Patanjali
Author:
Bhagwatilal RajpurohitPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
महर्षि पतंजलि भारतीय वाड़्मय के अप्रतिम प्रवक्ता थे। उन्होंने <strong>‘</strong>निदानसूत्रम्<strong>’</strong> की रचना की तो <strong>‘</strong>परमार्थसारम्<strong>’</strong> जैसा दार्शनिक ग्रन्थ भी रचा। संस्कृत भाषा और व्याकरण सम्बन्धी <strong>‘</strong>महाभाष्य<strong>’</strong> लिखा तो परम्परागत योग की धारा को समेटकर उसे <strong>‘</strong>योगसूत्रम्<strong>’</strong> के माध्यम से दार्शनिक धरातल पर भी प्रतिष्ठित किया। कहा यह भी जाता है कि उन्होंने <strong>‘</strong>चरक संहिता<strong>’</strong> का भी संस्कार किया था। उनके जो भी ग्रन्थ ज्ञात हैं<strong>, </strong>वे अपने-अपने विषय के आधार ग्रन्थ हैं जिनकी सामग्री आगे चलकर उस विषय में मार्गदर्शक सिद्ध हुई है।</p>
<p>विवरणों से यह भी ज्ञात होता है कि काव्य के क्षेत्र में भी उनका अनूठा योगदान रहा। उनकी जीवन-कथा के कई रूप मिलते हैं। उनके देशकाल के विषय में सर्वाधिक उपयोगी उनका महाभाष्य ही माना गया है। इस तथा अन्य ग्रन्थों में आए तथ्यों के अनुसार कहा जा सकता है कि पतंजलि सेनापति शुंग के समकालीन रहे थे जिनके शासनकाल को इतिहासकारों ने ईसवी पूर्व 185 से 149 तक निश्चित किया है।</p>
<p>इस पुस्तक में उनके जीवन<strong>, </strong>समय तथा कृतित्व का परिचय देते हुए उनकी उपलब्ध रचनाओं—<strong>‘</strong>योगसूत्रम्<strong>’, ‘</strong>महाभाष्यम्<strong>’, ‘</strong>निदानसूत्रम्<strong>’</strong> तथा <strong>‘</strong>परमार्थसारम्<strong>’</strong> का पाठ सानुवाद दिया गया है।
ISBN: 9788126723997
Pages: 87
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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स्वामी विवेकानन्द आगे लिखते हैं : “भारत-भूमि हमेशा विचारकों और ऋषियों से समृद्ध रही है। शंकर के पास एक महान मस्तिष्क था और चैतन्य के पास एक विशाल हृदय था और अब वह समय आ गया था जब मस्तिष्क और हृदय—इन दोनों के एक समन्वित मूर्तरूप की आवश्यकता थी—एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी, जिसके अन्दर एक ही शरीर में शंकर के चमत्कारिक मस्तिष्क और चैतन्य के आश्चर्यजनक रूप से उदार व विशाल हृदय का समावेश हो; जो प्रत्येक सम्प्रदाय में एक ही आत्मा, एक ही परमात्मा को कार्य करते हुए देखता हो; जो प्रत्येक वस्तु के अन्दर भगवान को देखता हो, जिसका हृदय इस संसार में भारतवर्ष व उसके बाहर सब जगह समस्त दीन-दुखियों, दुर्बलों, पददलितों और पीड़ितों के लिए आर्तनाद करता हो और इसके साथ ही जिसकी विशाल तीव्र बुद्धि परस्पर विरोधी विभिन्न सम्प्रदायों के बीच संगति स्थापित करनेवाले उदार विचारों की कल्पना करती हो...और उनमें संगति स्थापित करके मस्तिष्क और हृदय के एक सार्वभौम धर्म को जन्म देनेवाली हो—ऐसे मनुष्य ने जन्म लिया था।...समय उसके अनुकूल था, यह आवश्यक था कि ऐसे मनुष्य का जन्म हो, और वह आया था, और सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि उसका कर्मक्षेत्र एक ऐसी नगरी के निकट था, जो पाश्चात्य विचारों से पूर्ण थी, जो पश्चिमी विचारों के पीछे पागल हो उठी थी और जिस नगरी ने भारत के अन्य सब नगरों की अपेक्षा कहीं अधिक आचार-विचारों को अपनाया था। ऐसे स्थान में, बिना किसी किताबी ज्ञान के वह रहता था। इस महान मनीषी को अपना नाम तक भी लिखना न आता था, परन्तु हमारे विश्वविद्यालयों के बड़े-बड़े प्रतिभाशाली स्नातक उसकी बुद्धि की विराट शक्ति को देखकर दंग रह जाते थे...वह अपने समय का महान ऋषि था, जिसकी शिक्षाएँ वर्तमान समय के लिए सबसे अधिक लाभदायक हैं।”
...यदि मैं आपको एक भी सत्य बात कहता हूँ तो वह उसकी और केवल उसकी है और यदि मैंने आपसे कोई भ्रान्तिपूर्ण या ग़लत बातें कही हैं, तो वे सब मेरी अपनी हैं, उनका उत्तरदायित्व मेरे ऊपर है।’’
“जिस मनुष्य की मूर्ति की मैं यहाँ स्थापना करना चाहता हूँ, वह तीस करोड़ नर-नारियों के दो सहस्र वर्षव्यापी आध्यात्मिक जीवन का परिपूर्ण रूप है। यद्यपि चालीस वर्ष हुए, उसका देहावसान (सन् 1886) हो चुका है, तथापि उसकी आत्मा आधुनिक भारत को प्राणदान कर रही है। वह गांधी के समान कर्मवीर नहीं था, कला या विचार में गेटे व टैगोर के समान प्रतिभाशाली नहीं था। वह बंगाल के एक छोटे से गाँव का रहनेवाला ब्राह्मण था, जिसका बाह्य जीवन संकीर्ण रूढ़ियों की सीमा में आबद्ध था। उसमें उल्लेख योग्य कोई विशेष घटना न थी, और तात्कालिक सामाजिक व राजनीतिक हलचल से वह सर्वथा पृथक् था; परन्तु उसके आन्तरिक जीवन में नाना देवताओं और मानवों का एक विचित्र समावेश था। उसका अभ्यन्तरीय जीवन उस सकल शक्ति की मूलाधार स्वरूपिणी दैवी ‘शक्ति’ का अंशमात्र था, जिस दैवी शक्ति की मिथिला के प्राचीन कवि विद्यापति और बंगाल के कवि रामप्रसाद ने वन्दना की है।
—रोमां रोलां
Lahore Se Lucknow Tak
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Prakashvati Pal
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‘लखनऊ से लाहौर तक’ में श्रीमती प्रकाशवती पाल ने ऐसी अनेक ऐतिहासिक घटनाओँ और व्यक्तियों के संस्मरण प्रस्तुत किए हैं जिनसे उनका प्रत्यक्ष और सीधा सम्पर्क रहा है। संस्करण क्रम-बद्ध रूप में 1929 से शुरू होते हैं। उस वर्ष सरदार भगत सिंह ने देहली असेम्बली में बम फेंका था। लाहौर कांग्रेस में आज़ादी का प्रस्ताव भी उसी वर्ष पास हुआ था।
क्रान्तिकारी आन्दोलन में प्रकाशवती जी किशोरावस्था में ही शामिल हो गई थीं। अनेक संघर्षों और ख़तरनाक स्थितियों के बीच में चन्द्रशेखर आज़ाद, भगवती चरण, यशपाल आदि क्रान्तिकारियों के निकट सम्पर्क में आईं। एक अभूतपूर्व घटना के रूप में 1936 में उनका विवाह बन्दी यशपाल से जेल के भीतर सम्पन्न हुआ।
इन और ऐसी अनेक स्मृतियों को समेटते हुए ये संस्मरण आज़ादी की लड़ाई और बाद के अनेक अनुभवों को ताज़ा करते हैं, साथ ही अनेक राजनीतिज्ञों, क्रान्तिकारियों और प्रसिद्ध साहित्यकारों के जीवन पर सर्वथा नया प्रकाश डालते हैं। यह पुस्तक पिछले पैंसठ वर्षों के दौरान राजनीति और साहित्य के कई अल्पविदित पक्षों का आधिकारिक, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और पठनीय दस्तावेज़ है।
Issac Newton
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Dr. Preeti Srivastava
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- Description: "आइजक न्यूटन सर आइजक न्यूटन अपने समय के बड़े एवं प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों में थे। उनकी प्रसिद्धि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके बारे में कहा जाता था— प्रकृति अँधेरे में थी, प्रकृति के नियम अँधेरे में थे, तब न्यूटन पैदा हुए और चारों ओर उजाला हो गया। गुरुत्वाकर्षण का प्रसिद्ध सिद्धांत, जिसके अनुसार पृथ्वी प्रत्येक वस्तु को अपने केंद्र की ओर खींचती है, न्यूटन ने स्थापित किया था। न्यूटन का महान् ग्रंथ ‘प्रिंसिपिया’ विश्वप्रसिद्ध है, जिसमें उनके गति-नियमों (Laws of Motion) की व्याख्या है। इसके अतिरिक्त उन्होंने और भी अनेक खोजें की थीं। प्रस्तुत पुस्तक में न्यूटन के जीवन से संबंधित अनेक महत्त्वपूर्ण संदर्भों एवं घटनाओं तथा उनके स्वभाव, व्यवहार व प्रवृत्तियों का ब्योरेवार वर्णन है। विश्वास है, इसे पढ़कर पाठकगण सर आइजक न्यूटन के जीवन से संबंधित अनेक तथ्यों एवं संदर्भों को जान सकेंगे। "
Smriti Mein Jeevan
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- Description: v data-content-type="html" data-appearance="default" data-element="main">स्मृतियाँ शक्ति देती हैं और स्मृतियों के सहारे प्रतिरोध की रचना भी हुई है। आकस्मिक नहीं कि नयी शताब्दी में संस्मरण लेखन में अभूतपूर्व सक्रियता देखी गई है। गद्य की ललित विधाओं में संस्मरण का दुर्निवार आकर्षण पाठकों के साथ लेखकों में भी रहा है। फिर यह गद्य कवि का हो तो इसका आकर्षण और अधिक हो जाता है। विख्यात कवि केदारनाथ सिंह के संस्मरणों की इस कृति की रूपरेखा स्वयं कवि ने तैयार कर दी थी जो अब पाठकों के हाथ में है। यहाँ कवि का अपना जीया-देखा समय-समाज है तो अनेक विभूतियों के अंतरग और हार्दिक चित्र भी। कवि की दृष्टि उन लोगों पर भी गई है जो भले ही बड़े नाम न थे किन्तु कवि के संपर्क में आए और किसी विशिष्ट गुण अथवा गतिविधि ने कवि के मन में स्थाई आवास बना लिया। पिछली पीढ़ी के अनेक लेखकों यथा भिखारी ठाकुर, अज्ञेय, हजारीप्रसाद द्विवेदी, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, त्रिलोचन, भीष्म साहनी, रघुवीर सहाय और नामवर सिंह के संस्मरण वरेण्य खंड में दिए गए हैं। कवि के सहचर रहे श्रीकांत वर्मा, सोमदत्त, देवेंद्र कुमार बंगाली, विजय मोहन सिंह और वरयाम सिंह पर लिखे स्मृति आलेखों को दूसरे खंड में रखा गया है। तीसरे खंड में कुछ अनाम लोग हैं जिनका प्रभाव कवि पर पड़ा। ‘स्मृति में जीवन’ की ख़ास बात यह है कि केदारनाथ सिंह की उन कविताओं को भी इन संस्मरणों के साथ दे दिया गया है जिनकी संरचना में स्मृति है अथवा इन संस्मरणों से जुड़ी कोई शख़्सियत। कवि की अनुपस्थिति में ये संस्मरण कवि की नयी उपस्थिति संभव कर रहे हैं जिसके आलोक में हमारा आज और बेहतर दिखाई देता है। सम्पादक द्वय ने कवि के गद्य संसार में से स्मृति के ये ख़ास प्रसंग चुनकर पाठकों के लिए रख दिए हैं, कहना न होगा कि इन संस्मृतियों में जीवन की उष्मा भरी हुई है।
The Untouchables
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- Description: Who are the Untouchables, and what is the origin of Untouchability? These are the main topics which it is sought to be investigated, and the results of which are contained in the following pages. Before launching upon the investigation, It Is necessary to deal with certain preliminary questions. The first such question is: Are the Hindus the only people in the world who observe Untouchability? The second is: If Untouchability is observed by Non-Hindus also, how does untouchability among Hindus compare with the Untouchability study that has so far been attempted?
Asim Hai Asman
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Narendra Jadhav
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छुआछूत और जातीय अस्पृश्यता का कलंक भारत की 3500 वर्ष पुरानी जाति-व्यवस्था का शाप है, जो दुर्भाग्यवश आज भी जीवित है और समय-समय पर उफन पड़ता है। पर धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि अब वह देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक गतिशीलता के सामने अधिक समय तक टिक नहीं सकेगी।
‘असीम है आसमाँ’ ऐसे ही एक परिवार की कहानी है, जिसने लगातार जाति-व्यवस्था, निरक्षरता, अज्ञान, अन्धविश्वास तथा ग़रीबी के विरोध में संघर्ष किया।
इसमें एक परिवार की तीन पीढ़ियों के संघर्ष की कथा है जिसकी पृष्ठभूमि में भारत के स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक तथा राजनीतिक परिवर्तन की विस्तृत झाँकी मिलती
है।सन् 1993 में यह उपन्यास ‘आमचा बाप आणि आम्ही’ शीर्षक से मराठी में प्रकाशित हुआ, जो अत्यन्त लोकप्रिय रहा। तत्पश्चात् अंग्रेज़ी, फ़्रेंच तथा स्पेनिश जैसी विदेशी भाषाओं में तथा गुजराती, तमिल, कन्नड़, उर्दू और पंजाबी जैसे भारतीय भाषाओं में भी इसका अनुवाद प्रकाशित हुआ।
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