Van Tulasi Ki Gandh
Author:
Phanishwarnath RenuPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 316
₹
395
Available
रंग-बिरंगी ज़िन्दगियों की पृष्ठभूमि में छिपे मनुष्य के अविरत संघर्ष<strong>, </strong>उसके दु:ख<strong>-</strong>सुख और उसकी करुणा को रेणु ने जिस गहन तल्लीनता से अपने कथा-साहित्य में चित्रित किया है<strong>, </strong>वह निश्चय ही हिन्दी साहित्य की अमिट उपलब्धि है। किन्तु इस उपलब्धि तक पहुँचने में रेणु ने जिन व्यक्तियों के जीवन से प्रेरणा ग्रहण की है<strong>, </strong>उनके बारे में रेणु क्या सोचते थे। यह जिज्ञासा रेणु के पाठकों के मन में वर्षों से रही है और इस बात की गहरी आवश्यकता महसूस की जा रही थी कि इधर-उधर बिखरे उनके रेखाचित्रों का व्यवस्थित संग्रह प्रकाशित हो। ‘वन तुलसी की गन्ध’ इसी आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए आपके हाथों में है।</p>
<p>इस संग्रह के पहले खंड में यशपाल<strong>, </strong>अज्ञेय<strong>, </strong>अश्क<strong>, </strong>जैनेन्द्र<strong>, </strong>उग्र<strong>, </strong>कामताप्रसाद सिंह ‘काम’ और त्रिलोचन पर लिखे रेखाचित्र हैं। ये सभी रेणु से वरिष्ठ हिन्दी लेखक हैं। दूसरे खंड में बालकृष्ण ‘सम’<strong>, </strong>सुहैल अजीमाबादी<strong>, </strong>रवीन्द्रनाथ अंकुर<strong>, </strong>हंग्री जेनेरेशन के कवियों एवं सतीनाथ भादुड़ी पर लिखे रेखाचित्र हैं। ये क्रमश: नेपाली<strong>, </strong>उर्दू एवं बांग्ला के लेखक हैं। तीसरे खंड में उन रेखाचित्रों को रखा गया है<strong>, </strong>जो साधारण पात्रों पर लिखे गए हैं। साथ ही इस खंड में रेणु की पहली कहानी के ‘बट बाबा’ भी उपस्थित हैं—जटाजूट लटकाए...‘योगी वृक्ष’—ठीक रेणु की तरह—‘एक महान महीरुह’...ऋषितुल्य<strong>, </strong>विराट...<strong>!</strong>
ISBN: 9788126714476
Pages: 175
Avg Reading Time: 6 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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डॉ. ज़ाकिर हुसैन स्मृति व्याख्यान-माला का आयोजन हर वर्ष ज़ाकिर हुसैन कॉलेज में किया जाता है और इसका उद्देश्य महान शिक्षाविद्, राष्ट्रवादी नेता और भारत के राष्ट्रपति ज़ाकिर साहब के प्रति सम्मान व्यक्त करना है। आधुनिक भारत में उच्च शिक्षा के लिए देहली कॉलेज के ऐतिहासिक अवदान और समकालीन महत्त्व को ज़ाकिर साहब बख़ूबी समझते थे। यह व्याख्यान-माला स्वतंत्रता-पूर्व और स्वातंत्र्योत्तर भारत में कॉलेज के प्रशासन में ज़ाकिर साहब द्वारा निभाई गई अहम भूमिका का अभिनन्दन करती है।
कहा जाता है कि बीसवीं सदी ‘इतिहास के अन्त’ और विचारधारा तथा कई निश्चितताओं की समाप्ति के साथ ख़त्म हुई। लेकिन इसके साथ ही यह विचार भी पैदा हुआ कि तमाम निश्चितताओं की घोषित समाप्ति अपने आप में एक कट्टरवाद की शक्ल अख़्तियार कर गई, और इसीलिए नए और पुराने ज्ञान को ग़ौर से परखने की आवश्यकता और बढ़ गई। इस पुस्तक में संकलित बारह व्याख्यान ठीक यही काम करते हैं, यानी वे ऐसे कई विचारों को प्रश्नांकित करते हैं जो समकालीन बौद्धिकता का रूपाकार तय कर रहे हैं और ऐसे तमाम सवालों से जूझते हैं जो हमारे मौजूदा जीवन के केन्द्र में स्थित हैं: मसलन—राष्ट्र-राज्य, पूँजीवाद, आधुनिकता, वैश्वीकरण और भाषा, संस्कृति, शिक्षा और इतिहास से जुड़े अन्य अनेक बिन्दु। इन व्याख्यानों के सभी लेखक अपने-अपने क्षेत्र के अधिकारी विद्वान हैं। अपने विषयों से वे गहरे जुड़े हैं लेकिन उनकी दृष्टि वैश्वीकरण और जनतंत्रीकरण जैसी व्यापक प्रक्रियाओं तक भी जाती है।
Dhara Ke Vipreet
- Author Name:
Govind Mishra
- Book Type:

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साहित्य के शीर्षस्थ सम्मानों से विभूषित और कई चर्चित-बहुपठित उपन्यासों-कहानियों के सर्जक गोविन्द मिश्र यहाँ प्रथम पुरुष में अपने पाठकों यानी हम सबसे सम्बोधित हैं। ‘धारा के विपरीत' उनकी आत्मकथा है। एक पारदर्शी और सहज मनुष्य की आत्मकथा जिसने अपनी संवेदना, मानवीय मूल्यों की तरफ़दारी और अपने आसपास फैले सुख-दुख को शब्द-बद्ध करने के लिए लेखक होना चुना।
पेशे से आयकर विभाग में उच्च पदों पर रहने वाले गोविन्द मिश्र का बचपन और किशोरावस्था सुख-सुविधा के अत्यल्प साधनों के बावजूद उदारता, अपनेपन और सामाजिक सौहार्द के जिस वातावरण में बीता, अपनी प्राकृतिक संवेदनशीलता और उचित-अनुचित के सहजबोध ने जो अनुभव उन्हें उस दौरान दिये, वे उनकी रचनात्मकता का स्थायी आधार बने। इस आत्मकथा में वे अपने जीवन से जुड़े लोगों का ज़िक्र करते हुए अपनी उन कृतियों का भी जिक्र करते चलते हैं जिनका विषय वे लोग रहे। और इनमें बचपन ही नहीं उनके वयस्क और पेशेवर जीवन में आये लोग और घटनाएँ भी हैं! प्राथमिक अनुभवों ने ही उन्हें लिखने के लिए प्रेरित किया, किसी विचार, खेमे या आग्रह ने नहीं!
आज़ादी से तकरीबन एक दहाई पहले जन्मे गोविन्द जी ने अपने भीतर एक साधारण भारतीय मनुष्य को हर हाल में बचाए रखा! वह मनुष्य जो अपनी मुठभेड़ों में रोज़ कुछ बड़ा होता है। लोगों की असलियतों से मिले विस्मय को संपदा की तरह सहेजकर रखता है और किसी कड़वाहट से ख़ुद को विषैला नहीं होने देता। साधारण की इस मौजूदगी को वे साहित्य सर्जना की पहली शर्त मानते भी हैं जो इस आत्मकथा में भी उपस्थित है। ‘सच बता दो तो वह कितने कलुष धो डालता है। सच में वजन होता है।’ एक जगह वे कहते हैं।
यह एक कल्मषरहित जीवन का निर्भार वृत्तांत है जो अपने उद्गम से समुद्र की ओर तीव्र गति से जाती नदी की तरह बहता है और उत्तरोत्तर सान्द्र होता जाता है। इसमें लेखक अपनी रचनाओं के बारे में, अफ़सर अपनी चुनौतियों के बारे में, प्रेमी अपने प्रेम के बारे में, पुरुष उन स्त्रियों के बारे में जिनका स्त्रीत्व उसे बरबस मोह लेता है, पति और पिता अपने परिवार के बारे में, दोस्त अपने दोस्तों के बारे में, साहित्यकार अपने साहित्यिक परिवेश की ख़ूबियों-खामियों के बारे में और मनुष्य अपनी मनुष्यता के बारे में अकुंठ भाव से सबकुछ बताता चलता है। और उस समय के बारे में भी जो अपनी तमाम तकनीकी, बौद्धिक और आर्थिक समृद्धि के बावजूद ठीक उसी जगह पर संकरा और कम पड़ जाता है, जहाँ उसे बड़ा और उदात्त होना चाहिए।
PRERNAPUNJ KIRAN BEDI
- Author Name:
Tejpal Singh Dhama
- Book Type:

- Description: "अत्याचार और अन्याय के खिलाफ आवाज उठानेवाली, असहाय और निर्बल का संरक्षण करनेवाली, सामाजिक कुरीतियों को ध्वस्त करनेवाली, भ्रष्टाचार के विरुद्ध शंखनाद करनेवाली, किसी एक भारतीय महिला का नाम लें, तो वह होगा—वरिष्ठ पुलिस अधिकारी डॉ. किरण बेदी। अपने सेवाकाल और उसके बाद भी जो निरंतर सामाजिक उत्थान के लिए कृतसंकल्प रहीं और तनमनधन से सकारात्मक कार्य करके समाज में आदर्श और अनुकरणीय बनीं, उन डॉ. किरण बेदी की प्रेरणाप्रद जीवनगाथा है यह पुस्तक। हमारा विश्वास है कि यह पुस्तक समाज में चेतना जाग्रत् करने, महिलाओं में सुरक्षा का भाव पैदा करने, निर्बलों में साहस पैदा करने और भ्रष्टाचारियों के दिलों में डर पैदा करने में सफल होगी।"
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