनुराग है, उसे देखते हुए हम कह सकते हैं कि हमारी भाषा सचमुच राष्ट्र-भाषा के पद पर आसीन होती जा रही है। लोग गला फाड़कर चिल्लाते हैं कि राज-काज में, रेडियो में, देशी रियासतों में सब जगह हिन्दी का प्रचार करना चाहिए, पर वे कभी आँख उठाकर यह नहीं देखते कि हम स्वयं कैसी हिन्दी लिखते हैं। मैं ऐसे लोगों को बतलाना चाहता हूँ कि, हमारी भाषा में उच्छृंखलता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। किसी को हमारी भाषा का कलेवर विकृत करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। देह के अनेक ऐसे प्रान्तों में हिन्दी का ज़ोरों से प्रचार हो रहा है, जहाँ की मात्र-भाषा हिन्दी नहीं है। अतः हिन्दी का स्वरूप निश्चित और स्थिर करने का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व उत्तर भारत के हिन्दी लेखकों पर ही है। उन्हें यह सोचना चाहिए कि हमारी लिखी हुई भद्दी, अशुद्ध और बे-मुहावरे भाषा का अन्य प्रान्तवालों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, और भाषा के क्षेत्र में हमारा यह पतन उन लोगों को कहाँ ले जाकर पटकेगा। इसी बात का ध्यान रखते हुए पूज्य अम्बिका प्रसाद जी वाजपेयी ने कुछ दिन पहले हिन्दी के एक प्रसिद्ध लेखक और प्रचारक से कहा था, "आप अन्य प्रान्तों के निवासियों को हिन्दी पढ़ा रहे हैं और उन्हें अपना व्याकरण भी दे रहे हैं, पर जल्दी ही वह समय आएगा, जबकि वही लोग आपके ही व्यकारण से आपकी भूल दिखाएँगे!" यह मानो भाषा की अशुद्धियों वाले व्यापक तत्त्व की और गूढ़ संकेत था। जब हमारी समझ में यह तत्त्व अच्छी तरह आ जाएगा, तब हम भाषा लिखने में बहुत सचेत होने लगेंगे। और मैं समझता हूँ कि हमारी भाषा की वास्तविक उन्नति का आरम्भ भी उसी दिन से होगा। भाषा वह साधन है, जिससे हम अपने मन के भाव दूसरों पर प्रकट करते हैं। वस्तुतः यह मन के भाव प्रकट करने का ढंग या प्रकार मात्र है। अपने परम प्रचलित और सीमित अर्थ में भाषा के अन्तर्गत वे सार्थक शब्द भी आते हैं, जो हम बोलते हैं और उन शब्दों के वे क्रम भी आते हैं, जो हम लगाते हैं। हमारे मन में समय-समय पर विचार, भाव, इच्छाएँ, अनुभूतियाँ आदि उत्पन्न होती हैं, वही हम अपनी भाषा के द्वारा, चाहे बोलकर, चाहे लिखकर, चाहे किसी संकेत से दूसरों पर प्रकट करते हैं, कभी-कभी हम अपने मुख की कुछ विशेष प्रकार की आकृति बनाकर या भावभंगी आदि से भी अपने विचार और भाव एक सीमा तक प्रकट करते हैं, पर भाव प्रकट करने के ये सब प्रकार हमारे विचार प्रकट करने में उतने अधिक सहायक नहीं होते, जितनी बोली जानेवाली भाषा होती है। यह ठीक है कि कुछ चरम अवस्थाओं में मन का कोई विशेष भाव किसी अवसर पर मूक रहकर या फिर कुछ विशिष्ट मुद्राओं से प्रकट किया जाता है और इसीलिए 'मूक अभिनय' भी 'अभिनय' का एक उत्कृष्ट प्रकार माना जाता है। पर साधारणतः मन के भाव प्रकट करने का सबसे अच्छा, सुगम और सब लोगों के लिए सुलभ उपाय भाषा ही है।
Bhasha Aur Sameeksha Ke Bindu
- Author Name:
Satyadev Mishra
- Book Type:

-
Description:
आधुनिक हिन्दी-समीक्षा के स्वरूप-विकास में पौर्वात्य से कहीं अधिक पाश्चात्य समीक्षा-दर्शन का अनुप्रभाव परिलक्षित हो रहा है। आज विश्वविद्यालयों और प्रतियोगी-परीक्षाओं में जिन समीक्षा-सिद्धान्तों, आलोचनात्मक प्रत्ययों, समीक्षा-आन्दोलनों की चर्चा का विषय बनाया जा रहा है, प्रश्नांकनों की कसौटी पर कसा जा रहा है, उनमें से अधिकांश पाश्चात्य भाषा-विमर्श, साहित्य-कला-दर्शन और अन्य साहित्येतर अनुशासनों से अनुस्यूत हैं। इन नवोन्मेषी सिद्धान्तों, वादों और समीक्षात्मक संकल्पनाओं, साहित्येतर अवधारणाओं का प्रामाणिक विमर्श इस ग्रन्थ में है।
प्रस्तुत कृति संगोष्ठियों में विमर्श के अधुनातन सन्दर्भों से सम्पृक्त है। विश्वास है कि शिक्षकों-शिक्षार्थियों, प्रतियोगियों और जिज्ञासुओं के लिए यह उपादेय सिद्ध होगी।
Hindi Lalit Nibandh : Swarup Vivechan
- Author Name:
Vedvati Rathi
- Book Type:

-
Description:
प्रस्तुत पुस्तक डॉ. वेदवती राठी के दस वर्षों के अध्यवसाय के फलस्वरूप लिखी गई है। अत: अब तक हिन्दी ललित निबन्ध के विषय में जो धारणाएँ व्यक्त की गई हैं, उनका समावेश तो प्रस्तुत पुस्तक में है ही, विविध प्रश्नों पर मौलिक चिन्तन करके अपना अभिमत देकर विदुषी लेखिका ने भरपूर चेष्टा की है कि ललित निबन्ध के विविध पक्षों पर गहन विश्लेषणाधृत विचार एक पुस्तक में मिल सकें। स्वाभाविक है कि यह पुस्तक हिन्दी ललित निबन्ध विषय पर मील का पत्थर सिद्ध होगी।
प्रस्तुत पुस्तक में अब तक उपलब्ध ज्ञान के विविध पक्षों से सम्बद्ध विषयों पर लेखिका के बेबाक विचार संकलित हैं। इसके निष्कर्ष प्रामाणिक एवं पर्याप्त सूझ-बूझ पर आधारित हैं। विचारों की स्पष्टता एवं भाषाभिव्यंजना की परिपक्वता देखते ही बनती है। लेखिका द्वारा इस पुस्तक के तैयार करने में जो गहन अध्यवसाय एवं असाधारण श्रम किया गया है, इसका अनुमान इस कृति को पढ़कर ही लगाया जा सकता है।
कुल मिलाकर हिन्दी ललित निबन्धों के स्वरूप के विविध पक्षों पर स्पष्ट विचार इस पुस्तक को विशिष्ट बनाते हैं।
—डॉ. श्रीराम शर्मा
Chintan Ke Aayam
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

-
Description:
‘चिन्तन के आयाम’ में युगदृष्टा रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के चिन्तनपूर्ण, लोकोपयोगी बाईस निबन्धों को संगृहीत किया गया है। ये निबन्ध जहाँ एक तरफ़ दिनकर के चिन्तक–स्वरूप का साक्षात्कार करवाते हैं, वहीं पाठक के ज्ञान–क्षितिज का विस्तार भी करते हैं।
दिनकर के ये निबन्ध—‘आदर्श मानव राम’, ‘लौकिकता और हिन्दू–धर्म’, ‘भगवान बुद्ध’, ‘बौद्धधर्म की विश्व–व्यापकता’, ‘शान्ति की समस्या’, ‘धर्म और विज्ञान’, ‘मिली–जुली संस्कृति’, ‘गांधी से मार्क्स की परिष्कृति’, ‘स्वतंत्रता के बाद’, ‘लोकतंत्र : कुछ विचार’, ‘नेता नहीं, नागरिक चाहिए’, ‘शीर्षकमुक्त चिन्तन’, ‘इल्म की इन्तिहा है बेताबी’, ‘शिक्षा के पाँच लक्षण’, ‘शिक्षा : तब और अब’, ‘आधुनिकता का वरण’, ‘आधुनिकीकरण’, ‘काम–चिन्तन की कणिकाएँ’, ‘पुरानी और नई नैतिकता’, ‘प्रेम एक है या दो?’, ‘विवाह की मुसीबतें’, ‘मूल्य–ह्रास के पच्चीस वर्ष’—मानवता, हमारी संस्कृति, विवाह, प्रेम, काम, नैतिकता, शिक्षा, आधुनिकता, गांधी, मार्क्स और शिक्षा जैसे विषयों पर उनके गम्भीर–चिन्तन को उद्घाटित करते हैं, वहीं लोकतंत्र, धर्म और विज्ञान तथा मूल्य–ह्रास जैसे ज्वलन्त प्रश्नों द्वारा हमारा मार्गदर्शन भी करते हैं।
नए रूप में प्रस्तुत इस पुस्तक में निबन्धों को क्रमवार सँजोया गया है, जिससे इनकी लयबद्धता एकरूप समान ढंग से चलती जाती है। गम्भीर चिन्तन के नए आयामों के साथ–साथ पुस्तक में सम्मिलित ये निबन्ध दिनकर के व्यक्तित्व को भी समझने में सहायक सिद्ध होते हैं।
Mannu Bhandari Aur Aapka Banti
- Author Name:
Malvika
- Book Type:

-
Description:
‘आपका बंटी’ पितृसत्तात्मक समाज में अपने अस्तित्व व मातृत्व के नाजुक द्वन्द्व के बीच भूलनेवाली उस स्त्री की कहानी है, जो इन दोनों को बचा ले जाने की कोशिश में कई मोर्चों पर एक साथ लड़ती है। साथ ही, उस बच्चे की भी कहानी है जो निर्दोष होते हुए भी कोशिश के इस तराजू पर लगातार तुलता रहता है। कभी ज़्यादा तो कभी कम।
पितृत्व प्रश्न पर सदैव मौन रहनेवाला यह समाज शकुन के मातृत्व पर उँगली उठाता है। जो पिता पूरे परिदृश्य से ग़ायब है। कहानी दरअसल उसी की सन्दिग्ध भूमिका को शकुन व बंटी के माध्यम से बेपर्दा करने की कोशिश करती है। दायित्वों के निर्वहन में मिलनेवाली सामाजिक छूट का फ़ायदा सिर्फ़ पुरुष को ही क्यों? यह कहानी दरअसल सामाजिक संरचना में स्त्री-पुरुष की समान भागीदारी और उसे बनाए रखने में दोनों के प्रति एक समान सामाजिक व न्यायिक नज़रिया रखने की माँग करती है।
पुस्तक में मन्नू जी द्वारा उठाए गए इस संवेदनशील मुद्दे को आज के सामाजिक परिप्रेक्ष्य के मद्देनज़र आप तक पहुँचाने की कोशिश की गई है, क्योंकि बंटी सिर्फ़ उनका या हमारा ही नहीं, आपका भी है।
Prabandh Pratima
- Author Name:
Suryakant Tripathi 'Nirala'
- Book Type:

-
Description:
निराला कवि होने के साथ-साथ विचारक भी थे, अपने देश-काल के प्रति सजग विचारक। यही कारण है कि उनका रचना-कर्म केवल कविता तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उन्होंने कहानी, उपन्यास, आलोचना, निबन्ध आदि भी लिखे और इन विधाओं में भी अपना विशिष्ट स्थान बनाया।
‘प्रबंध प्रतिमा’ निराला जी के लेखों का दूसरा संकलन है। इसमें अधिकांश विचार-प्रधान लेख हैं, कुछ संस्मरणात्मक भी हैं, जैसे : ‘गांधी जी से बातचीत’, ‘नेहरू जी से दो बातें’, ‘प्रान्तीय साहित्य सम्मेलन’। विचार-प्रधान लेखों में पाँच लेख सामाजिक समस्याओं पर हैं तथा ‘महर्षि दयानन्द सरस्वती और युगान्तर’ एवं ‘साहित्यिक सन्निपात या वर्तमान धर्म’ शीर्षक लेखों में निराला के धर्मविषयक चिन्तन को अभिव्यक्ति मिली है। बाक़ी सब लेख साहित्यिक विषयों पर हैं, लेकिन यहाँ भी उन्होंने एक तरफ़ विद्यापति और चंडीदास सरीखे प्राचीन कवियों पर विचार किया है, तो दूसरी तरफ़ अपने समकालीन साहित्यकारों तथा प्रवृत्तियों पर टिप्पणियाँ की हैं। ‘प्रबंध प्रतिमा’ साहित्यिक, सामाजिक एवं राजनीतिक विषयों पर निराला के विचारोत्तेजक लेखों का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है।
Hindi Kahani Ka Itihas : Vol. 2 (1951-1975)
- Author Name:
Gopal Ray
- Book Type:

-
Description:
यह किताब हिन्दी कहानी का इतिहास का दूसरा खंड है। पहले खंड में 1900-1950 अवधि की हिन्दी कहानी का इतिहास प्रस्तुत किया गया था। इस खंड में 1951-75 का इतिहास पेश किया जा रहा है। पहले इरादा था कि दूसरे खंड में 1951-2000 की हिन्दी कहानी का इतिहास लिखा जाए। पर सामग्री की अधिकता के कारण यह इरादा बदलना पड़ा। यह भी महसूस हुआ कि 1975 का वर्ष हिन्दी कहानी में एक पड़ाव की तरह है। मोटामोटी रूप से इस वर्ष के आसपास अनेक पुराने और नए लेखकों का कहानी-लेखन या तो समाप्त हो गया या उसकी चमक समाप्त हो गई। जो हो, दूसरे खंड की अन्तिम सीमा के लिए एक बहाना तो मिल ही गया! कहने की जरूरत नहीं कि तीसरे खंड में 1976-2000 की कहानी का इतिहास प्रस्तुत करना अभिप्रेत है।
इस पुस्तक में उर्दू-हिन्दी और मैथिली-भोजपुरी-राजस्थानी के लगभग 300 कहानी लेखकों और 5000 से अधिक कहानियों का कमोबेश विस्तार के साथ विवेचन या उल्लेख किया गया है। कहानीकारों और किसी भी कारण चर्चित, उल्लेखनीय और श्रेष्ठ कहानियों की अक्षरानुक्रम सूची अनुक्रमणिका में दे दी गई है। हमारा यह दावा निराधार नहीं है कि इसके पहले किसी इतिहास-ग्रन्थ में इतनी संख्या में कहानीकारों और कहानियों का उल्लेख उपलब्ध नहीं है।
–भूमिका से
Samkaleen Hindi Sahitya : Vividh Paridrishya
- Author Name:
Ramswaroop Chaturvedi
- Book Type:

-
Description:
समकालीन हिन्दी साहित्य का आलोचना से सबसे निकट का सम्बन्ध है। वह आलोचना को जितना अभिप्रेरित करता है, उतना ही उसका उपजीव्य होता है। समध्कालीन भूमि पर अपना परीक्षण करके तब आलोचना परम्परा की ओर दृष्टि डालती है, और उससे अपना सम्बन्ध तलाश करती है। सिर्फ़ प्राचीन-मध्यकालीन साहित्य पर लिखकर पंडित हुआ जा सकता है, आलोचक नहीं। आलोचक एक तरह से, एलियट के अर्थ में, समूचे साहित्य का सहवर्तित्व प्रमाणित करता है। इसके लिए अपने समकालीन साहित्य से उसकी अन्तरक्रिया और कृतकृत्यता बुनियादी महत्त्व की होती है।
बीसवीं अर्द्धशताब्दी के आसपास हिन्दी में नई कविता और नवलेखन का जो उत्थान हुआ, उसकी पहली व्यवस्थित आरम्भिक समीक्षा थी ‘हिन्दी नव-लेखन’ जो 1960 में प्रकाशित हुई। स्वतंत्र देश की पहली रचनात्मक अभिव्यक्ति का किसी क़दर सहानुभूतिपूर्ण और परिचयात्मक अध्ययन यहाँ पहली बार हुआ था। फिर अज्ञेय, उनके समवर्ती तथा अज्ञेयोत्तर कृतित्व की वैसे ही नए सन्दर्भों में व्याख्या आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी के कृतित्व का एक मुख्य अंग बन गई। प्रस्तुत कृति में ‘हिन्दी नवलेखन’ से आरम्भ करके आलोचक की दृष्टि समकालीन साहित्य के प्रति कैसे परिष्कृत होती गई, इसका बड़ा सटीक अध्ययन है। फिर यह दृष्टि कैसे समूची साहित्य-परम्परा को देखती है, वह समूचा परिदृश्य सामने आता है। इस अर्थ में आधुनिक आलोचना की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है—‘समकालीन हिन्दी साहित्य : विविध परिदृश्य’।
Bharatiya Kavyashastra
- Author Name:
Mahendra Madhukar
- Book Type:

-
Description:
भारतीय काव्यशास्त्र की पृष्ठभूमि में संस्कृत काव्य की अनेक विशेषताओं का योगदान रहा है।... भारतीय काव्यशास्त्र के मूल प्रेरक बिन्दुओं में संस्कृत साहित्य की प्रधानता रही है। प्रायः 12 सौ वर्षों से कुछ अधिक समय तक संस्कृत साहित्य की अबाध धारा प्रवाहित होती रही है।... कई विचारक संस्कृत साहित्य की एकरूपता को उसकी सीमा बताते हैं, लेकिन ध्यानपूर्वक देखने से यह तर्क निरस्त हो जाता है।... कहने के लिए संस्कृत के महाकाव्य का विषय प्रचलित परम्परा का अनुगमन करता है, पर उनमें भी भाषा की मौलिकता, सौन्दर्यशास्त्रीय तत्त्वों जैसे बिम्बों, प्रतीकों, मिथकों और कल्पनाओं का अपूर्व विन्यास देखते ही बनता है।
संस्कृत साहित्य की एक अन्य मुख्य विशेषता है उसकी आशावादी दृष्टि, जो आत्मा की अमरता और पूर्वजन्म के सिद्धान्त से प्रेरित है।... इसी बिन्दु पर भारतीय काव्यशास्त्र और पाश्चात्य काव्यशास्त्र में एक मौलिक अन्तर मिलता है। यहाँ मुख्यतः कॉमेडी प्रधान रचनाओं का सृजन हुआ है तो पाश्चात्य देशों में त्रासदी या ‘ट्रेजेडी’ का—यह मौलिक अन्तर भारतीय काव्य और काव्य के आनन्दवादी लक्ष्य तक हमें पहुँचाने में सहायक सिद्ध होता है।
संस्कृत आलोचना-शास्त्र की एक अन्य विशेषता है कि वह मुख्यतः सिद्धान्तवादी है। उसका ध्यान इस बात पर है कि काव्य कैसा होना चाहिए, उसकी विशेषताएँ क्या हों, पर किसी काव्य की व्यावहारिक आलोचना का वहाँ प्रायः अभाव दीखता है। आचार्यों ने काव्य की आत्मा की खोज पर ध्यान दिया है। कविता क्या है, इसकी पड़ताल की है, पर कोई अमुक कविता कैसी है—इस पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं समझी गई है।
‘भारतीय काव्यशास्त्र’ में काव्यशास्त्र विषयक चिन्तन, भारतीय काव्यशास्त्र के बीज-भाव का संकेत और परम्परा का प्रामाणिक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है जिसमें प्राचीनता, विवेचन-प्रभाव की दृष्टि से संस्कृत काव्यशास्त्र को भारतीय काव्यशास्त्र के प्रतिनिधि के रूप में लिया गया है।
Ardhanareeshwar
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

- Description: इस पुस्तक के निबन्ध अपने समय के दस्तावेज हैं जिनको पढ़ते दिनकर के वैचारिक-स्रोतों और सन्दर्भों से हम अवगत हो सकते हैं; और जान सकते हैं कि एक युगद्रष्टा साहित्यकार अपने जीवन में अपनी कलम के साथ किस द्वन्द्व-अन्तर्द्वन्द्व के साथ जीता रहा। ‘अर्धनारीश्वर’ दिनकर का वह निबन्ध-संग्रह हैं जिसमें समाज, साहित्य, राजनीति, स्वतंत्रता, राष्ट्रीयता, अन्तरराष्ट्रीयता, धर्म, विज्ञान के साथ-साथ लेखकों, चिन्तकों, मनीषियों, राजनेताओं के कृतित्व और व्यक्तित्व से जुड़े अनेक पहलुओं का व्यापक परिप्रेक्ष्य में गम्भीरता से आकलन किया गया है और तर्क-सम्मत निष्कर्ष निकाले गए हैं। इस संग्रह का नाम ‘अर्धनारीश्वर’ क्यों रखा गया, इसके बारे में स्वयं लेखक का कहना है कि, '“इसमें ऐसे भी निबन्ध हैं जो मन-बहलाव में लिखे जाने के कारण कविता की चौहद्दी के पास पड़ते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जिनमें बौद्धिक चिन्तन या विश्लेषण प्रधान है। इसीलिए मैंने इस संग्रह का नाम ‘अर्धनारीश्वर’ रखा है, यद्यपि इसमें अनुपातत: नरत्व अधिक और नारीत्व कम है।” अतएव स्पष्ट है कि राष्ट्रकवि दिनकर की कविताएँ जिन्हें पसन्द हैं, उन्हें ये निबन्ध भी उनकी सोच-संवेदना के बेहद करीब लगेंगे।
Harishankar Parsai : Desh Ke Is Daur Mein
- Author Name:
Vishwanath Tripathi
- Book Type:

-
Description:
देश के इस दौर में हरिशंकर परसाई के व्यंग्य-निबन्धों की विवेचना है। यह वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपनी गहरी अन्तर्दृष्टि के साथ विवेचना की है। परसाई पर केन्द्रित पुस्तकों में इस पुस्तक का अपना अलग स्थान है। बकौल ज्ञानरंजन ‘यह अभी तक की एक अनुपम और अद्वितीय पुस्तक है जिसमें परसाई के रचना-संसार को समझने और उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है।’
त्रिपाठी जी का मानना है कि ‘परसाई का रचनाकार एक इतिहास-पुरुष है जो अपने समय का सबकुछ देख रहा है, अपने युग का चित्र बना रहा है। विवेक के साथ।’ वे कहते हैं कि ‘परसाई का व्यंग्य असहज-असुन्दर का उद्घाटन करके सहज-सुन्दर को गढ़ने का प्रयास करता है।’
लगभग चालीस वर्षों में फैली परसाई की रचनात्मकता को इस पुस्तक में विश्वनाथ त्रिपाठी ने जितने आत्मीय ढंग से जान-समझकर हम तक पहुँचाया है, उससे परसाई हमें एक नए सिरे से समझ आते हैं। वर्तमान की उनकी समझ, अपने पात्रों को लेकर उनकी संवेदना की व्यापकता, मनोविकारों का चित्रण, उनके व्यंग्य-निबन्धों के विषयों का असीम संसार, मानवीय करुणा, चरित्र-चित्रण और उनके सौन्दर्यबोध को उद्धरणों के साथ जिस तरह यहाँ विश्लेषित किया गया है, वह अपूर्व है।
यह इस पुस्तक का परिवर्द्धित संस्करण है जिसमें परसाई के जीवन-वृत्त के साथ भूमिका के रूप में उनके व्यंग्य पर केन्द्रित एक लम्बा आलेख भी शामिल किया गया है।
Kavi Nirala
- Author Name:
Nandulare Vajpeyi
- Book Type:

- Description: ‘कवि निराला’ पुस्तक हिन्दी आलोचना में आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी भी एक बहुमूल्य देन हैं। आचार्य वाजपेयी ने निराला को ‘शताब्दी का कवि’ और उनके काव्य को ‘शताब्दी काव्य’ कहा था। उन्होंने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से निराला के उस महाकवि को खोज लिया था जो गत, आगत और अनागत सभी को एकाकार कर लेता है। टी.एस. इलियट ने भी महान कवि के परिचय में यही कहा था कि महान कवि वह होता है जो आत्मसात् कर, वर्तमान सन्दर्भों में जीता हुआ भावी की पदचाप भी सुन लेता है। आधुनिक हिन्दी कविता का उद्गम भारतेन्दु-द्विवेदी युग से प्रारम्भ होकर छायावाद युग में पहुँचकर नई करवट लेता है और इस युग की कवि चतुष्टयी प्रसाद, निराला, पन्त और महादेवी के चार स्तम्भों पर उस काव्य को गढ़ता है जिसको सांस्कृतिक प्रौढ़ता आगामी कवियों के लिए न केवल आधार बनती है बल्कि उनके अनुकरण और विकास में स्वयं को धन्य मानती है।
Path Sampadan Ke Siddhant
- Author Name:
Kanhaiya Singh
- Book Type:

- Description: प्राचीन कवियों के पाठों का जैसा वैज्ञानिक सम्पादन चाहिए, वैसा हिन्दी में कम हुआ है। जायसी और तुलसी के पाठ-सम्पादन के महत्त्वपूर्ण कार्य हुए हैं। अन्य कवियों के पाठों के अभी इतने सन्तोषजनक परिणाम नहीं मिले हैं। भाषा विषयक शोध, ऐतिहासिक शोध तथा रचनाकार की साहित्यिक सैद्धान्तिक समालोचना के लिए सर्वप्रथम उसकी रचना का मूलपाठ स्थिर होना आवश्यक होता है। इस पुस्तक में पाठ-सम्पादन के सिद्धान्त और अन्य सहायक विषयों की चर्चा की गई है।
Kis Prakar Ki Hai Yah Bhartiyata ?
- Author Name:
U.R. Ananthamurthy
- Book Type:

-
Description:
भारतीय मूल्यों के प्रति अगाध निष्ठा और अपने व्यक्ति के स्तर पर विकट आत्मालोचन यू.आर. अनन्तमूर्ति के लेखक के विशिष्ट गुण हैं। ‘संस्कार’, ‘अवस्था’ और ‘भारतीपुर’ जैसे उपन्यासों में जिस प्रकार उन्होंने आधुनिक युग की चुनौतियों को कथा के भावालोक में समझा है, वैसी ही गहनता के साथ इस पुस्तक में संकलित निबन्धों में उन्होंने उन पर विचार किया है। ‘मैं अपने भीतर का आलोचक हूँ’, वे कहते हैं। परम्पराओं पर प्रश्न करते हैं और विकास की प्रश्नाकुल द्वन्द्वात्मकता में विश्वास रखते हैं।
‘किस प्रकार की है यह भारतीयता’ कुछ चुने हुए भाषणों, लेखों और साक्षात्कारों का संकलन है। दलित साहित्य, विकेन्द्रीकरण और संस्कृतिपरक कई आलोचनात्मक लेख इस पुस्तक में संकलित हैं। इन लेखों में लेखक क्षेत्रीय पवित्रता क़ायम रखने के लिए प्रतिबद्ध है। उनका मानना है कि उपनिवेशविरोध की राजनीति से उपजी हुई अपनी संस्कृति की रक्षा अपनी भाषा में ही सृजन करने से सम्भव है। अनन्तमूर्ति ने अभिव्यक्ति के प्रगटीकरण के लिए अपनी मातृभाषा कन्नड़ का ही इस्तेमाल किया है। ज्ञान का आगार होने के नाते वह अंग्रेज़ी का समर्थन करते हैं, लेकिन उसके आक्रमणकारी तेवर का विरोध भी करते हैं।
Ramcharitmanas (Sahityik Mulyankan)
- Author Name:
Sudhakar Pandey
- Book Type:

-
Description:
जनसाधारण से लेकर उद्भट विद्वानों तक में अगर समान भाव से कोई ग्रन्थ प्रतिष्ठित है तो वह है तुलसी का ‘रामचरितमानस’। अपनी काव्यगत श्रेष्ठता, मूल्यबोध की समग्रता और प्रभावशीलता तथा मानव की चिरन्तन गुत्थियों, पीड़ाओं व ख़ुशियों के जीवन्त चित्रण के कारण यह महाकाव्य हर पीढ़ी को एक नए ढंग से अपनी ओर खींचता है। हर युग उसमें अपने हर्ष-विषाद का कोई-न-कोई चित्र पा लेता है। और बार-बार नई-नई व्याख्याओं-टीकाओं के सहारे इसे समझने की कोशिश की जाती है।
लेकिन अपने दायरे में उन सब प्रयासों की अपनी एक सीमा रही है। इस पुस्तक में एकांगिता से बचने और ‘मानस’ की यथासम्भव सम्पूर्ण व्याख्या तक पहुँचने की कोशिश की गई है। सम्पादक का भरसक प्रयास रहा है कि जहाँ तक हो सके, अच्छे-से-अच्छे निबन्धों का चुनाव हो ताकि ‘मानस’ के छात्रों-शोधार्थियों के अलावा सुरुचिवान् सामान्य पाठक भी इससे लाभान्वित हों। कोशिश यह भी रही है कि ‘मानस’ के शिल्प, विषय-वस्तु, चरित्र-योजना, उसके काव्यगत वैशिष्ट्य, रस-व्यंजना, उसमें निहित तत्कालीन सांस्कृतिक, सामाजिक मूल्यों समेत उन सभी पक्षों से सम्बद्ध निबन्ध शामिल हों, जिन पर ‘मानस’ के सम्बन्ध में किसी की भी नज़र जा सकती है।
‘मानस’ के जीवन-मूल्यों के मनोवैज्ञानिक पहलू और तुलसी व वाल्मीकि का तुलनात्मक विवेचन जैसे कुछ अप्रचलित और कतिपय नवीन निबन्धों को भी इसमें सम्मिलित किया गया है।
Hindi Upanyas Aur Astitvavad
- Author Name:
Veenu Bhalla
- Book Type:

-
Description:
अस्तित्ववादी चिंतकों ने बताया कि हमारे प्रत्येक सत्य और प्रत्येक कर्म में मानवीय संदर्भ और मानवीय आत्मपरकता निहित होती है तथा राज्यसत्ता, नौकरशाही, राजनीतिक दल—सभी निर्वैयक्तिक शक्तियाँ इस मानवीय आत्मपरकता को प्रतिबंधित करती रहती हैं।
अस्तित्ववाद ने इस बात पर बल दिया कि यथार्थ और अयथार्थ, आवश्यक और अनावश्यक के अंतर को समझने के लिए व्यक्ति और उसकी आत्मपरकता को प्राथमिकता देने से ही उसके चारों ओर फैली विसंगतियों को कम किया जा सकता है।
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यासों को आलोचकों ने कुंठा, घुटन और अनगढ़ प्रतीक योजनाओं के कारण अस्तित्ववादी उपन्यास की संज्ञा से अभिहित किया है। हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में इस विषय से संबंधित जो शोध हुए हैं उनमें परीक्षण और जाँच कम, स्थापनाएँ अधिक हुई हैं। अस्तित्ववाद के प्रभाव को मानकर चलनेवाले लोगों ने संभवतः इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि हिंदी साहित्य की विधाओं में जो सिचुएशंस दिखाई पड़ती हैं वह अस्तित्ववाद के प्रभाव के कारण हैं अथवा बदलते हुए परिवेश के कारण।
यह पुस्तक अस्तित्ववादी विचारधारा की मूलचेतना 'अस्तित्व' की महत्त्वपूर्ण प्रवृत्तियों के सैद्धांतिक विवेचन की अपेक्षा उसकी सिचुएंशस (स्थितियों) के आधार पर कुछ महत्त्वपूर्ण हिंदी उपन्यासों की विवेचना का प्रयास है।
Aadhunik Bodh : Dinkar Granthmala
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

-
Description:
— इस पुस्तक में आधुनिकता पर केन्द्रित निबन्ध संकलित हैं। एक युगद्रष्टा राष्ट्रकवि के मौलिक चिन्तन से ओतप्रोत विचारोत्तेजक ये निबन्ध आधुनिकता के महत्त्व को इस तार्किकता के साथ रेखांकित करते हैं कि पाठकों को अपने राष्ट्र के प्रति एक नई दृष्टि मिल सके।
आधुनिकता की परिभाषा क्या है? धर्म, साहित्य और समाज को वह किस सीमा तक प्रभावित करती है? क्या नैतिकता, सौन्दर्यबोध की भाँति आधुनिकता का भी कोई शाश्वत मूल्य है? विज्ञान, औद्योगिकी और टेक्नोलॉजी के निरन्तर प्रसार के सामने हम अपनी संस्कृति का सार किस तरह बचा सकते हैं? प्रस्तुत संग्रह के निबन्धों में दिनकर जी ने इन ज्वलन्त प्रश्नों पर न केवल गहराई से विचार किए हैं, वरन् भारतीय संस्कृति के सनातन जीवन-मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में उनके समाधान भी दिए हैं।
निस्सन्देह, 'आधुनिक बोध' रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के चिन्तकस्वरूप को उद्घाटित करनेवाली एक श्रेष्ठ बौद्धिक कृति है।
Reti Ke Phool
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

-
Description:
‘रेती के फूल' युवा पीढ़ी के लिए एक युगदृष्टा साहित्यकार का उद्बोधन है। इसमें शामिल प्रत्येक निबन्ध ओजस्वी और प्रेरणा का पुंज है।
'हिम्मत और ज़िन्दगी', 'ईर्ष्या, तू न गई मन से', 'कर्म और वाणी', 'खड्ग और वीणा', 'कला, धर्म और विज्ञान' और 'संस्कृति है क्या?' जैसे शाश्वत विषयों के अतिरिक्त 'भविष्य के लिए लिखने की बात', 'राष्ट्रीयता और अन्तरराष्ट्रीयता', 'हिन्दी कविता में एकता का प्रवाह', 'नेता नहीं, नागरिक चाहिए' जैसे ज्वलन्त मुद्दों पर समर्थ कवि का मौलिक चिन्तन है जो आज भी उतना ही सार्थक है, जितना साठ वर्षों पूर्व था।
वस्तुतः 'रेती के फूल' ऐसे निबन्धों का संग्रह है जिसमें कलाकारिता तो है ही, जो विचारोत्तेजक भी हैं।
Customer Reviews
0 out of 5
Book
Be the first to write a review...