1000 Paryavaran Prashnottari
Author:
Dilip M. SalwiPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
General-non-fiction0 Reviews
Price: ₹ 320
₹
400
Available
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ISBN: 9788177213409
Pages: 192
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: कबीर को नए सन्दर्भों में व्याख्यायित करने के प्रयत्न हुए हैं।...हिन्दी में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर का नया विचारोत्तेजक विवेचन प्रस्तुत करते हुए उन्हें सभी सन्दर्भों में देखा-परखा, एक प्रकार से पुनर्स्थापित किया। शोध के माध्यम से भी कबीर के पुनर्मूल्यांकन के कार्य हुए। पर लगता है कि कबीर आज भी हमारे लिए चुनौती हैं और नए विवेचन की माँग करते हैं। इस दृष्टि से डॉ. एम.डी. थॉमस की पुस्तक ‘कबीर और ईसाई चिन्तन’ एक नए शोध-प्रयत्न के रूप में देखी जानी चाहिए। डॉ. एम.डी. थॉमस ईसाई धर्म के प्रति एक व्यापक दृष्टि रखते हैं और कबीर तथा ईसाई चिन्तन में साम्य की खोज करते हुए, वे कई पूर्वग्रहों से मुक्त हैं।...डॉ. थॉमस भारतीय ईसाइयत के स्वरूप की कल्पना भी इस आधार पर करते हैं।...इसलिए डॉ. थॉमस परिश्रम करके उन साम्य बिन्दुओं की खोज करते हैं जो कबीर और ईसाई चिन्तन में सम्भव हुए हैं।...उन्होंने धर्म की उदार व्याख्या की है। उनके शब्द हैं : ‘‘ईश्वर का ज्ञान क्रियात्मक है। वह उसकी अपनी रचनाओं का सारतत्त्व है।...जिस प्रकार सूर्य जल में प्रतिबिम्बित होता है, ठीक उसी प्रकार ईश्वर मनुष्य में प्रतिफलित होता है। ईश्वर के इस प्रयोगपरक आशय में...स्वयं ईश्वर-चिन्तन को एक नई दिशा मिल जाती है। ईश्वर को समझना हो तो मनुष्य को समझना ही आवश्यक है।’ डॉ. थॉमस ने अपनी पुस्तक में कबीर की प्रासंगिकता पर विशेष ध्यान दिया है।...कुछ स्थलों पर डॉ. थॉमस ने मौलिक विवेचन-क्षमता का परिचय दिया है, जो विचारणीय है।...डॉ. थॉमस मलयालमभाषी हैं, पर उनकी हिन्दी में कोई शिथिलता नहीं, और यह प्रसन्नता का विषय है। मेरा विश्वास है कि इस विचारोत्तेजक पुस्तक का स्वागत होगा और वर्तमान सांस्कृतिक सन्दर्भ में इसकी प्रासंगिकता नई प्रेरणा प्रदान कर सकेगी। —प्रेमशंकर
Nastikasobat Gandhi
- Author Name:
G. Ramchandra Rao +1
- Book Type:

- Description: काळ आहे 1944-1948.आंध्रप्रदेशात गांधी विचारांचा कार्यक्रम राबविणारे नास्तिकवादी कार्यकर्ते गोरा आणि महात्मा गांधी यांच्यामध्ये चर्चा होतात. विषय आहे : आस्तिकता आणि नास्तिकतादोन परस्पर विरोधी मताची माणसे एकमेकांशी चर्चा करत आहेत. परस्परांना तपासून बघत आहेत. मात्र या चर्चेत खंडनमंडन किंवा वादावादीचा खणखणाट नाही. चर्चेच्या ओघात दोघेही एकमेकाला समजून घेतात आणि दोघांमधील नाते अधिकाधिक दृढ होत जाते.गांधीजींच्या निधनानंतर तीन वर्षांनी गोरांनी या आठवणी लिहिल्या आणि तत्कालीन गांधीवादी विचारवंत किशोरीलाल मश्रुवाला यांनी प्रस्तावनेत या आगळ्यावेगळ्या संबंधाची वैचारिक उकल केली.सत्तर वर्षांपूर्वी इंग्रजीत प्रकाशित झालेल्या ‘An atheist with Gandhi' या पुस्तकाचा हा मराठी अनुवाद. सोबत ज्येष्ठ अभ्यासक किशोर बेडकिहाळ यांनी ‘पुस्तकासंबंधी' या प्रदीर्घ टिपणात या पुस्तकाचे आजच्या संदर्भात महत्त्व विशद केले आहे. Nastikasobat Gandhi | Gora (G. Ramchandra Rao)Translated By : Vijay Tambe नास्तिकासोबत गांधी | गोरा (जी. रामचंद्र राव)अनुवाद : विजय तांबे
Ab Ve Vhan Nahin Rehte
- Author Name:
Rajendra Yadav
- Book Type:

- Description: मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव की त्रयी को ‘नई कहानी’ आन्दोलन के प्रवर्त्तक और उन्नायक के रूप में जाना जाता है। प्रख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह को नई कहानी की प्रवृत्तियों को सूत्रबद्ध करने का श्रेय है। यह बात ग़ौरतलब है कि आज़ादी के बाद के ये चार शिखर रचनाकार आपस में गहरे मित्र थे, 1950 तथा ’60 के दशक में इन लोगों के बीच ज़बरदस्त अन्तर्संवाद भी था। आलोचना-प्रत्यालोचना और आत्मालोचना से भरे इस अन्तर्संवाद ने उस आन्दोलन को बल दिया, इन रचनाकारों को भी इससे ऊर्जा मिली यह वह समय था जब भारत का नया समाज बन रहा था और साहित्य का भी स्वरूप बदल रहा था। ऐसे में कुछ भी नया करने के लिए गहन विचार-विमर्श जरूरी था और उसका सबसे सुगम मार्ग था पत्र। मित्रों की स्वस्थ आलोचना उस समय का युगधर्म था। जाहिर है, रचनाशीलता के विकास में भी उसकी गहरी भूमिका थी। राजेन्द्र यादव के नाम मोहन राकेश, कमलेश्वर और डॉ. नामवर सिंह तथा राजेन्द्र यादव के नामवर सिंह के लिए पत्रों का यह संग्रह अपने समय के लेखकीय अन्तर्संवादों का जीवन्त दस्तावेज़ है। इनके माध्यम से इन लेखकों के रचनात्मक संघर्ष को भी समझा जा सकता है और साहित्य की उन अन्तर्ध्वनियों को भी, जिन्हें साहित्य के किसी इतिहास के माध्यम से सुन-समझ पाना सम्भव नहीं है।
Devnagari Jagat Ki Drishya Sanskriti
- Author Name:
Sadan Jha
- Book Type:

-
Description:
“हिन्दी में सभ्यता-समीक्षा कम ही होती है और यह कहा जा सकता है कि यह हिन्दी में विचार और आलोचना की जो परम्परा रही है उससे विपथ होने जैसा है। इधर तो सारा समय हिन्दी में, जैसे कि अन्यत्र भी, देखने-दिखाने में ही बीतता है। इसके बावजूद अभी तक देवनागरी जगत में जो दृश्य संस्कृति विकसित हुई है उसका कोई सुचिन्तित अध्ययन नहीं हुआ है। सदन झा की यह पुस्तक इस सन्दर्भ में पहली ही है : उसमें समझ और जतन से, वैचारिक सघनता और खुलेपन से इस दृश्य संस्कृति के विभिन्न रूपों पर विचार किया गया है। निश्चय ही यह हिन्दी में चालू मानसिकता से अलग कुछ करने का ज़रूरी जोख़िम उठाने जैसा है। हम रज़ा पुस्तक माला में यह पुस्तक सहर्ष प्रस्तुत कर रहे हैं।”
—अशोक वाजपेयी
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