21vin Sadi Ki Or
Author:
Suman KrishnakantPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
General-non-fiction0 Reviews
Price: ₹ 236
₹
295
Unavailable
स्वतंत्रता के बाद भारतीय स्त्री की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति में काफ़ी सुधार हुआ है। बहुत थोड़े पैमाने पर ही सही, लेकिन इक्कीसवीं सदी की स्त्री-छवि बड़ी तेज़ी से आकार ग्रहण कर रही है। और, हम उम्मीद कर सकते हैं कि नई सदी में वह भारतीय समाज की एक समर्थ और स्वतंत्र इकाई होगी।</p>
<p>यह आज भी नहीं कहा जा सकता कि स्त्री के सामने मौजूद तमाम चुनौतियाँ, दुविधाएँ और बाधाएँ पूरी तरह दूर कर ली गई हैं। समस्याएँ हैं, लेकिन उनसे दो-चार होने का साहस अब उतना दुर्लभ नहीं है जितना पहले था।</p>
<p>यह पुस्तक हमें इन दोनों पहलुओं से अवगत कराती है, इसमें नया इतिहास रचती भारतीय नारी है, तो पीड़ा की आग में झुलसती औरत भी है। स्वतंत्रता और सुरक्षा का कठिन चुनाव है, विज्ञापनों में उभरती नई नारी-छवि है, पंचायत व्यवस्था में संलग्न महिलाएँ हैं, नारी-साक्षरता के प्रश्न हैं, उनकी क़ानूनी हैसियत पर विचार है और भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान मुक्ति का अर्थ समझती औरतें भी हैं। यह पुस्तक वर्तमान और जन्म ले रही स्त्री का समग्र ख़ाका प्रस्तुत करती है।
ISBN: 9788126702442
Pages: 222
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Satinath Chakravorty
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- Description: ‘दर्शनशास्त्र : पूर्व और पश्चिम’ शृंखला की यह पुस्तक पुनर्जागरण एवं आधुनिक विज्ञान के उदय की चर्चा से प्रारम्भ होती है, और उस कालखंड की दार्शनिक प्रवृत्तियों का विवेचन प्रस्तुत करती है, जो आधुनिक यूरोपीय दर्शनशास्त्र के इतिहास में अत्यन्त विचारोत्तेजक माना जाता है। यह विचित्र बात है कि उस समय के दर्शनशास्त्री एक तरफ़ तो विज्ञान से प्रतिबद्ध थे और दूसरी तरफ़ वे आधुनिक विज्ञान को सामने लानेवाली बूर्ज्वाजी के अन्तर्विरोधों की पड़ताल कर रहे थे। साथ ही, क्रान्ति के जो बीज स्वयं आधुनिक विज्ञान में निहित हैं, उनके प्रतिकार के लिए वे धर्म और आस्था का अन्ध-समर्थन भी कर रहे थे। लेखक ने इस पूरी प्रक्रिया पर विस्तार से विचार करते हुए दर्शनशास्त्रियों की मूलभूत विशेषताओं को उजागर किया है। बीच-बीच में इतिहास के कुछ प्रसंगों की चर्चा से यह पुस्तक और अधिक रोचक तथा पठनीय बन गई है। इसमें कई ऐसे विषयों पर भी विचार किया गया है, जिन पर अभी तक यूरोपीय दर्शनशास्त्र के अध्ययन में या तो ध्यान नहीं दिया गया था, और अगर ध्यान दिया गया तो उनसे कतरा जाने की प्रवृत्ति रही। संक्षेप में, यह पुस्तक वैज्ञानिक विचारधारा और विज्ञान एवं समाज के अन्तस्सम्बन्धों को समझने के लिए आवश्यक रूप से पठनीय है।
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