Mahashakti Bharat
Author:
Vedpratap VaidikPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
History-and-politics0 Reviews
Price: ₹ 1276
₹
1595
Available
इस ग्रन्थ के निबन्धों और हमारी वर्तमान विदेश नीति में एक तरह से आँख–मिचौनी चलती रहती है। कभी विदेश नीति आगे होती है और निबन्ध पीछे और कभी निबन्ध आगे होते हैं और विदेश नीति पीछे। जब निबन्ध पीछे–पीछे चलता है तो वह हर विदेश नीति से सम्बन्धित पहल की चीर–फाड़ करता है, कार्य–कारण में उतरता है, जड़ों तक पहुँचता है और दूध को दूध और पानी को पानी कहता है। ताँगे में जुते घोड़े को वह अगर पुचकारता है तो कभी–कभी उस पर चाबुक भी बरसाता है। इसके अलावा यह भी बताता है कि सरकार ने किसी ख़ास मुद्दे पर जो पहल की है, उसे वह बेतहर ढंग से कैसे उठा सकती थी। जब निबन्ध आगे–आगे चलता है तो उसकी कोशिश होती है कि विदेश नीति को वह अपने पीछे खींचता चले।</p>
<p>भारत सरकार की पाकिस्तान–नीति की विचित्रताएँ और वक्रताएँ इन निबन्धों में जमकर अनावृत हुई हैं। लाहौर का आकाश और आगरा की खाई इस लेखक को जैसे पहले से दिखाई पड़ रही थी, अगर भारत सरकार को भी दिखाई पड़ जाती तो जिस निराशा के दौर में वह बाद में फँसी, वह नहीं फँसती। अन्य पड़ोसी देशों और महाशक्तियों के साथ भारत के सम्बन्धों के अन्त:सूत्रों को खोजने और उन्हें नए आयाम देने का प्रयत्न भी इन निबन्धों में हुआ है।</p>
<p>इस ग्रन्थ के अधिकतर निबन्ध तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप में हैं लेकिन हर तत्काल की जड़ें कई कालों तक फैली हुई होती हैं। व्यक्ति के अपने, अन्य व्यक्तियों के, राष्ट्रों के, संस्कृतियों के कालों तक। कालों के विशेष अनुभवों तक। प्रत्येक विश्लेषण में, वह कितना ही तात्कालिक हो, इन सब अनुभवों का निकष होता है। और सबसे बड़ी बात यह कि अपने मस्तिष्क में अगर कोई चिन्तन का ढाँचा हो, चिन्तन–प्रणाली हो तो अलग–अलग समय पर पिरोए गए अलग–अलग आकार–प्रकार के मोती भी अपने–आप सुघड़ माला का रूप धारण करते चले जाते हैं। वाद्य–यंत्रों की विभिन्नता के बावजूद जैसे आर्केस्ट्रा का संगीत समवेत और समरस होता है, वैसे ही विभिन्न विषयों और विभिन्न तिथियों पर लिखे गए ये निबन्ध पाठकों को विदेश नीति चिन्तन की एक प्रणाली के अनुशासन में बँधे हुए लगेंगे।
ISBN: 9788126710195
Pages: 507
Avg Reading Time: 17 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: ‘निम्नवर्गीय प्रसंग’ एक ऐसी रचना है जिसमें निम्न वर्ग अर्थात् आम जनता—ग़रीब किसान, चरवाहा, कामगार, स्त्री समाज, दलित जातियों—के संघर्षों और विचार को बहुत क़रीब से समझने का प्रयास किया गया है। यह रचना अभिजन के दायरे से बाहर जाकर निम्न वर्ग की ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को परखने के साथ–साथ, अभिजन और निम्न जन की प्रक्रियाओं को दो अलग–अलग पटरियों पर न धकेलकर, इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध, आश्रय और द्वन्द्व के आधार पर उपनिवेश काल की हमारी समझ को गतिशील करती है। दरअसल निम्नवर्गीय इतिहास एक सफल और चौंका देनेवाला प्रयोग है जिसके तहत भारतीय समाज में प्रभुत्व और मातहती के बहुआयामी रूप सामने आते हैं। वर्ग-संघर्ष और आर्थिक द्वन्द्व को कोरी आर्थिकता (Economism) के कठघरे से आज़ाद कर उसके सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतिरूपों और विशिष्टताओं का इसमें गहराई के साथ विवेचन किया गया है। इस पुस्तक में स्वतंत्रता संग्राम, गांधी का माहात्म्य, किसान आन्दोलन, मज़दूर वर्ग की परिस्थितियाँ, आदिवासी स्वाभिमान और आत्माग्रह, निचली जातियों के सामाजिक–राजनीतिक और वैचारिक विकल्प जैसे अहम मुद्दों पर विवेकपूर्ण तर्क और निष्कर्षों से युक्त अद्वितीय सामग्री का संयोजन किया गया है। ‘निम्नवर्गीय प्रसंग : भाग-2’ आम जनता से सम्बन्धित नए इतिहास को लेकर चल रही अन्तरराष्ट्रीय बहस को आगे बढ़ाने का प्रयास है। 1982 में भारतीय इतिहास को लेकर की गई यह पहल, आज भारत ही नहीं, वरन् ‘तीसरी दुनिया’ के अन्य इतिहासकारों और संस्कृतिकर्मियों के लिए एक चुनौती और ध्येय दोनों है। हाल ही में सबॉल्टर्न स्टडीज़ शृंखला से जुड़े भारतीय उपनिवेशी इतिहास पर केन्द्रित लेखों का अनुवाद स्पैनिश, फ़्रेंच और जापानी भाषाओं में हुआ है। प्रस्तुत संकलन के लेख आम जनता से सम्बन्धित आधे-अधूरे स्रोतों को आधार बनाकर, किस प्रकार की मीमांसाओं, संरचनाओं के ज़रिए एक नया इतिहास लिखा जा सकता है, इसकी अनुभूति कराते हैं। रणजीत गुहा का निबन्ध ‘चन्द्रा की मौत’ 1849 के एक पुलिस-केस के आंशिक इक़रारनामों की बिना पर भारतीय समाज के निम्नस्थ स्तर पर स्त्री-पुरुष प्रेम-सम्बन्धों की विषमताओं का मार्मिक चित्रण है। ज्ञान प्रकाश दक्षिण बिहार के बँधुआ, कमिया-जनों की दुनिया में झाँकते हैं कि ये लोग अपनी अधीनस्थता को दिनचर्या और लोक-विश्वास में कैसे आत्मसात् करते हुए ‘मालिकों’ को किस प्रकार चुनौती भी देते हैं। गौतम भद्र 1857 के चार अदना, पर महत्त्वपूर्ण बागियों की जीवनी और कारनामों को उजागर करते हैं। डेविड आर्नल्ड उपनिवेशी प्लेग सम्बन्धी डॉक्टरी और सामाजिक हस्तक्षेप को उत्पीड़ित भारतीयों के निजी आईनों में उतारते हैं, वहीं पार्थ चटर्जी राष्ट्रवादी नज़रिए में भारतीय महिला की भूमिका की पैनी समीक्षा करते हैं। इस संकलन के लेख अन्य प्रश्न भी उठाते हैं। अधिकृत ऐतिहासिक महानायकों के उद्घोषों, कारनामों और संस्मरण पोथियों के बरक्स किस प्रकार वैकल्पिक इतिहास का सृजन मुमकिन है? लोक, व्यक्तिगत, या फिर पारिवारिक याददाश्त के ज़रिए ‘सर्वविदित' घटनाओं को कैसे नए सिरे से आँका जाए? हिन्दी में नए इतिहास-लेखन का क्या स्वरूप हो? नए इतिहास की भाषा क्या हो? ऐसे अहम सवालों से जूझते हुए ये लेख हिन्दी पाठकों के लिए अद्वितीय सामग्री का संयोजन करते हैं।
Itihas Ki Punarvyakhya
- Author Name:
Romila Thapar
- Book Type:

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Description:
यदि किसी राष्ट्र के वर्तमान पर उसका अतीत अथवा इतिहास अनिष्ट की तरह मँडराने लगे तो उसके कारणों की पड़ताल नितान्त आवश्यक है। इतिहास की पुनर्व्याख्या इसी आवश्यकता का परिणाम है। विज्ञानसम्मत इतिहास-दृष्टि के लिए प्रख्यात जिन विद्वानों का अध्ययन-विश्लेषण इस कृति में शामिल है, उसे दो विषयों पर केन्द्रित किया गया है। पहला, ‘भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए नई दृष्टि’, और दूसरा, ‘साम्प्रदायिकता और भारतीय इतिहास-लेखन’। सर्वविदित है कि इतिहास के स्रोत अपने समय की तथ्यात्मकता में निहित होते हैं, लेकिन इतिहास तथ्यों का संग्रह-भर नहीं होता। उसके लिए तथ्यों का अध्ययन आवश्यक है और अध्ययन के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण। इसके बिना उन प्रवृत्तियों को समझना कठिन है, जो पिछले कुछ वर्षों से भारतीय इतिहास के मिथकीकरण का दुष्प्रयास कर रही हैं। इसे कई रूपों में रेखांकित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, अतीत को लेकर एक काल्पनिक श्रेष्ठताबोध, वर्तमान के लिए अप्रासंगिक पुरातन सिद्धान्तों का निरन्तर दोहराव, सन्दिग्ध और मनगढ़ंत प्रमाणों का सहारा, तथ्यों का विरूपीकरण आदि। स्वातंत्र्योत्तर भारत में हिन्दू और मुस्लिम परम्परावादियों में इसे समान रूप से लक्षित किया जा सकता है। मस्जिदों में बदल दिए गए तथाकथित मन्दिरों के पुनरुत्थान-पुनर्निर्माण या फिर पुरातत्त्व विभाग द्वारा संरक्षित मस्जिदों में नए सिरे से उपासना के प्रयास ऐसी ही प्रवृत्तियों को उजागर करते हैं।
वस्तुत: ज्यों-ज्यों इतिहास और परम्परा के वैज्ञानिक मूल्यांकन की कोशिशें हो रही हैं, त्यों-त्यों उसके समानान्तर मिथकीकरण के प्रयासों में भी तेज़ी आ रही है। कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे प्रयासों के पीछे राजनीति-प्रेरित कुछ इतर स्वार्थों की पूर्ति भी एक उद्देश्य है, जिसका भंडाफोड़ करना आज की ऐतिहासिक ज़रूरत है, क्योंकि प्रजातीय और धार्मिक श्रेष्ठता का दम्भ संसार में कहीं भी टकराव और विनाश को आमंत्रण देता रहा है। प्रो. रोमिला थापर के शब्दों में कहें तो, “20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जर्मनी में सामाजिक परिवर्तन की अनिश्चितता और मध्यवर्ग का विस्तार आर्य-मिथक का उपयोग कर रहे फासीवाद के उदय के मूल कारण थे। इस अनुभव से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि जातीय मूल और पहचान के सिद्धान्तों का उपयोग बड़ी सावधानी से किया जाए, वरना उसके कारण ऐसे विस्फोट हो सकते हैं, जो एक पूरे समाज को तबाह कर दें। इन परिस्थितियों में इतिहास के नाम पर वृहत्तर समाज द्वारा ऐतिहासिक विचारों के ग़लत इस्तेमाल के तरीक़ों से इतिहासकार को सावधान रहना होगा।”
कहना न होगा कि यह मूल्यवान कृति इतिहास और इतिहास-लेखन की ज्वलन्त समस्याओं से तो परिचित कराती ही है, आज के लिए अत्यन्त प्रासंगिक विचार-दृष्टि को भी हमारे सामने रखती है।
Mirror of Fortune
- Author Name:
Dr. A. Shanker
- Book Type:

- Description: This book ‘Mirror of Fortune’ is such an instrument to know the circumstances and conditions of life through astrology that leads to recognizing the signs of favorable and unfavorable circumstances. Those who believe in and practice jyotish, need it at every step. Yet, sometimes when a person with dexterity in this sphere is not found, people have to face serious problems. In today’s life those having insufficient knowledge and who have travelled frequently and stayed in jungles and deserts they too face difficulties. The sphere of astrology is very wide. One should have mastery over its different aspects to comprehend satisfactorily. Unless and until one attains deep knowledge and expertise his sincerity and honesty remain dubious. Meanwhile, whatever I could gain through my study and experience I have put together in this book. I take no pride in doing so as I am not an erudite scholar who is presenting his views to impress readers of his merits and accomplishments. To me there is no difference between fame and the sun of a rainy day.
Madhyakaleen Itihas Mein Vigyan
- Author Name:
Om Prakash Prasad
- Book Type:

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Description:
सल्तनत काल में चरखा भारत में लोकप्रिय हुआ। इरफ़ान हबीब कहते हैं कि निश्चित रूप से चरखा और धुनिया की कमान सम्भवत: 13वीं और 14वीं शताब्दी में बाहर से भारत आए होंगे। प्रमाण मिलते हैं कि काग़ज़ लगभग 100 ई. के आसपास चीन में बनाया गया। जहाँ तक भारत का प्रश्न है, अलबरूनी ने स्पष्ट किया है कि 11वीं सदी के आसपास प्रारम्भिक वर्षों में मुस्लिम पूरी तरह से काग़ज़ का इस्तेमाल करने लगे थे। बहरत में इसका निर्माण तेरहवीं शताब्दी में ही आरम्भ हुआ जैसा कि अमीर ख़ुसरो ने उल्लेख किया है।
भारत में मुस्लिम सल्तनतों के स्थापित होने के बाद अरबी चिकित्सा विज्ञान ईरान के मार्ग से भारत पहुँचा। उस समय तक इसे यूनानी तिब्ब के नाम से जाना जाता था। परन्तु अपने वास्तविक रूप में यह यूनानी, भारतीय, ईरानी और अरबी चिकित्सकों के प्रयत्नों का एक सम्मिश्रण था। इस काल में हिन्दू वैद्यों और मुस्लिम हकीमों के बीच सहयोग एवं तादात्म्य स्थापित था। भारतीय चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से मुग़ल साम्राज्य को स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। दिल्ली की वास्तु-कला का वास्तविक गौरव भी मुग़लकालीन है। संगीत के क्षेत्र में सितार और तबला भी मुस्लिम संगीतज्ञों की देन है।
विभिन्न क्षेत्रों के इन्हीं सब तथ्यों के दायरे में यह पुस्तक तैयार की गई है। तीस अध्यायों की इस पुस्तक में ख़ास के विपरीत आम के कारनामों एवं योगदानों पर रोशनी डालने का प्रयास किया गया है। व्हेनत्सांग के विवरण को सबसे पहले पेश किया गया है ताकि मध्यकाल की सामन्तवादी पृष्ठभूमि को भी समझा जा सके। धातु तकनीक, रजत तकनीक, स्वर्ण तकनीक, काग़ज़ का निर्माण आदि के अलावा लल्ल, वाग्भट, ब्रह्मगुप्त, महावीराचार्य, वतेश्वर, आर्यभट द्वितीय, श्रीधर, भास्कराचार्य द्वितीय, सोमदेव आदि व्यक्तित्वों के कृतित्व पर भी शोध-आधारित तथ्यों के साथ प्रकाश डाला गया है।
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