KASHMIR : Bharat-Pakistan Sambandhon ke Aaine Mein
Author:
Sisir GuptaPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 960
₹
1200
Available
अगस्त-सितंबर 1965 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध की मुख्य सीख यह थी कि प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देनेवाली अराजकता की पृष्ठभूमि में आज एक अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था कार्यरत है, जो मँझली एवं छोटी शक्तियों को बल प्रयोग द्वारा मुद्दों के समाधान की अनुमति प्रदान नहीं करती है। आज की दुनिया में ऐसी अवस्था को दृष्टिगत करना कठिन है, जहाँ शत्रु को सफलतापूर्वक परास्त करने के उपरांत भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी के भी द्वारा शांति की शर्तों का निर्धारण किया जाए।
प्रस्तुत पुस्तक में भारत के विभाजन-काल की परिस्थितियों, जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत में विलय मामले पर संयुक्त राष्ट्र में चर्चा, द्विपक्षीय वार्त्ताओं और इस मुद्दे पर महाशक्तियों के रुख तथा जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटने के बाद की बदली परिस्थिति, विकास कार्य एवं जम्मू- कश्मीर पुनरुत्थान आदि का विस्तृत और निष्पक्ष विवरण है। संबंधित पक्षों पर नेताओं, विशेषज्ञों की टिप्पणियाँ और प्रेस के उद्धरण पुस्तक को और भी पठनीय बनाते हैं।
कश्मीर में रुचि रखने वाले शोधकर्ताओं, प्राध्यापकों के साथ-साथ अन्य पाठकों के लिए भी यह पुस्तक रोचक और ज्ञानवर्धक है।
ISBN: 9789394534322
Pages: 546
Avg Reading Time: 20 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, ‘प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना साहित्य का इतिहास कहलाता है।’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत है कि ‘साहित्य का इतिहास ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के उद्भव और विलय की कहानी नहीं है, वह काल स्रोत में बहे आते हुए जीवन्त समाज की विकास कथा है।’ हिन्दी के इन दोनों मूर्धन्य विचारकों की परिभाषाओं से स्पष्ट है कि साहित्य जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिम्ब है।
चित्तवृत्तियाँ समय एवं काल के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। अतएव साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता रहता है। इन परिस्थितियों के आलोक में साहित्य की इस विकासशील प्रवृत्ति को प्रस्तुत करना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है। कहना न होगा कि साहित्य का विश्लेषण, अध्ययन केवल साहित्य एवं साहित्यकार तक सीमित रखकर नहीं किया जा सकता। साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों की प्रस्तुति के लिए उससे सम्बन्धित राष्ट्रीय परम्पराओं, सामाजिक परिस्थितियों, आर्थिक परिस्थितियों, उस युग की चेतना, साहित्यकार की प्रतिभा तथा प्रवृत्ति का विश्लेषण आवश्यक है। देशकाल परिस्थिति भेद से समाज का स्वरूप परिवर्तित होता रहता है, साहित्य समाज का ही प्रतिबिम्ब होता है। स्पष्टतः समाज के स्वरूप के परिवर्तन का प्रभाव साहित्य पर पड़ता है। इस प्रकार साहित्य का इतिहास न केवल विकासशील प्रक्रिया का उद्घाटन करता है, बल्कि इस क्रम में नए और पुराने संघर्ष को भी रेखांकित करता चलता
है।इसके अतिरिक्त इसमें साहित्य एवं समाज को प्रभावित करनेवाले विभिन्न आन्दोलनों, परिवर्तनों और प्रयोगों के सम्बन्ध का भी विवेचन होता है। साहित्य के इतिहास में रचना और रचनाकार की सृजनात्मक क्षमता को वर्तमान की कसौटी पर कसा जाता है। विश्वम्भर मानव के शब्दों में, ‘किसी भाषा में उस साहित्य का इतिहास लिखा जाना उस साहित्य की समृद्धि का परिणाम है। साहित्य के इतिहास को वह भित्तिचित्र समझिए जिसमें साहित्यिकों के आकृति-चित्र नहीं होते, हृदय-चित्र और मस्तिष्क-चित्र ही होते हैं।’
—इसी पुस्तक से
Hindi Anusandhan
- Author Name:
Vijaypal Singh
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- Description: स्वातंत्र्योत्तर काल में हिन्दी साहित्य की सभी विधाओं ने एक परिपक्वता और प्रौढ़ता प्राप्त की है। प्रसिद्ध समालोचक डॉ. विजयपाल सिंह की महत्त्वपूर्ण कृति ‘हिन्दी अनुसन्धान’ से यह स्पष्ट हो जाता है कि साहित्यिक शोध ने भी एक वैज्ञानिक परिष्कार पा लिया है। शोध सम्बन्धी पद्धति और प्रक्रिया का वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक ज्ञान प्रस्तुत करने के साथ ही ‘हिन्दी-अनुसन्धान’ में पहली बार शोध की दो नवीन प्रणालियों-लोकतात्त्विक शोध व भाषातात्त्विक शोध पर विचार किया गया है। डॉ. विजयपाल सिंह का यह समसामयिक अध्ययन साहित्य के अध्येताओं और छात्रों के लिए सदा ही उपयोगी साबित होगा।
Ramvilas Sharma
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Namvar Singh
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Description:
रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के कृतित्व की विकास-यात्रा में एक-दूसरे की अपरिहार्य भूमिका और उपस्थिति को महसूस किया जा सकता है। यदि नामवर सिंह नहीं होते तो सम्भवतः रामविलास शर्मा के कृतित्व की विशिष्टता, उनकी उपलब्धि और मूल्यांकन कुछ और प्रतीत होते। उसी तरह रामविलास शर्मा की अनुपस्थिति में नामवर सिंह का व्यक्तित्व और कृतित्व शायद कुछ और प्रतीत होता।
रामविलास शर्मा और नामवर सिंह जीवन, संस्कृति, साहित्य और राजनीति से जुड़ी यात्रा में ‘हमराही' से हैं। दोनों एक-दूसरे के चिन्तन और समालोचना को गहराई से प्रभावित करते प्रतीत होते हैं। शीर्षस्थ समीक्षकों ने एक-दूसरे को प्रभावित करने के साथ-साथ एक-दूसरे का मूल्यांकन भी किया है।
सच तो यही है कि रामविलास शर्मा के कृतित्व, उपलब्धि, प्रासंगिकता और सीमाओं का बोध साहित्य-जगत को लगभग उतना ही है, जितना नामवर सिह ने अपनी समीक्षा से प्रस्तुत किया है। तथ्य है कि आज भी हम रामविलास शर्मा के कृतित्व को ‘...केवल जलती मशाल’ और ‘इतिहास की शव-साधना’ के दो ध्रुवान्तों के मध्य ही विश्लेषित करने को मजबूर हैं। रामविलास शर्मा के सन्दर्भ में यह नामवर सिह की समीक्षा की अपरिहार्यता और केन्द्रीयता का दुर्निवार तथ्य और प्रमाण हैं।
रामविलास शर्मा को समीक्षित करने के क्रम में यह संस्कृति, भारतीयता, साहित्य, आलोचना, विचारधारा और अन्ततः जीवन को समीक्षित करनेवाली अपरिहार्य एवं अविस्मरणीय समालोचना पुस्तक प्रतीत होती है।
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