Dhara Ke Vipreet
Author:
Govind MishraPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
साहित्य के शीर्षस्थ सम्मानों से विभूषित और कई चर्चित-बहुपठित उपन्यासों-कहानियों के सर्जक गोविन्द मिश्र यहाँ प्रथम पुरुष में अपने पाठकों यानी हम सबसे सम्बोधित हैं। ‘धारा के विपरीत' उनकी आत्मकथा है। एक पारदर्शी और सहज मनुष्य की आत्मकथा जिसने अपनी संवेदना, मानवीय मूल्यों की तरफ़दारी और अपने आसपास फैले सुख-दुख को शब्द-बद्ध करने के लिए लेखक होना चुना।</p>
<p>पेशे से आयकर विभाग में उच्च पदों पर रहने वाले गोविन्द मिश्र का बचपन और किशोरावस्था सुख-सुविधा के अत्यल्प साधनों के बावजूद उदारता, अपनेपन और सामाजिक सौहार्द के जिस वातावरण में बीता, अपनी प्राकृतिक संवेदनशीलता और उचित-अनुचित के सहजबोध ने जो अनुभव उन्हें उस दौरान दिये, वे उनकी रचनात्मकता का स्थायी आधार बने। इस आत्मकथा में वे अपने जीवन से जुड़े लोगों का ज़िक्र करते हुए अपनी उन कृतियों का भी जिक्र करते चलते हैं जिनका विषय वे लोग रहे। और इनमें बचपन ही नहीं उनके वयस्क और पेशेवर जीवन में आये लोग और घटनाएँ भी हैं! प्राथमिक अनुभवों ने ही उन्हें लिखने के लिए प्रेरित किया, किसी विचार, खेमे या आग्रह ने नहीं!</p>
<p>आज़ादी से तकरीबन एक दहाई पहले जन्मे गोविन्द जी ने अपने भीतर एक साधारण भारतीय मनुष्य को हर हाल में बचाए रखा! वह मनुष्य जो अपनी मुठभेड़ों में रोज़ कुछ बड़ा होता है। लोगों की असलियतों से मिले विस्मय को संपदा की तरह सहेजकर रखता है और किसी कड़वाहट से ख़ुद को विषैला नहीं होने देता। साधारण की इस मौजूदगी को वे साहित्य सर्जना की पहली शर्त मानते भी हैं जो इस आत्मकथा में भी उपस्थित है। ‘सच बता दो तो वह कितने कलुष धो डालता है। सच में वजन होता है।’ एक जगह वे कहते हैं।</p>
<p>यह एक कल्मषरहित जीवन का निर्भार वृत्तांत है जो अपने उद्गम से समुद्र की ओर तीव्र गति से जाती नदी की तरह बहता है और उत्तरोत्तर सान्द्र होता जाता है। इसमें लेखक अपनी रचनाओं के बारे में, अफ़सर अपनी चुनौतियों के बारे में, प्रेमी अपने प्रेम के बारे में, पुरुष उन स्त्रियों के बारे में जिनका स्त्रीत्व उसे बरबस मोह लेता है, पति और पिता अपने परिवार के बारे में, दोस्त अपने दोस्तों के बारे में, साहित्यकार अपने साहित्यिक परिवेश की ख़ूबियों-खामियों के बारे में और मनुष्य अपनी मनुष्यता के बारे में अकुंठ भाव से सबकुछ बताता चलता है। और उस समय के बारे में भी जो अपनी तमाम तकनीकी, बौद्धिक और आर्थिक समृद्धि के बावजूद ठीक उसी जगह पर संकरा और कम पड़ जाता है, जहाँ उसे बड़ा और उदात्त होना चाहिए।
ISBN: 9789394902138
Pages: 168
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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– शंखो चौधुरी आधुनिक भारतीय कला के एक मूर्धन्य हैं : मूर्तिकार होने के अलावा आधुनिक कलाबोध को सक्रिय-व्यापक करने में उनकी निजी और संस्थापरक भूमिका भी रही है। वे शान्तिनिकेतन, बड़ौदा, ललित कला अकादेमी आदि से जुड़े रहे और उनकी जीवन-कथा भारत में आधुनिक कला के वितान और विस्तार की, उसकी अन्तर्भूत बहुलता, निजी और सार्वजनिक प्रसंगों की रोचक गाथा भी है। जिन कई लोगों ने शंखो दा से प्रेरणा और शिक्षा पाई, उनमें से वरिष्ठ शिल्पकार मदन लाल हैं जिन्होंने बहुत जतन से, अध्यवसाय और कल्पनाशीलता से, एक तरह से गुरु ऋण चुकाने के भाव से, यह पुस्तक तैयार की है। इसमें जो सामग्री एकत्र है वह शंखो दा के अनेक पक्षों का मार्मिक, समझदार और कलात्मक बखान और विश्लेषण करती है। मेरे जानने में हमारे अनेक मूर्धन्य कलाकारों पर ऐसी पुस्तकें कम ही हैं और हिन्दी में शायद यह पहली है।
इस पुस्तक में जीवनी, कला-विश्लेषण, संस्मरण और स्मृतियों का बहुत मानवीय और रोचक गड्डमड्ड है—उसमें कई दृष्टिकोण भी उभरते हैं जो हमें शंखो दा को समझने में कई तरह से मददगार हैं। इस समय व्यापक विस्मृति और दुर्व्याख्या का जो दौर चल रहा है, उसमें एक बड़े कलाकार को इस तरह से याद करना उस विस्मृति को प्रतिरोध देना भी है। कला हमेशा जीवन के प्रति कृतज्ञ होती है और कलाकार अपने दिशा दिखानेवाले पुरखों के प्रति। शंखो चौधुरी के प्रति यह पुस्तक कृतज्ञता-ज्ञापन है और वह उसकी प्रासंगिकता को और प्रखर करता है। रज़ा पुस्तक माला में इसे प्रस्तुत करते हुए हमें प्रसन्नता है।
—अशोक वाजपेयी
Indradhanush Ke Pichhe Pichhe
- Author Name:
R. Anuradha
- Book Type:

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लगभग छह साल पहले एक रोज़ अचानक लेखिका को पता चला कि उन्हें ब्रेस्ट कैंसर है। कैंसर जैसी बीमारी ट्यूमर चौथे स्टेज में और उसका विस्तार बगल के लिंफ नोड्स में भी। मृत्यु से इससे निकट का साक्षात्कार शायद और कुछ नहीं हो सकता। इस बीमारी ने लेखिका की दुनिया बदल दी, लेकिन उन्होंने इस जीवन का अन्त मानने से इनकार कर दिया।
लेखिका की राय में कैंसर को दुश्मन मानकर उससे किसी बाहरी संक्रमण की तरह नहीं लड़ा जा सकता। आख़िर यह एक ऐसी बीमारी है जो बाहर से नहीं आती। इसके कारण हमारे-आपके शरीर के अन्दर होते हैं।
यह किताब मृत्यु पर जीवन की विजय की कहानी है और असम्भव मान ली गई स्थितियों में जीने का सलीक़ा सिखाती है। कैंसर का पता चलने से लेकर इलाज के दौरान हुए प्रसंगों और अनुभवों को इसमें समेटा गया है। इसके सभी पात्र और घटनाएँ वास्तविक हैं, लेकिन पहचान छिपाने के लिए कुछ पात्रों के नाम बदल दिए गए हैं।
Potraj
- Author Name:
Parth Polke
- Book Type:

- Description: “मेरा बाप पोतराज था। पोतराज कमर में रंग-बिरंगे खंडों के चीथड़े तथा कपड़े पहनते हैं। पोतराज की उस पोशाक को आभरान कहते हैं। आभरान मुझे यहाँ की व्यवस्था द्वारा पोतराज को दिए हुए राजवस्त्र लगते हैं। हाँ, ऐसे राजवस्त्र जो ज़िन्दगी को चीथड़े-चीथड़े कर डालते हैं। आभरान पहनकर अपने बदन को कोड़ों से फटकारता हुआ मेरा बाप—आबा—हमारे लिए घर-घर भीख माँगता रहा। सारी ज़िन्दगी उसने पोतराज के रूप में खटते-घसीटते बिताई। आख़िर उसी में वह मरा। मरना सबको है; लेकिन यहाँ की व्यवस्था ने न जाने कितने लोगों को बिना सहमते-संकोचते, बड़े आराम से बलि चढ़ाया है। मेरे आबा उन्हीं में से एक हैं। पोतराज के जिस आभरान को उतारना आबा के लिए सम्भव नहीं हुआ, मैंने उसे उतारा। उसकी होली जलाते हुए भी मेरा मन भीतर ही भीतर आबा और बाई की यादों से बेचैन रहा। मैं उपेक्षा तथा ग़रीबी की लपटों की आँच सहनेवाले अनेकों में से एक हूँ। व्यवस्था द्वारा दी गई वेदना का साक्षी हूँ। भुक्तभोगी हूँ। ये वेदनाएँ मुझ जैसे अनेक की अनेक पीढ़ियों को चुभती रही हैं। मैं दु:खों और वेदनाओं को कुरेदते हुए जीना नहीं चाहता; लेकिन एक प्रश्न अवश्य पूछना चाहता हूँ कि यह सारा दु:ख-दर्द हमें ही क्यों भोगना पड़ता है।” ‘पोतराज’ में उपस्थित लेखक पार्थ पोलके के ये शब्द सहसा हृदय को विचलित कर देते हैं। मूल मराठी भाषा में लिखित चर्चित आत्मकथा का यह हिन्दी अनुवाद पाठकों को निश्चित रूप से एक नवीन सामाजिक दृष्टि प्रदान करेगा। सघन संवेदना, समानता के तीखे प्रश्न, अभाव के असमाप्त अरण्य और अदम्य जिजीविषा—ये तत्त्व इस रचना को महत्त्वपूर्ण बनाते हैं।
Ek Dalit Ki Aatmkatha
- Author Name:
Ram Rakshadas
- Book Type:

- Description: 15 जुलाई, 1962 को मैं किसी तरह बी.ए. पास कर गया। उस समय पूरा परिवार कर्ज में डूबा हुआ था, घर-गृहस्थी चलाने और पटना में रहकर पढ़ाई करने, पुस्तकें खरीदने के लिए रुपयों की जरूरत थी। आमदनी के नाम पर कॉलेज से मिलनेवाली छात्रवृत्ति एकमात्र साधन था। इससे मेरे और परिवार के खर्च की पूर्ति नहीं हो पाती थी, इसलिए मजबूरी में कर्ज लेना पड़ता था। थोड़ी-बहुत खेती थी, जिससे कुछ महीने का खर्च निकल जाता था। इतना ही नहीं, 5 अप्रैल, 1961 को हमारे एक लड़का भी हो गया, जिसकी परवरिश और दवा-दारू का खर्च बढ़ गया। ऐसी विकट परिस्थिति में मेरे शुभचिंतकों ने राय दी कि मुझे तुरंत नौकरी कर लेनी चाहिए; हमारी स्थिति आगे पढ़ने की नहीं है । सामने पुस्तकें खुली रहती थीं और आँखों के सामने पत्नी का मलिन चेहरा मानसपटल पर कौंध जाता था। पत्नी चाहकर भी मेरी पढ़ाई में बाधक बनना नहीं चाहती थी। मेरे मन में तूफान मचा हुआ था। एक तरफ घर की माली हालत को दुरुस्त करना और दूसरी ओर अपने अरमानों तथा लक्ष्यों को प्राप्त करना, दोनों जरूरी कार्य थे। दोनों की राहें जुदा थीं। एक को छोड़ना ही पड़ेगा। इसी पुस्तक से- संघर्षों, कष्टों और अभावों से जूझकर अपनी अदम्य इच्छाशक्ति तथा जिजीविसाह के बल पर पढ़ाई पूरी कर जीवन में सफलता प्राप्त करने की प्रेरणाप्रद आत्मकथा।
Samarnanjali
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
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युगदृष्टा रामधारी सिंह ‘दिनकर’ अपने समकालीनों की चर्चा करना बहुत नाजुक काम मानते थे, लेकिन समकालीनों पर लिखने पर उनको सुखद अनुभूति भी होती थी।
‘स्मरणांजलि’ दिनकर जी के मित्रों और समकालीन महापुरुषों, जिन्होंने उनके हृदय पर अमिट छाप छोड़ी, के विषय में निबन्धों और यात्रा–संस्मरणों की अनूठी कृति है।
इस पुस्तक में देश के प्रख्यात विद्वानों–साहित्यकारों और राजनेताओं के अन्तरंग जीवन की झाँकियाँ हैं तथा उनके अनजाने रूप, देश की राजनीति को प्रभावित करनेवाले प्रसंगों और उन मानवीय गुणों का भी इसमें उद्घाटन हुआ है जिन्होंने इन विभूतियों को सबका श्रद्धास्पद बना दिया।
यह पुस्तक जहाँ एक तरफ़—राजर्षि टंडन, राजेन्द्र प्रसाद, काका साहब कालेलकर, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन्, लालबहादुर शास्त्री, लोहिया साहब, डॉ. जाकिर हुसेन, श्रीकृष्ण सिंह, पुण्यश्लोक जायसवाल, राहुल सांकृत्यायन, पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी, आचार्य रघुवीर, पंडित किशोरीदास वाजपेयी, आचार्य शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, डॉ. लक्ष्मीनारायण ‘सुधांशु’, पंडित वंशीधर विद्यालंकार, नलिन विलोचन शर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानन्दन पंत, महादेवी वर्मा, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, हरिवंश राय ‘बच्चन’—इन विभूतियों का परिचय देती है, वहीं राष्ट्रकवि दिनकर की यूरोप, जर्मनी, चीन और मॉरिशस यात्रा का रोचक वर्णन भी करती है।
संस्मरणात्मक निबन्धों और महत्त्वपूर्ण यात्रा–वृत्तान्तों से सुसज्जित, सरस भाषा–शैली में लिखित यह पुस्तक अमूल्य है।
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