Upniveshvad Ka Samana
Author:
Irfan HabibPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Short-story-collections0 Reviews
Price: ₹ 796
₹
995
Available
‘उपनिवेशवाद का सामना’ लेखों का एक संकलन है जिसे प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब ने सम्पादित किया है, जिसके लिए उन्होंने विशेष रूप से एक भूमिका भी लिखी है। यह संकलन 1798 में अंग्रेज़ी फ़ौजों से लड़ते हुए टीपू सुलतान की शहादत की दूसरी शताब्दी पर सुलतान को दी गई एक श्रद्धांजलि है। हैदर अली और टीपू सुलतान के शासनकाल में मैसूर के इतिहास पर लिखे गए इन लेखों में वे लेख शामिल हैं जो 1935 में सामान्यत: भारतीय इतिहास कांग्रेस के वार्षिक सत्रों में प्रस्तुत किए गए थे : कुछ लेख ऐसे भी हैं जो विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। ये लेख उन दो शासकों की स्मृति को सुरक्षित रखने की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं जो उपनिवेशी शासन के घोर विरोधी थे। ये लेख हमें याद दिलाते हैं कि हमारे राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने हमारे अतीत को जिस तरह से समझा था उसमें हैदर अली और टीपू सुलतान को सम्मान का स्थान प्राप्त है। इन सुलतानों के योगदान को महत्त्वहीन बतानेवाली एक समकालीन प्रवृत्ति के विरोध में ये लेख विशेष रूप से प्रासंगिक दिखाई पड़ते हैं।
ISBN: 9789360866549
Pages: 244
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Kuchchi Ka Kanoon
- Author Name:
Shivmurti
- Book Type:

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Description:
शिवमूर्ति की कहानियों का जितना साहित्यिक महत्त्व है, उतना ही समाजशास्त्रीय भी। आप उन्हें गाँव के ‘रियलिटी चेक’ के रूप में पढ़ सकते हैं। उनमें गाँव का वह सकारात्मक पक्ष भी है जिसे हम गाँव की थाती कहते हैं और वह नकारात्मक भी जो गाँव ने पुराना होते जाने के क्रम में धीरे-धीरे अर्जित किया। यथार्थ की इस समृद्धि की ओर ध्यान तब जाता है जब हम देखते हैं कि शिवमूर्ति गाँव और उनमें बसे मनुष्यों को गहन आत्मीयता देने के बावजूद इस परिवेश में व्याप्त संकट, दुख, विषमता और विसंगति को दृष्टि-ओझल नहीं होने देते। वे वहाँ व्याप्त आत्मविनाशी प्रवृत्तियों और लोकाचार के कारकों की शिनाख़्त करते हुए उन पर प्रहार करते हैं। इस तरह शिवमूर्ति की कहानियाँ ग्रामीण समाज के जातिवाद, राजनीतिक क्षरण, धर्मभीरुता, स्त्री-दमन और ताक़त की हिंसा का प्रतिपक्ष बनती हैं।
‘बनाना रिपब्लिक’ कहानी की उपलब्धि यह है कि वह दलित चेतना को उनकी मुक्ति की राह के रूप में सामने लाती है और पंचायत चुनाव की परिणति कैरेबियन देशों के ‘बनाना रिपब्लिक’ में रिड्यूस हो जाने की आशंका को निर्मूल कर देती है। मतदान प्रक्रिया का जैसा उत्खनन यह कहानी करती है वह देर तक स्तब्ध किए रहता है। ‘कुच्ची का क़ानून’ गाँव के गहरे कुएँ से बाहर जाते रास्ते की कहानी है जिसे कुच्ची नाम की एक युवा विधवा अपनी कोख पर अपने अधिकार की अभूतपूर्व घोषणा के साथ प्रशस्त करती है। वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी के शब्दों में, “एक भी ऐसा समकालीन रचनाकार नहीं है जिसके पास कुच्ची जैसा सशक्त चरित्र हो। यह चरित्र निर्माण क्षमता शिवमूर्ति को बड़ा कथाकार बनाती है।’’
‘ख़्वाजा ओ मेरे पीर!’ एक विरल-कथा है जिसमें स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के एक दारुणपक्ष को रेखांकित करते हुए उस करुणा के अविस्मरणीय बिम्ब रचे गए हैं जो नागर सभ्यता में शायद ही कहीं देखने को मिलें। संग्रह की अन्तिम कहानी ‘जुल्मी’ 1970 के आसपास लिखी गई शुरुआती रचना है। इसे इस आग्रह के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है कि पाठक देखें, उनका प्रिय कथाकार अपनी रचना-यात्रा में कहाँ से कहाँ तक पहुँचा है?
निश्चय ही ‘कुच्ची का क़ानून’ की कहानियों से गुज़रकर आप शिवमूर्ति को सूचित करना चाहेंगे कि वे एक जन्मजात कथाकार हैं जिनके होने पर कोई भी भाषा गर्व कर सकती है।
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