Mansarover : Vols. 1-8

Mansarover : Vols. 1-8

Authors(s):

Premchand

Language:

Hindi

Pages:

2400

Country of Origin:

India

Age Range:

18-100

Average Reading Time

4800 mins

Buy For ₹1200

* Actual purchase price could be much less, as we run various offers

Book Description

जब हम एक बार लौटकर हिन्दी कहानी की यात्रा पर दृष्टि डालते हैं और पिछले सत्तर-अस्सी वर्षों के सामाजिक विकास की व्याख्या करते हैं, तो अगर कहना चाहें तो बहुत सुविधापूर्वक कह सकते हैं कि कहानी अब तक प्रेमचन्द से चलकर प्रेमचन्द तक ही पहुँची है। अर्थात् सिर्फ़ प्रेमचन्द के भीतर ही हिन्दी कहानी के इस लम्बे समय का पूरा सामाजिक वृत्तान्त समाहित है। समय की अर्थवत्ता जो सामाजिक सन्दर्भों के विकास से बनती है, वह आज भी, बहुत साधारण परिवर्तनों के साथ जस की तस बनी हुई है। आप कहेंगे कि क्या प्रेमचन्द के बाद समय जहाँ का तहाँ टिका रह गया है? क्या समय का यह कोई नया स्वभाव है? नहीं, ऐसा नहीं। फिर भी सन्दर्भों के विकास की प्रक्रिया जो सांस्थानिक परिवर्तनों से ही रेखांकित होती है और समय ही उसका कारक है, वह नहीं के बराबर हुई। आधारभूत सामाजिक बदलाव नहीं हुआ। इस लम्बे काल में नया समाज नहीं बन पाया। धार्मिक अन्धविश्वास और पारम्परिक कुंठाएँ जैसी की तैसी बनी रहीं। भूमि-सम्बन्ध नहीं बदले। अशिक्षा और सामाजिक कुरीतियों का अन्धकार लगातार छाया रहा।</p> <p>यत्र-तत्र परिस्थितियों और परिवेश के साथ ही सामान्य सामाजिक परिवर्तन अथवा मनोवैज्ञानिक बारीकियों को छोड़ दें तो शिल्प के क्षेत्र में भी जहाँ सीधे-सादे वाचन में ‘पूस की रात’, ‘कफ़न’, ‘सद्गति’ जैसी कहानियाँ वर्तमान हों, कोई परिवेश अथवा परिवर्तन की बारीक लक्षणा और चरित्रांकन की गहराई के लिए किसी दूसरी कहानी का नाम ले तो भी इन कहानियों को छोड़कर नहीं ले सकता। अपने समय और समाज का ऐतिहासिक सन्दर्भ तो जैसे प्रेमचन्द की कहानियों को समस्त भारतीय साहित्य में अमर बना देता है।</p> <p>—मार्कण्डेय

More Books from Rajkamal Prakashan Samuh