Atirikta Sataren
Author:
Anita RakeshPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
‘चन्द सतरें और’, ‘सतरें और सतरें’, ‘अन्तिम सतरें’ और अब यह ‘अतिरिक्त सतरें’—यह शृंखला अनीता राकेश की उन यादों का सफ़र है, जिन्हें उन्होंने मोहन राकेश के साथ बिताए अपने जीवन में सँजोया। इस सफ़र में उन्होंने अपनी उन ख़ुशियों, चुनौतियों, परेशानियों और दु:खों का बेबाक वर्णन किया है जो उनके आजीवन अनुभव का हिस्सा होकर रह गए।</p>
<p>राकेश से मुलाक़ात के समय वह स्वयं लेखक नहीं थीं, लिखना उन्होंने बाद में शुरू किया, जिसके पीछे कुछ राकेश की प्रेरणा का बल था, और कुछ नए अनुभवों की अतिरिक्त का आवेग। परिणाम यह कि कहानीकार के रूप में भी उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई, लेकिन ज़्यादा वक़्त नहीं बीता कि मोहन राकेश अकाल ही हमसे और उनसे विदा हो गए। यह घटना उनके लिए एक बड़ी त्रासदी थी जिससे उबरने की प्रक्रिया में ही इन पुस्तकों <br>की रचना सम्भव हुई और अनीता जी के लिए यह प्रक्रिया आज दशकों बाद भी जारी है।</p>
<p>‘अतिरिक्त सतरें’ में उन्होंने वापस उन दिनों को टटोला है जब वे राकेश से मिलीं, उनको समझना शुरू किया और अन्तत: एक सपने के सच होने की तरह वे एक हो गए।</p>
<p>उम्मीद है सतरें-शृंखला की अन्य पुस्तकों की तरह यह कड़ी भी पाठकों को अपने मन के नज़दीक लगेगी।
ISBN: 9788183618977
Pages: 63
Avg Reading Time: 2 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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17 मार्च, 1983 को लन्दन के हाईगेट कब्रिस्तान में कार्ल मार्क्स की कब्र पर बोलते हुए उनके दोस्त फ्रेडरिक एंजिल्स ने कहा था, “तमाम पीड़ा और पीड़ादायकों की कटु आलोचनाओं को यूँ तो कार्ल मार्क्स अनदेखा ही करते थे। जवाब तभी देते थे जब अत्यन्त जरूरी हो जाए। लोगों का प्यार और उनसे मिलनेवाली प्रतिष्ठा के बीच उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा। साइबेरिया से लेकर कैलिफोर्निया और यूरोप से लेकर अमेरिका तक में लोगों ने शोक मनाया। मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि उनकी जिन्दगी में उनके हजारों विरोधी थे लेकिन उनमें एक भी उनका व्यक्तिगत शत्रु नहीं था।” डी. पी. त्रिपाठी के जाने पर भी कुछ ऐसा ही हुआ था। डी. पी. मार्क्स नहीं थे लेकिन दोनों के बीच एक बात में तो साम्य अवश्य है कि डी. पी. त्रिपाठी के जीवन में भी कोई उनका शत्रु नहीं था। वे अजातशत्रु थे। उनके पास विभिन्न संगठनों और राजनीतिक दलों के साथ बेहतर रिश्ता बनाने और कायम रखने का हुनर तो था ही, अपनी प्रतिबद्धताओं और सरोकारों के प्रति हमेशा सचेत रहना भी उन्हें अलहदा दर्जे का अधिकारी बनाता है।
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राजकपूर, नेहरू युग के प्रतिनिधि फ़िल्मकार माने जाते हैं, जैसे कि शास्त्री-युग के मनोज कुमार। इन्दिरा गांधी के युग के मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा।
आज़ाद भारत के साथ ही राजकपूर की सृजन-यात्रा भी शुरू होती है। उन्होंने 6 जुलाई, 1947 को ‘आग’ का मुहूर्त किया था और 6 जुलाई, 1948 को ‘आग’ प्रदर्शित हुई थी। भारत की आज़ादी जब उफक पर खड़ी थी और सहर होने को थी, तब राजकपूर ने अपनी पहली फ़िल्म बनाई थी। ‘आग’ आज़ादी की अलसभोर की फ़िल्म थी, जब ग़ुलामी का अँधेरा हटने को था और आज़ादी की पहली किरण आने को थी। ‘आग’ में भारत की व्याकुलता है, जो सदियों की ग़ुलामी तोड़कर अपने सपनों को साकार करना चाहता है। राजकपूर की आख़िर फ़िल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ 15 अगस्त, 1985 को प्रदर्शित हुई। इस फ़िल्म में राजकपूर ने उस कुचक्र को उजागर किया है, जो कहता है कि पैसे से सत्ता मिलती है और सत्ता से पैसा पैदा होता है। इस तरह राजकपूर ने अपनी पहली फ़िल्म ‘आग’ से लेकर अन्तिम फ़िल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ तक भारत के जनमानस के प्रतिनिधि फ़िल्मकार की भूमिका निभाई है।
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बिज्जी ताउम्र बोरूंदा में रहे, वहीं एक प्रेस स्थापित किया, प्रणपूर्वक राजस्थानी में लिखा और अपने गाँव में अपने प्रगतिशील, आधुनिक विचारों और नास्तिकता के बावजूद विरोधी भले माने गए हों, ‘बाहरी’ कभी नहीं माने गए।
चौदह खंडों में ‘बातां री फुलवाड़ी’ रचकर उन्होंने भारतीय और विश्वसाहित्य के इतिहास में जिस युगान्तकारी परिवर्तन का सूत्रपात किया था, वह अब भी हिन्दी पाठकों को अपनी समग्रता में उपलब्ध नहीं था। बिज्जी के स्नेहाधिकारी और द्विभाषी लेखक मालचन्द तिवाड़ी उसके बड़े हिस्से का अनुवाद करने के लिए एक साल तक बिज्जी के साथ बोरूंदा में रहे, वही एक साल जो बिज्जी के जीवन का अन्तिम एक साल सिद्ध हुआ। इस डायरी में बिज्जी का वह पूरा साल है जब वे शारीरिक रूप से परवश होकर अपनी स्वभावगत सक्रियता का अनन्त भार अपने मन पर सँभाले रोग-शय्या पर थे।
यह भी एक अर्थ-बहुल विडम्बना है कि बिज्जी के शाहकार का अनुवाद एक ऐसे लेखकीय आत्म के हाथों सम्पन्न हुआ जो इस डायरी-वृत्तान्त में एक आस्तिक ही नहीं, एक पूर्व-आधुनिक की तरह प्रस्तुत है। इस डायरी-वृत्तान्त को पढ़ना, डायरीकार को पढ़ना दरअसल बिज्जी के अपने रचे समाज को, उनके कथा-संसार को पढ़ना है जिसके साथ बिज्जी के द्वन्द्वात्मक लेकिन करुणामय सम्बन्ध का एक उदाहरण इस डायरीकार के साथ बिज्जी का—और बिज्जी के साथ डायरीकार का—अपना निजी, जटिल और रागात्मक सम्बन्ध है।
Satrein Aur Satrein
- Author Name:
Anita Rakesh
- Book Type:

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Description:
यह पुस्तक कथाकार मोहन राकेश के बारे में है जिसे लिखा है—अनीता राकेश ने। यह अनीता जी के अपने बारे में भी है; राकेश जी से उनके रिश्ते के बारे में भी। और इसकी विशेषता है, एक ऐसी क़लम से लिखा जाना जिसने लिखा बहुत कम, और जिया बहुत ज़्यादा। यही वजह है कि आप इसे एक ही बैठक में पढ़ने को बाध्य हो जाते हैं।
मोहन राकेश का अपना जीवन अनेक विडम्बनाओं, दु:खों और परेशानियों में बीता, उनका वैवाहिक जीवन कभी उस तरह सन्तोषजनक नहीं रहा, जैसे सामान्यत: लोगों का होता है। अनीता जी ने जब उनके जीवन में क़दम रखा, तब वे उनसे बहुत छोटी थीं, बहुत लम्बे समय उनके साथ रह भी नहीं पाईं। इससे पहले कि उनके रिश्ते एक स्थिर जीवन में बदलते, राकेश दुनिया छोड़ गए।
इस किताब में उन पेचीदगियों का वर्णन है जिससे कुछ समय के साथ के दौरान, ख़ासकर अनीता जी गुज़रीं, और राकेश भी। इसके बाद उस समय की कथा है जब वे अचानक अकेली रह गईं। एक तरफ़ भावनात्मक अकेलापन और दूसरी तरफ़ जीवन की व्यावहारिक चुनौतियाँ। इस किताब के पन्नों पर इस सबको बिना किसी आलंकारिकता के प्रस्तुत कर दिया गया है।
यह इस संस्मरण शृंखला की दूसरी पुस्तक है। इसमें हम मोहन राकेश के बारे में जितना जान पाते हैं, उतनी ही उस दौर के साहित्यिक माहौल के बारे में भी, और उतना ही मनुष्य जीवन की विकट सच्चाइयों के बारे में भी।
Ek Shamsher Bhi Hai
- Author Name:
Doodhnath Singh
- Book Type:

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Description:
‘शमशेर बहादुर उन कवियों में रहे जो लगातार अपनी कविता के प्रति सजग और समर्पित भी रहे। राजनीति की दृष्टि से बहुत ज़्यादा सक्रिय तो वह नहीं रहे और एक उनकी कविता में निहित मूल्य-दृष्टि में और उनकी घोषित राजनीति में, राजनीतिक दृष्टि में लगातार एक विरोध भी रहा। वह प्रगतिवादी आन्दोलन के साथ रहे लेकिन उसके सिद्धान्तों का प्रतिपादन करनेवाले कभी नहीं रहे। उन सिद्धान्तों में उनका पूरा विश्वास भी कभी नहीं रहा। उन्होंने मान लिया कि हम इस आन्दोलन के साथ हैं, और स्वयं उनकी कविता है, उसका जो बुनियादी संवेदन है, वह लगातार उसके बाहर और उसके विरुद्ध भी जाता रहा। वह शायद एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, उनके जीवन का, उनके कवि का विकास इस तरह से हुआ। पहले वह चित्रकार थे या उन्होंने दीक्षा चित्रकर्म में ली।’ उसमें भी लगातार उनकी दृष्टि बिम्बवादी-दृष्टि रही और काव्य में उनका बल इस पक्ष पर रहा। उनके प्रिय कवि भी ऐसे ही रहे हैं। इससे कभी मुक्त होना न उन्होंने चाहा, न वह हुए। हम चाहें तो उन्हें रूमानी और बिम्बवादी कवि भी कह सकते हैं, कभी इसके बाहर वह नहीं गए। मेरा ख़याल है कि उनके चित्रों और उनकी कविताओं में बराबर सम्बन्ध रहा है। और उस स्तर को उनके घोषित राजनीति विश्वास ने कभी छुआ ही नहीं। अगर उनसे पूछा जाता कि आप राजनीति में किस दल के साथ हैं, तो वह कहते कि मैं प्रगतिवादियों के साथ हूँ। अब आप इसका जो अर्थ चाहें लगा सकते हैं। इसे विभाजित व्यक्तित्व मैं तब कहता जबकि उनकी चेतना में उसका असर होता। उसमें भी दो खंड हो जाते। वैसा शायद हुआ नहीं। शमशेर तो पहली बार वहाँ (‘तार-सप्तक’ में) रखे भी गए थे, फिर उनको दूसरे के लिए रख लिया गया, क्योंकि उनकी कविताएँ बहुत कम मिल पाई थीं। दो-एक पेटियाँ भरकर कविताएँ तो उनके पास पड़ी होंगी, लेकिन ख़ुद उनको अपनी ख़बर नहीं थी। जब यह काम हुआ तो उन्हें लाया जा सका।
—अज्ञेय
Sapnon Ka Saudagar | Hindi Translation of Karma's Child Subhash Ghai: The Story of Indian Cinema's Ultimate Showman
- Author Name:
Subhash Ghai::Shri Suveen Sinha
- Book Type:

- Description: सुभाष घई भारतीय सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित फिल्म निर्माताओं में से एक हैं। 1976 से 2008 के बीच उन्होंने सोलह फिल्में बनाईं, जिनमें से बारह -कालीचरण, कर्ज, विधाता, हीरो, कर्मा, राम लखन, मेरी जंग, सौदागर, खलनायक, परदेस, ताल और यादें- बड़ी हिट रहीं, जबकि बाकी फिल्मों को भी समीक्षकों की सराहना मिली। घई की फिल्मों की विशेषता उनकी दमदार कहानियाँ, यादगार संगीत और भव्यता थी। उन्होंने अपनी फिल्मों में बड़े सितारों के साथ-साथ नए चेहरों को भी मौका दिया, जो आगे चलकर बॉलीवुड में बड़ा नाम बने। अपने अनोखेपन से उन्होंने दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींचा, खासकर उस दौर में जब वीडियो पायरेसी अपने चरम पर थी। वे भारत में पहले फिल्म निर्माता थे, जिन्होंने फिल्म का संगीत ऑडियो सीडी पर रिलीज किया। साथ ही उन्होंने हिंदी सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक साधारण पृष्ठभूमि से आकर उन्होंने सफलता की बुलंदियों को छुआ। उन्होंने यह साबित किया कि मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में हर दिन किस्मत बिगड़ती है तो बनती भी है। आज वे व्हिस्लिंग वुड्स फिल्म संस्थान चलाते हैं, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेजने लायक विरासत है। सुवीन सिन्हा की लिखी पुस्तक -'सपनों का सौदागर' एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जो सुभाष घई की तरह ही अपनी किस्मत लिखना चाहता है।"
Patthar Aur Parchhaiyan
- Author Name:
Markandey
- Book Type:

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Description:
इस एकांकी-संग्रह में आठ एकांकी हैं जिनके द्वारा मार्कण्डेय की आन्तरिक और बाह्य दोनों द्वन्द्वों और चिन्ताओं को समझा जा सकता है। इन एकांकियों में भी कहानियों की तरह सामाजिक पृष्ठभूमि में हमारा आज का जीवन और समस्याएँ हैं। बड़ी विशेषता यह है कि वह नाटक—बल्कि एकांकी-जैसी विधा को गाँव की ओर ले जाते हैं! क्योंकि मार्कण्डेय यह महसूस करते थे कि ग्रामीण जीवन-सन्दर्भों में परिवर्तन की प्रक्रिया बहुत धीमी या नहीं के बराबर ही रही है, इसलिए ग्राम-चेतना अपने प्राचीन अवदानों से चिपकी है। उसने अनेक कारणों से वाचिक पद्धति द्वारा ही अपनी संस्कृति को अपनी आगामी पीढ़ी तक सम्प्रेषित किया है।
एकांकी को गाँव की ओर ले जाने से उनके सामने चुनौतियाँ भी बढ़ी हैं—विषय की, नाट्य-शिल्प की, भाषा की, रंग-शैली की, पात्र, कथानक सबकी। आज जो सवाल उठे हुए हैं—गाँव के, जनता के, आम आदमी और जनचेतना के, क्या ये एकांकी उन सवालों को पूरा कर पाएँगे? लोकभाषा, लोकनाटक, लोकमंत्र, नुक्कड़ नाटक जैसी स्थितियों से भी वह गुज़रना चाहते हैं हालाँकि वह हिन्दी रंगमंच की स्थिति को भी अच्छी तरह समझ ही रहे थे।
1956 में पहली बार प्रकाशित ‘पत्थर और परछाइयाँ’ पुस्तक में छह एकांकी ‘डंका बुआ’ और ‘रसोईघर’ जोड़े गए हैं। उम्मीद है कि पाठकों के ऊपर यह एकांकी-संग्रह अलग अन्तर्वस्तु और भाषा-शैली के साथ छाप छोड़ने में सफल होगा।
Leela Purshottam Bhagwan Srikrishna : Vyaktitva Aur Darshan
- Author Name:
Jairam Mishra
- Book Type:

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Description:
भगवान श्रीकृष्ण सनातन, अविनाशी, सर्वलोक स्वरूप, नित्य शासक, रणधीर एवं अविचल हैं। भीष्म पितामह की इस मान्यता के बाद द्रौपदी का यह कथन, ‘हे सच्चिदानन्द-स्वरूप श्रीकृष्ण महायोगिन विश्वात्मन्, गोविन्द, कौरवों के बीच कष्ट पाती हुई मुझ शरणागत अबला की रक्षा कीजिए।’ श्रीकृष्ण के सर्वमान्य एवं सर्वव्यापी चरित्र की एक झलक मात्र प्रस्तुत करता है। सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में ऐसा बहुआयामी तथा लोकरंजक दूसरा चरित्र नहीं है।
प्रस्तुत पुस्तक में भगवान कृष्ण के लीलाधाम स्वरूप का विस्तृत विवेचन इस तरह प्रस्तुत किया गया है जिससे पाठक उनके लौकिक तथा दार्शनिक पक्षों को सहज ही हृदयंगम कर सकेंगे। लीलाधर भगवान् श्रीकृष्ण के क्रिया-कलापों के संक्षिप्त विवरण उनके पूरे जीवन-विस्तार से इस तरह चुने गए हैं कि उनका एक मनोहारी सर्वव्यापी और सम्पूर्ण चरित्र लोगों के सामने समुपस्थित हो सके। श्रीकृष्ण सम्बन्धी अनन्त एवं अपार कथा-सागर से कोई भी लेखक कुछ बूँदें ही चुन सकता है। शर्त व्यक्ति अथवा लेखक की अपनी धारणा का है। विश्वरूप श्रीकृष्ण में वह सब है जो समस्त प्रकृति अथवा मनुष्य के प्रज्ञान में संचित है। ज्ञेय अथवा अज्ञेय स्वरूप के सम्पूर्ण व्याख्यान की क्षमता बेचारे मनुष्य में कहाँ है। वह अपनी जिज्ञासा के अनुसार उस विश्वव्यापी चरित्र का एक नन्हा आयाम ही देख पाया है।
पं. जयराम मिश्र ने एक विनम्र जिज्ञासु की तरह कृष्ण के सच्चिदानन्द, विश्वात्मन् स्वरूप को इस पुस्तक में प्रस्तुत कर हिन्दी पाठकों की महती सेवा की है तथा भारतीय संस्कृति और संज्ञान को सर्व सुलभ बनाया है।
Maharshi Vitthal Ramji Shinde : Jeevan Aur Karya
- Author Name:
G.M. Pawar
- Book Type:

- Description: Awating description for this book
Inside Chhattisgarh: A Political Memoir
- Author Name:
Ilina Sen
- Book Type:

- Description: For thirty years, until his conviction in 2010 by the High Court, pediatrician Binayak Sen and his sociologist wife Ilina worked among people in Chhattisgarh's tribal heartland. They came here seeking fresh ideas for change—and stayed on. This fascinating memoir illuminates their journey and how their world imploded. Ilina vividly describes their years at the trade union CMSS, led by the iconic Shankar Guha Niyogi, where Binayak and three doctors started a hospital and she organized workers' education, joined the feisty women mine-workers' struggles and discovered the rich local history, cultural and farming traditions. These experiences later found expression in Rupantar, their own NGO and when the new state's government sought their advice for its women's policy and for Mitanan, a precursor of the national rural health mission. Candid and deeply felt, the book celebrates Chhattisgarh but also laments the lost opportunity for its inclusive and violence-free development.
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