Hindustan Mein Jaat Satta
Author:
Jan DaloshPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
History-and-politics0 Reviews
Price: ₹ 480
₹
600
Available
मुग़ल साम्राज्य की अवनति के बारे में उपलब्ध यूरोपीय प्रलेखों में पादरी एफ.एक्स. वैदेल द्वारा फ़्रेंच भाषा में लिखित वृत्त-लेखों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। टीफैनथेलर और मोदाव के समकालीन वैदेल ने उत्तर भारत के राजनीतिक मामलों के सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा है। उसमें जाट-सत्ता सम्बन्धी वृत्त-लेख प्राथमिक स्रोत होने के कारण सबसे मूल्यवान हैं। ये वृत्तलेख मुग़ल राजतंत्र की तत्कालीन स्थिति और मुग़ल साम्राज्य के पतन में जाटों की भूमिका को समझने के लिए एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ हैं।</p>
<p>वस्तुत: वैदेल धर्मप्रचारक के छद्म वेश में अंग्रेज़ों के लिए तत्कालीन शक्तिशाली जाट-शक्ति की जासूसी कर रहा था। आभिजात्य संस्कार वाला वैदेल जब किसी भारतीय घटना, वस्तु या व्यक्ति के किसी एक पक्ष की सूचना देता है तो वह व्यक्तिनिष्ठ अवधारणा के वशीभूत होकर उनको यूरोपीय मानदंड से परखता है और भारतीयों को हेयदृष्टि से देखता है। परन्तु जब वह परिस्थिति, घटना और व्यक्तियों का उनकी समग्रता में वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करता है तो वह तीक्ष्ण बुद्धिवाला विश्लेषक दृष्टिगोचर होता है। इतिहासकारों की तथ्य-अन्वेषक दृष्टि इस अन्तर को समझकर, पूर्वग्रह के झीने परदे को हटाकर इन तर्कसंगत विश्लेषणों को खोज लेती है। तत्कालीन मुख्य घटनाओं के ये विश्लेषण इतिहास की थाती हैं। इसी प्रकार वैदेल ने मुग़ल साम्राज्य के पतन के ज़िम्मेदार मुहम्मदशाह, अहमदशाह आदि अयोग्य शासकों, गुटबन्दी में लिप्त सफ़दरजंग, ग़ाज़ीउद्दीन ख़ाँ और नजीबुद्दौला, उनके स्वार्थी वजीरों तथा जाट-शक्ति के उन्नायक बदनसिंह, सूरजमल उघैर जवाहरसिंह के चरित्रों का उनकी समग्रता में मूल्यांकन करने में सफलता प्राप्त की है। संक्षेप में, वैदेल ने अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में पश्चिमोत्तर भारत की मुख्य रूप से मुग़ल और जाट-शक्तियों के साथ-साथ मराठा, सिख एवं राजपूतों की राजनैतिक शक्तियों की रूपरेखाओं का अंकन करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। तत्कालीन सामान्य अवनति और राजनैतिक अस्थिरता के परिदृश्य में वैभवशाली जाट-सत्ता के कृषि-आधारित आर्थिक विकास के कारण सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन के शोध के लिए भी वैदेल ने पर्याप्त सामग्री उपलब्ध कराई है, जिसकी ओर विद्वानों का अभी तक ध्यान नहीं गया है।
ISBN: 9788171196500
Pages: 240
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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पिछली सदी के चौथे दशक में प्रगतिशील आन्दोलन ने जिन मूल्यों और सरोकारों को लेकर साहित्य–कला–जगत में हस्तक्षेप किया, उनकी अद्यावधि निरन्तरता को देखने के लिए किसी दिव्यदृष्टि की ज़रूरत नहीं। साम्राज्यवाद, साम्प्रदायिकता, वर्गीय शोषण तथा हर तरह की ग़ैरबराबरी के ख़िलाफ़ एक सुसंगत जनपक्षधर विवेक और नए सौन्दर्यबोध के साथ लिखी जानेवाली कविताओं, कहानियों, उपन्यासों, नाटकों और समालोचना की एक अटूट परम्परा सन् 36 के बाद देखने को मिलती है। साहित्य के साथ–साथ चित्रकला, शिल्प, रंगकर्म, संगीत और सिनेमा में भी प्रगतिशील कलाबोध की संगठित अभिव्यक्ति चौथे–पाँचवें दशक में सामने आने लगी थी। तब से कई उतार–चढ़ावों के बीच इस दृष्टि ने मुख़्तलिफ़ कलारूपों में, कहीं कम कहीं ज़्यादा, अपनी मानीख़ेज़ उपस्थिति बनाए रखी है।
आज हम औपनिवेशिक ग़ुलामी या संरक्षित पूँजीवादी विकास से नहीं, नवउदारवादी भूमंडलीकरण, निजीकरण और वित्तीय पूँजी के हमले से रूबरू हैं। बदले हुए वस्तुगत हालात बदली हुई साहित्यिक एवं कलात्मक अनुक्रियाओं–प्रतिक्रियाओं की माँग करते हैं। लिहाज़ा, इन आठ दशकों के दौरान अगर रचनात्मक अभिव्यक्ति की शक्ल और अन्तर्वस्तु में बदलाव न आते तो स्वयं निरन्तरता ही अवमूल्यित होती, इसलिए परिवर्तन, नए वस्तुगत हालात के बीच जनपक्षधर विवेक का नई तीक्ष्णता और त्वरा के साथ इस्तेमाल, यथार्थ की पहचान पर बल देनेवाले प्रगतिशील आन्दोलन की निरन्तरता का ही एक साक्ष्य बनकर सामने आता है।
प्रस्तुत पुस्तक प्रगतिशील आन्दोलन की इसी निरन्तरता पर भी केन्द्रित है। सांगठनिक धरातल पर आन्दोलन के विकास की रूपरेखा बताने तथा सम्भावनाएँ तलाशनेवाले लेखों के साथ–साथ कुछ महत्त्वपूर्ण समकालीन रचनाकारों व रंगकर्मियों के द्वारा अपने–अपने सांस्कृतिक कर्म में प्रगतिशील आन्दोलन का प्रभाव बतानेवाले आत्मकथ्य भी हैं।
Uttar Pradesh Ka Swatantrata Sangram : Mathura
- Author Name:
Dr. Umesh Chander Sharma
- Book Type:

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Description:
भारत की आजादी के लिए हुए अप्रतिम संघर्ष में मथुरा जनपद के महान योगदान की कहानी राष्ट्रीय प्रेम को समर्पित एक अनुपम गाथा है। 1856 में मथुरा के वनों में एक पंचायत हुई थी जो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की तूफानी हलचल का संकेत था।
मथुरा जनपद में 1857 की क्रांति का विस्फोट मई माह के दूसरे सप्ताह में हुआ। 15 मई तक मथुरा के अंग्रेज स्त्रियों और बच्चों को आगरा पहुँचा दिया गया था। क्रांति की लपटें ग्रामीण अंचलों तक भी पहुँचीं। मांट तहसील का नौहझील क्षेत्र विशेष रूप से प्रभावित हुआ। कोसी और छाता के क्षेत्रों में भी विद्रोह का बिगुल बज उठा था। मांट क्षेत्र का बाजना विशेष रूप से गतिशील हुआ। नौहबारी के जाटों ने नौहझील के किले पर आक्रमण किया। और भी कई महत्त्वपूर्ण घटनाओं का साक्षी मथुरा जिला रहा जिसका विस्तृत विवरण इस पुस्तक में दिया गया है।
मथुरा जनपद में प्रतिरोध की परंपरा द्वापर तक जाती है जब श्रीकृष्ण ने गोपालकों को साथ लेकर कंस के शासन को समूल नष्ट कर दिया था। वही छवियाँ स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी हमें देखने को मिलीं।
Bharat Mein Angrezi Raj Aur Marxvaad : Vol. 1
- Author Name:
Ramvilas Sharma
- Book Type:

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Description:
मार्क्सवादी हिन्दी आलोचना और भाषाविज्ञान विषयक युगान्तकारी कृतित्व की कड़ी में डॉ. रामविलास शर्मा की यह एक और उपलब्धि-कृति है। दो खंडो़ में प्रकाशित इतिहास विषयक इस ग्रन्थ का यह पहला खंड है।
छह अध्यायों में विभक्त इस खंड की मुख्य प्रस्थापना यह है कि भारतीय जनता की समाजवादी चेतना उसकी साम्राज्यविरोधी चेतना का ही प्रसार है। इसे साहित्य और राजनीति, दोनों के विश्लेषण और आवश्यक प्रमाणों सहित इस खंड में स्पष्ट किया गया है। इसके पहले अध्याय में रामविलास जी ने विश्व बाज़ार क़ायम करनेवाली ब्रिटिश-नीति की विवेचना की है और सिद्ध किया है कि भारत इसी का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा था। तभी तो भारतीय माल को ब्रिटिश बाज़ार में बेचनेवाले अंग्रेज़ व्यापारी कुछ ही वर्षों के बाद ब्रिटिश माल को भारतीय बाज़ारों में बचने योग्य हो गए। दूसरे अध्याय में गदर, गदर पार्टी और क्रान्तिकारी दल की चर्चा करते हुए जयप्रकाश नारायण, जवाहरलाल नेहरू और मार्क्सवादियों के तत्सम्बन्धी दृष्टिकोण की समीक्षा की गई है। तीसरे अध्याय में लाला हरदयाल, जयप्रकाश और नेहरू की मार्क्सवादी धारणाओं का विवेचन हुआ है। चौथा अध्याय ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण उस हिन्दी साहित्य को सामने रखता है जो 1917 में रूसी क्रान्ति से पूर्व लिखा जाकर भी मार्क्सवादी विचारधारा से सम्बद्ध है। पाँचवें अध्याय में डॉ. शर्मा ने स्वाधीनता-प्राप्ति के लिए समझौतावादी और क्रान्तिकारी, दोनों रुझानों का विश्लेषण करते हुए उन पर किसान-मज़दूर-संगठनों के प्रभाव का आकलन किया है और छठे अध्याय में, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भारतीय क्रान्तिकारी उभार पर मुस्लिम सम्प्रदायवाद की शक्ल में किए गए साम्राज्यवादी हमले की भीतरी परतों की गहरी पड़ताल की है।
संक्षेप में डॉ. रामविलास शर्मा का यह ग्रन्थ अंग्रेज़ी राज के दौरान भारतीय जनता की साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष-चेतना और उसके विरुद्ध रची गई पेचीदा साज़िशों का पहली बार प्रामाणिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
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