Yagyavalkya Se Bahas
Author:
Suman KeshariPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 396
₹
495
Available
सुमन केशरी की कविताएँ मौजूदा काव्य-परिदृश्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाती हैं। इनमें समकालीन दौर की बेचैनियाँ भी हैं और परम्परा का परीक्षण और पुनर्परीक्षण भी। ये कविताएँ यह एहसास कराती हैं कि याज्ञवल्क्य और गार्गी के बीच सम्बन्ध का व्याकरण बदल गया है। गार्गी अब मनचाहे सवाल कर सकती है और उसे याज्ञवल्क्य के उत्तर की दरकार भी नहीं।</p>
<p>हिन्दी में समकालीन कवयित्रियों की जो पीढ़ी पिछले पन्द्रह-बीस वर्षों से सक्रिय है और अपनी जगह बना चुकी है, सुमन केशरी उन्हीं की समवयस्क हैं। इस हिसाब से उनका पहला काव्य-संकलन देर से आ रहा है, हालाँकि कविताएँ वे काफ़ी पहले से लिख रही हैं। इस देरी की क्या वजह हो सकती है? शायद यह कि अभी भी भारतीय समाज में आम औरत पर परिवार और बच्चों के पालने के इतने दबाव हैं कि उसकी सर्जनात्मकता के पूर्ण प्रस्फुटन में अन्तराल आते रहते हैं। सम्भवतः यही कारण है कि अपनी एक कविता में सुमन केशरी यह कहती हैं—सृजन के बीहड़ों में मैंने क़दम रखा। कई साल बाद। रो...रोकर...। यह काव्य-पंक्ति सिर्फ़ एक कवयित्री का वक्तव्य-भर नहीं है, बल्कि इसके गहरे सामाजिक आशय हैं। भारतीय समाज में औरत के लिए घर के बाहर की सृजनात्मक दुनिया अभी भी एक बीहड़ प्रदेश है।</p>
<p>इस संग्रह की एक अन्य विशेषता इसमें हिन्दी कविता की कई स्मृतियों का मौजूद होना है। इनको पढ़ते हुए कभी निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ की याद आती है तो कभी विजयदेव नारायण साही की कविताएँ। आधुनिक हिन्दी काव्य-परम्परा का एक मिज़ाज भारतीय मिथकों को नए प्रसंग में जाँचने-परखने का भी रहा है। इस संग्रह में भी ऐसी कई कविताएँ हैं। पर ऐसी कविताएँ भी यहाँ हैं जो हमारे समकालीन अनुभवों का हिस्सा हैं, जैसे ‘सिपाही’, जिसमें अनाम से दिखनेवाले वर्दीधारी की ज़िन्दगी की वे परतें खुलती हैं जिनके बारे में हम अक्सर सजग नहीं होते। जिन्हें हम रोज़ गली-मुहल्ले, सड़क, बाज़ार या सीमा पर देखते हैं, मगर सिर्फ़ उनकी उपस्थिति के बारे में जानते हैं, उनके एहसासों से वाक़िफ़ नहीं होते। इसी तरह ‘बा और बापू’ कविता गांधी और कस्तूरबा के निजी सम्बन्धों को एक नई व्याप्ति देती है जहाँ एक ऐतिहासिक लड़ाई में शामिल हो व्यक्ति एक ऐसी विडम्बना में उलझकर रह जाते हैं जहाँ निजी दुखान्त को प्राप्त होता है।</p>
<p>—रवीन्द्र त्रिपाठी</p>
<p>
ISBN: 9788126715367
Pages: 174
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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मुझे अपनी कविताओं के प्रति मोह बिलकुल नहीं है, ऐसा कहना ग़लत होगा। मैं शायद ज़रूरत से ज़्यादा सतर्क और सजग अपनी कविताओं के बारे में हूँ—इसलिए उनसे डरता रहता हूँ। फिर भी यदि कविता लिखता हूँ तो लगता है, ऐसी बातें तो मैं कह चुका हूँ, दूसरे शब्दों से उन्हीं बातों को सहलाना भी मेरे चुक जाने की ही निशानी है। ऐसा नहीं कि मेरे पास विचार या जीवनानुभवों का टोटा पड़ गया है—अभी भी किसी विचार, किसी घटना, छोटी-बड़ी बात से परेशान हो उठता हूँ, कभी-कभी महीनों तक जूझता रहता हूँ। पर उनसे निकलने के लिए कविता मेरे लिए अब आसान रास्ता नहीं रह गई है।
मैं सोचता हूँ कि लेखन में कोई इसलिए आता है कि उसे अपने दिए हुए संसार में बने रहना नाकाफ़ी लगता है। उसके आस-पास जो लोग हैं, सिर्फ़ उनसे रूबरू होकर उसका काम नहीं चलता। वह ऐसे लोगों से बातचीत करना चाहता है जिन्हें वह जानता भी नहीं है, जो दूसरे नगरों में रहते हैं, जो शायद मर चुके हैं या अभी पैदा भी नहीं हुए हैं। वह अपने आस-पास की सांसारिकताओं में ही मशगूल हो जाता है, या दीगर दिलचस्पियों में खप जाता है तो उसकी मानसिकता में दूर, मनचाहे से, अज्ञात से रिश्ते जोड़ने की सामर्थ्य नहीं बची रहती। जितने मनोरथ मैंने उठा रखे हैं, वे ही अब मुझसे नहीं सधते—क्या किया जाए?
देश में और समाज में तमाम तरह की उत्तेजनाएँ हैं। करोड़ों लोग अपनी ज़िन्दगी के थोड़े-बहुत सार्थक को भी बचा रख पाने के लिए दारुण संघर्ष में लगे हुए हैं। काफ़ी लोग बदलाव के लिए बेचैन हो रहे हैं। यह देश और दुनिया ऐसी बने रहने के लिए अभिशप्त नहीं है। तमाम लोग लगे हैं, इसे बदलने के लिए। इस बात से कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता कि एक कवि चुक गया है या उसका वक़्त आ गया है। हो सकता है कि ठीक अज़ाँ सुनने पर वह भी अपना क़फ़न फाड़कर बाहर निकल ही आए। अपनी छोटी-सी भूमिका निभाने में शायद वह और कोताही न करे। मूक बोलने लगे और पंगु गिरि को लाँघने लगे, ऐसा नामुमकिन नहीं है।
— सुदीप बॅनर्जी
Parshuram Ki Pratiksha : Dinkar Granthmala
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
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Description:
आधुनिक युग के विद्रोही कवियों में रामधारी सिंह 'दिनकर' का महत्त्वपूर्ण स्थान है, और इसकी मिसाल है 'परशुराम की प्रतीक्षा'। यह पुस्तक एक खंडकाव्य है। इसकी रचना 1962 में भारत-चीन युद्ध के पश्चात् हुई थी। इसके ज़रिए राष्ट्रकवि का सन्देश है कि हमें नैतिक मूल्यों की रक्षा करते हुए अपने राष्ट्रीय सम्मान की रक्षा ख़ातिर सतत जागरूक रहना चाहिए। युद्धभूमि में शत्रु का विनाश करने के लिए हिंसा अनुचित नहीं है।
दिनकर परशुराम धर्म को भारत की जनता का धर्म मानते हैं। परशुराम को भारत की जागरूक जनता का प्रतीक मानते हैं। इसलिए पौराणिक पृष्ठभूमि में परशुराम के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते लिखते हैं—“लोहित में गिरकर जब परशुराम का कुठार पाप-मुक्त हो गया, तब उस कुठार से उन्होंने एक सौ वर्ष तक लड़ाइयाँ लड़ीं और समन्तपंचक में पाँच शोणित-हृद बनाकर उन्होंने पितरों का तर्पण किया। जब उनका प्रतिशोध शान्त हो गया, उन्होंने कोंकण के पास पहुँचकर अपना कुठार समुद्र में फेंक दिया और वे नवनिर्माण में प्रवृत्त हो गए। भारत का वह भाग, जो अब कोंकण और केरल कहलाता है, भगवान् परशुराम का ही बसाया हुआ है। लोहित भारतवर्ष का बड़ा ही पवित्र भाग है। पुराकाल में वहाँ परशुराम का पापमोचन हुआ था। आज एक बार फिर लोहित में ही भारतवर्ष का पाप छूटा है। इसीलिए, भविष्य मुझे आशापूर्ण दिखाई देता है—
ताण्डवी तेज फिर से हुंकार उठा है,
लोहित में था जो गिरा, कुठार उठा है।”
'परशुराम की प्रतीक्षा' राष्ट्रकवि दिनकर की ऐसी कृति है जो भारत-चीन सीमा पर युद्ध के हालात बनते ही समीचीन हो जाती है। हर युग में नई उम्मीद और नए प्रतिरोध के साथ पढ़ी जानेवाली एक काजलयी कृति।
Ye Galat Baat Hai
- Author Name:
Manoj Kumar Sharma
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Description:
‘ये ग़लत बात है’ कवि-कहानीकार मनोज कुमार शर्मा का पठनीय कविता-संग्रह है। समकालीन हिन्दी कविता सहसा इतनी सजग और त्वरित हो उठी है कि परिवेश की प्रत्येक गतिविधि उसकी ज़द में है। इसके परिणाम अनेक रूपों में प्राप्त हो रहे हैं। कुछ रूप मनोज कुमार शर्मा की इन कविताओं में देखे जा सकते हैं।
सामाजिक विसंगतियाँ, आत्मीय प्रसंग, प्रगतिशील चिन्तन, निजता के निमिष और मानवीय प्रयत्न— इन बिन्दुओं पर मनोज ने अपनी कविताएँ केन्द्रित की हैं। कुछ कविताओं में प्रकारान्तर से समय, नियति और नियन्ता से संवाद है। कवि जीवन की ‘म्रियमाण वास्तविकता’ को भी रेखांकित करता है। ऐसी कविताओं से व्यंग्यमिश्रित पीड़ा का यह भाव भी मुखर होता है—‘ऐ लीलाधर!/क्यों बनाया मनुष्य को भस्मासुर/क्यों बनाया मनुष्य/क्यों?’
जब मनोज ‘पानी’ कविता लिखते हैं तब वे जल के साथ ‘सजल संवेदना’ पर मँडराते संकटों का संकेत भी करते हैं। ऐसे प्रयत्नों से वे अपने निहितार्थों को व्यापक बनाते हैं। यह पढ़कर अच्छा लगता है कि उनका दृढ़ भरोसा प्रेम में है—चाहे वह प्रेम व्यक्ति केन्द्रित हो या मूल्य सन्दर्भित। और इसकी प्रतीक्षा कवि अनन्त तक कर सकता है—‘जब मिल जाएँगी दसों दिशाएँ आकाश से/ क्या तुम तब मिलोगे?’
ये कविताएँ पाठक को उकसाती हैं कि वह नई सुबह की अगवानी कर सके। विश्वास है, यह संग्रह पाठकों की प्रीति अर्जित करेगा।
Pratinidhi Shairy : Akbar Allahabadi
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Akbar Allahabadi
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1851 की जंगे–आज़ादी में हिन्दुस्तानियों की हार के बाद उर्दू अदब में शुरू होनेवाले रेनासाँ में ‘अकबर’ इलाहाबादी का नाम सफ़े–अव्वल के शायरों में गिना जाता है। धर्म पर आधारित इस रेनासाँ की सारी विशेषताएँ ‘अकबर’ के यहाँ पूरी स्पष्टता के साथ देखी जा सकती हैं।
‘अकबर’ के कलाम की एक विशेषता और भी है। उन्होंने अपनी शायरी की शुरुआत संजीदा रवायती शायरी के साथ की थी। वही गुलो–बुलबुल, वही साग़ रो–मीना, वही शीरीं–फ़रहाद, वही शमा और परवाना रवायती शायरी के सारे प्रतीक ‘अकबर’ की शुरुआती शायरी में नज़र आते हैं। लेकिन अकबर इसी रवायत पर क़ायम रहे होते तो तय है कि वे मामूली दर्जे के सैकड़ों शायरों में बस एक होते।
लेकिन ख़ुशनसीबी कि ऐसा नहीं हुआ। जल्द ही अकबर ने अपनी एक अलग राह बना ली और वे हास्य–व्यंग्य के पहले प्रमुख शायर के रूप में जल्वागर हुए। यूँ तो जाफ़र, मीर, सौदा, ग़ालिब और दूसरे शायरों के यहाँ हास्य और व्यंग्य की सुन्दर छटाएँ देखने को मिलती हैं, लेकिन इनमें से किसी को भी बाक़ायदा हास्य–व्यंग्य का शायर नहीं कहा जा सकता। ये ‘अकबर’ थे जिन्होंने उर्दू शायरी में अपनी बात कहने के लिए हास्य–व्यंग्य का सहारा लिया और एक ऐसी नई रवायत की बुनियाद डाली जो आज तक फल–फूल रही है।
विचारधारा के स्तर पर देखें तो पश्चिमी ज्ञान–विज्ञान और पश्चिमी सभ्यता का जितना भारी विरोध ‘अकबर’ के यहाँ दिखाई देता है, उतना किसी और शायर के यहाँ नहीं दिखाई देता। इसी तरह ‘अकबर’ धार्मिक और सामाजिक सुधार के भी विरोधी थे। बदलते हुए हालात में ‘अकबर’ की शिकस्त लाज़मी थी और कहीं हास्य के साथ और कहीं दु:ख के साथ उन्होंने अपनी इस शिकस्त का इज़हार भी किया है। लेकिन इस नकारात्मक पहलू के अन्दर जो सकारात्मक तत्त्व मौजूद हैं, सावधानी के साथ उनकी निशानदेही किए बिना ‘अकबर’ के साथ इंसाफ़ करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।
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