Ret Par Khema
Author:
Zabir HussainPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 240
₹
300
Unavailable
‘मौत पर मुआवज़ा। मेरे गाँव आजकल मौत का मुआवज़ा मिलता है?’ कबीर छह सौ वर्ष बाद एक दिन अपने गाँव आकर जुम्मन शेख से पूछते हैं : और जुम्मन उन्हें बताता है कि ‘हाँ, मिलता है, सिर्फ़ ख़ुशक़िस्मत लोगों को मिलता है।’</p>
<p>नए और लगातार बदलते हुए इस दौर के बारे में राजनीतिज्ञ और लेखक जाबिर हुसेन की यह कथा-डायरी इसी तरह कभी कल्पना के सहारे, कभी अपने आसपास फैली ख़बरों के बहाने और कभी अपने रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के अनुभवों के आधार पर भावप्रवण टिप्पणियाँ करती चलती है।</p>
<p>जाबिर हुसेन अहसास की गहरी नमी के पीछे से अपने आसपास की दुनिया को देखनेवाले रचनाकार हैं, इसीलिए शायद उन्होंने कहानी-उपन्यासों के बजाय डायरी जैसी विधा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है जो निजी तथा सार्वजनिक के बीच एक दिल की तरह धड़कते हुए पुल का निर्माण करती है।</p>
<p>2005 के ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ से विभूषित यह रचना उनकी कथा-डायरी है जिसमें वे अपने अनुभवों और विचारों को छोटी-छोटी कहानियों में पिरोकर पेश करते हैं। बचपन की अपनी प्यारी नाजो बी की यादों से शुरू होकर यह किताब अनेक दिलचस्प और हमारी सोच की राह को रौशन करनेवाली कहानियों और मौजूदा समय की सच्चाइयों को उजागर करनेवाले क़िस्सों से होकर गुज़रती है। कबीर हैं तो लोहिया भी इसमें हैं, दादा कृपलानी हैं तो दंगाई भीड़ के सामने खड़े मांगी रामजी भी हैं।
ISBN: 9788126712540
Pages: 167
Avg Reading Time: 6 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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प्रख्यात विद्वान प्रोफ़ेसर वारिस किरमानी की आत्मकथा ‘घूमती नदी’ एक दस्तावेज़ी किताब है। किताब के पहले अध्याय को ‘ख़ुश्बू-ए-पैरहन’ का शीर्षक दिया गया है। यह नहीं मालूम कि प्रो. किरमानी ने ‘गोमती नदी’ का नाम ‘घूमती नदी’ कहाँ से लिया है। हमारे पुराने हिन्दुस्तानी साहित्य में इस नदी को गोमती नदी ही लिखा गया है। किरमानी साहब ने गोमती के किनारे हरे-भरे मैदानों, खेतों और पुराने क़स्बों की आलीशान मस्जिदों और मन्दिरों का ज़िक्र बड़े ख़ूबसूरत अन्दाज़ में किया है, और फिर उस इलाक़े के मशहूर क़स्बे देवा शरीफ़ में अपनी पैदाइश सन् 1925 में लिखी है। इसी के साथ अवध की रंगारंग तह्ज़ीब, मेले-ठेले, त्योहारों और उत्सवों का दिलचस्प उल्लेख किया गया है। अवध का रहन-सहन, साहित्य, संस्कृति, भाषा, आपसी मेलजोल, भाईचारा, आपसी एकता और अखंडता की जीती-जागती तस्वीरें इस किताब में विशिष्ट प्रकार से मौजूद हैं। अवधी ज़बान, हिन्दुस्तानी मान्यताओं और धार्मिक आस्थाओं की ऐसी झलकियाँ पेश की गई हैं कि पाठक उन अनुभूतियों में खो जाता है और गुज़री हुई ज़िन्दगी की प्रतिध्वनि साफ़ सुनाई देती है।
किरमानी जी के माता-पिता की मृत्यु के बाद मजबूरियों और अभावों का वर्णन भी बहुत मार्मिक है। किताब में जगह-जगह ऐतिहासिक घटनाएँ दुहराई गई हैं, जिससे उनके ऐतिहासिक ज्ञान का पता चलता है। जैसा कि उन्होंने देहली के सुल्तान इल्तुतमिश के बचपन का वर्णन एक फ़ारसी किताब से उद्धृत किया है। इसी तरह औरंगज़ेब के समय की भी एक घटना उल्लिखित की है, जिससे शहंशाह के बारे में ग़लतफ़हमी दूर होती है। इसी के साथ वारिस साहब ने अपने पूर्वजों के बारे में एक दिलचस्प घटना लिखी है जिसके स्रोत का उल्लेख किताब में नहीं है। किताब में वारिस साहब के बचपन, उनके माता-पिता और गुरुजनों की आदतों, तौर-तरीक़ों, लिबास और व्यावहारिक रंग-ढंग का उल्लेख सामाजिक इतिहास का हिस्सा है, जिसे दस्तावेज़ी हैसियत हासिल है।
किरमानी साहब की आत्मकथा जोश मलीहाबादी की ‘यादों की बारात’ से कहीं ज़ियादा साहित्यिक और दिलचस्प है, जिसे पूरी पढ़े बग़ैर रखने को जी नहीं चाहता।
—पुस्तक की भूमिका से
Raag-Anurag
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Ravishankar
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रज़ा फ़ाउण्डेशन ने हिन्दी लेखकों और कलाकारों की सुशोधित विस्तृत जीवनियाँ लिखाने और प्रकाशित कराने का प्रोजेक्ट बनाया है और उस पर काम चल रहा है : कई जीवनियाँ इस क्रम में प्रकाशित हो गयी हैं। भारत के मूर्धन्य कलाकारों में से बहुत कम ने अपनी आत्मकथाएँ लिखी हैं। इनमें चित्रकार, संगीतकार, रंगकर्मी, नर्तक आदि शामिल हैं। पुस्तकमाला में ऐसी आत्मकथाओं को हम हिन्दी अनुवाद में प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते रहे हैं। पण्डित रविशंकर की यह अधूरी आत्मकथा, बाङ्ला से अनूदित, प्रस्तुत करते हमें प्रसन्नता है। एक महान् संगीतकार होने के साथ-साथ उनका बहुत बड़ा योगदान भारतीय शास्त्रीय संगीत को विश्व संगीत में मान्यता और उचित स्थान दिलाने का बेहद सर्जनात्मक प्रयत्न रहा है।
—अशोक वाजपेयी
Mahatma Gandhi : Jeewan Aur Darshan
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Romain Rolland
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‘सत्याग्रह’ शब्द का आविष्कार गांधी जी ने तब किया था, जब वे अफ़्रीका में थे—उद्देश्य था अपनी कर्म-साधना के साथ निष्क्रिय-प्रतिरोध का भेद स्पष्ट करना। यूरोपवाले गांधी के आन्दोलन को ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ (अथवा अप्रतिरोध) के रूप में समझना चाहते हैं, जबकि इससे बड़ी ग़लती दूसरी नहीं हो सकती। निष्क्रियता के लिए इस अदम्य योद्धा के मन में जितनी घृणा है, उतनी संसार के किसी दूसरे व्यक्ति में नहीं होगी—ऐसे वीर ‘अप्रतिरोधी का दृष्टान्त संसार में सचमुच विरल है। उनके दोलन का सारतत्त्व है—‘सक्रिय प्रतिरोध’, जिसने अपने प्रेम, विश्वास और आत्मत्याग की तीन सम्मिलित शक्तियों के साथ ‘सत्याग्रह’ की संज्ञा धारण की है।
कायर मानो उनकी छाया भी नहीं छूना चाहता, उसे वे देश से बाहर निकालकर रहेंगे। आलसी और अकर्मण्य की अपेक्षा वह अच्छा है, जो हिंसा से प्रेरित है। गांधी जी कहते हैं—“यदि कायरता और हिंसा में से किसी एक को चुनना हो तो मैं हिंसा को ही पसन्द करूँगा। दूसरे को न मारकर स्वयं ही मरने का जो धीरतापूर्ण साहस है, मैं उसी की साधना करता हूँ। लेकिन जिसमें ऐसा साहस नहीं है, वह भी भागते हुए लज्जाजनक मृत्यु का वरण न करे—मैं तो कहूँगा, बल्कि वह मरने के साथ मारने की भी कोशिश करे; क्योंकि जो इस तरह भागता है, वह अपने मन पर अन्याय करता है। वह इसलिए भागता है कि मारते-मारते मरने का साहस उसमें नहीं है। एक समूची जाति के निस्तेज होने की अपेक्षा मैं हिंसा को हज़ार बार अच्छा समझूँगा। भारत स्वयं ही अपने अपमान का पंगु साक्षी बनकर बैठा रहे, इसके बदले अगर हाथों में हथियार उठा लेने को तैयार हो तो इसे मैं बहुत अधिक पसन्द करूँगा।”
बाद में गांधी जी ने इतना और जोड़ दिया— “मैं जानता हूँ कि हिंसा की अपेक्षा अहिंसा कई गुनी अच्छी है। यह भी जानता हूँ कि दंड की अपेक्षा क्षमा अधिक शक्तिशाली है। क्षमा सैनिक की शोभा है लेकिन क्षमा तभी सार्थक है, जब शक्ति होते हुए भी दंड नहीं दिया जाता। जो कमज़ोर है, उसकी क्षमा बेमानी है। मैं भारत को कमज़ोर नहीं मानता। तीस करोड़ भारतीय एक लाख अंग्रेज़ों के डर से हिम्मत न हारेंगे। इसके अलावा वास्तविक शक्ति शरीर-बल में नहीं होती, होती है अदम्य मन में। अन्याय के प्रति ‘भले आदमी’ की तरह आत्मसमर्पण का नाम अहिंसा नहीं है—अत्याचारी की प्रबल इच्छा के विरुद्ध अहिंसा केवल आत्मिक शक्ति से टिकती है। इसी तरह केवल एक मनुष्य के लिए भी समूचे साम्राज्य का विरोध करना और उसको गिराना सम्भव हो सकता है।”
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