Nath Sampraday
Author:
Hazariprasad DwivediPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Religion-spirituality0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
र्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ऐसे वांड़्मय-पुरुष हैं जिनका संस्कृत मुख है, प्राकृत बाहु है, अपभ्रंश जघन है और हिन्दी पाद है। नाथ सिद्धों और अपभ्रंश साहित्य पर उनके शोधपरक निबन्ध पढ़ते समय मन की आँखों के सामने उनका यह रूप साकार हो उठता है।
‘नाथ सम्प्रदाय’ में गुरु गोरखनाथ के लोक-संपृक्त स्वरूप का उद्घाटन किया गया है। स्वयं द्विवेदी जी के शब्दों में 'गोरखनाथ ने निर्मम हथौड़े की चोट से साधु और गृहस्थ दोनों की कुरीतियों को चूर्ण-विचूर्ण कर दिया। लोकजीवन में जो धार्मिक चेतना पूर्ववर्ती सिद्धों से आकर उसके पारमार्थिक उद्देश्य से विमुख हो रही थी, उसे गोरखनाथ ने नई प्राणशक्ति से अनुप्राणित किय
ISBN: 9788180318948
Pages: 231
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: "भारतीय पौराणिक साहित्य-भंडार में एक-से-एक अप्रतिम बहुमूल्य रत्न भरे पड़े हैं। अष्टावक्र गीता अध्यात्म का शिरोमणि गं्रथ है। इसकी तुलना किसी अन्य गं्रथ से नहीं की जा सकती। अष्टावक्रजी बुद्धपुरुष थे, जिनका नाम अध्यात्म-जगत् में आदर एवं सम्मान के साथ लिया जाता है। कहा जाता है कि जब वे अपनी माता के गर्भ में थे, उस समय उनके पिताजी वेद-पाठ कर रहे थे, तब उन्होंने गर्भ से ही पिता को टोक दिया था—‘शास्त्रों में ज्ञान कहाँ है? ज्ञान तो स्वयं के भीतर है! सत्य शास्त्रों में नहीं, स्वयं में है।’ यह सुनकर पिता ने गर्भस्थ शिशु को शाप दे दिया, ‘तू आठ अंगों से टेढ़ा-मेढ़ा एवं कुरूप होगा।’ इसीलिए उनका नाम ‘अष्टावक्र’ पड़ा। ‘अष्टावक्र गीता’ में अष्टावक्रजी के एक-से-एक अनूठे वक्तव्य हैं। ये कोई सैद्धांतिक वक्तव्य नहीं हैं, बल्कि प्रयोगसिद्ध वैज्ञानिक सत्य हैं, जिनको उन्होंने विदेह जनक पर प्रयोग करके सत्य सिद्ध कर दिखाया था। राजा जनक ने बारह वर्षीय अष्टावक्रजी को अपने सिंहासन पर बैठाया और स्वयं उनके चरणों में बैठकर शिष्य-भाव से अपनी जिज्ञासाओं का शमन कराया। यही शंका-समाधान अष्टावक्र संवाद रूप में ‘अष्टावक्र गीता’ में समाहित है। ज्ञान-पिपासु एवं अध्यात्म-जिज्ञासु पाठकों के लिए एक श्रेष्ठ, पठनीय एवं संग्रहणीय आध्यात्मिक ग्रंथ। "
Nanak Vani
- Author Name:
Jairam Mishra
- Book Type:

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Description:
नानक वाणी में धार्मिक, लौकिक और लौकिक-धार्मिक काव्य का सहज समन्वय है। इसमें कर्ममार्ग, योगमार्ग, भक्तिमार्ग और ज्ञानमार्ग का विशद निरूपण है। नानक वाणी में शान्त, शृंगार, करुण, वीर, हास्य आदि रसों का अद्भुत परिपाक है। उनका प्रकृति चित्रण अत्यन्त मोहक और आकर्षक है। उनकी भाषा पूर्वी पंजाबी है, परन्तु उसमें ब्रजभाषा और खड़ी बोली का भी पुट है। मुहावरों और कहावतों का प्रचुर प्रयोग है। नानक के अनुसार परमात्मा एक है वह कर्तार है, वह भय से रहित है, बैर से रहित है, मूर्तिमान है, काल से रहित है, योनि के अन्तर्गत नहीं आता। नानक वाणी में जहाँ एक ओर गुरु गाम्भीर्य और ज्ञान-वैराग्य भक्ति का अमृत मन्थन है वहाँ उनकी भाषा में अद्भुत ओज और भक्ति है। उनकी रचना-शैली में काव्य का लालित्य, माधुर्य, विचार सम्पन्नता सब कुछ है। नानक वाणी हृदय और मस्तिष्क को स्पर्श ही नहीं करती प्रत्युत उन्हें अनुप्राणित भी करती है।
नानक वाणी में उन्नीस राग प्रयुक्त हुए हैं : राग श्री, माझ, गौरी, आसा, गुजरी, वडहंस, सोरठि, धनासिरी, तिलंग, सूही, बिलावल, रामकली, मारू, दुखारी, भैरउ, बसंत, सागर, मलार तथा प्रभाती। नानक वाणी संगीतमय है, विचारोत्तेजक है। नानक वाणी का यह संस्करण अपनी विशद् सारगर्भित भूमिका के कारण अधिक सुबोध और उपयोगी हो गया है। श्रीगुरु नानक देव की सम्पूर्ण वाणी का यह मूल्यवान संग्रह उनके सभी भक्तों और प्रेमियों के पास अवश्य होना चाहिए।
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