Thapak Thapak Dil Thapak Thapak
Author:
Gagan GillPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
भाषा के छंद और स्वच्छंद के बीच से अपना रास्ता बनातीं गगन गिल की ये कविताएँ न केवल उनकी अपनी रचना-यात्रा का, बल्कि आधुनिक हिंदी कविता का भी एक नया पड़ाव मानी गयीं। इस संग्रह के साथ, कह सकते हैं कि, हिंदी कविता में लय का संताप और संताप की लय इतनी मुखर होकर लौटी।</p>
<p>गगन गिल का केंद्रीय सरोकार मानव-नियति का दुख रहा है। कभी वह उन्हें शोकगीतों तक ले गया है और कभी बौद्ध दर्शन तक। उन्होंने इस विषय को इतनी विविध तरह से टटोला है, गोया दुख ईश्वर जैसे किसी मूर्तिकार का कोई शिल्प हो। इस प्रक्रिया में उन्होंने जिस चीज़ को एक औज़ार की तरह बरता है वह है भाषा और कहन का शिल्प।</p>
<p>‘थपक थपक दिल थपक थपक’ की संश्लिष्ट बुनावट भाषा-प्रयोग में एक घटना की तरह है। किसी स्थिति-विशेष को भाषा (की चाबी) से खोलते हुए, फिर भाषा को लय से, लय को शब्द-आवृत्ति से और शब्द-आवृत्ति से मौन को, अबोले को उघाड़ते-उलीचते ये रचनाएँ एक अनूठी संरचना गढ़ती हैं जो हमें कविता के उत्स की अनुभूति कराती है। दुःख की पहली आह की तरह।</p>
<p>ये कविताएँ दुर्बोध दीखती हैं, हैं नहीं। सरल जान पड़ती हैं, निकलती नहीं। वे अर्थ-विशेष के आशय से बार-बार फिसलती हैं और इस विचलन में ही अर्थवान होने का स्वप्न रचती हैं, इस आकांक्षा में, कि यदि कहीं कोई तत्त्व है, तो वह भाषा और शब्दार्थ से परे है जिसे जानना उतना ज़रूरी नहीं जितना महसूस करना और आत्मसात करना।
ISBN: 9789360866266
Pages: 112
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
जिस जीवन के भीतर से चलकर अनीता वर्मा और उनकी कविताएँ हमारे पास आती हैं वह एकांगी या द्वि-आयामीय नहीं है, बल्कि वे उसके दुर्निवार वैविध्य को पहचानने, स्वीकारने और फिर उसे हमें देने की चुनौती और जोखिम उठाती हैं। वे हिंदी के उन बहुत कम रचनाकारों में हैं जो आत्म-मोह या आत्म-रति के परे अपनी अंदरूनी दुनिया का भी अन्वेषण करते हैं और उसे स्वपीड़न या सुखवाद की चाशनी में पाग कर पेश नहीं करते। अनीता वर्मा को ‘आत्मा’, ‘प्रेम’, ‘शून्य’, ‘चुंबन’, ‘यातना’, ‘विषाद’, ‘पवित्र’, ‘उजास’, ‘दुख’, ‘देह’, ‘रूप’, ‘मृत्यु’, ‘निराशा’, ‘स्पंदन’, ‘अनंत’, ‘वृंत’, ‘सिहरन’, ‘एकांत’, ‘छाया’, ‘स्पर्श’, ‘उदासी’, ‘प्राण’, ‘बेसुध’, ‘स्निग्ध’ जैसे आज की कविता से लगभग निर्वासित प्रत्ययों के हठीले और दुस्साहसिक इस्तेमाल से कोई गुरेज़ नहीं है जिनसे वे एक ऐसा भीतरी, निजी–एकांत नहीं–संसार बसाती हैं जिससे गुज़रते हुए कभी महादेवी-शिम्बोर्स्का जैसी कवयित्रियों की याद आती है तो कभी शमशेर-लोर्का की जटिल, ऐन्द्रिक बिम्बात्मकता की। उनकी ऐसी कविताओं में कोमल मानवीय भावनाओं और रिश्तों के कई संवेदनशील चित्र हैं लेकिन वे लगभग हमेशा भावुकता, दैन्य तथा आत्मावसाद से बच पाई हैं और उन्हें एक मननशील आत्माभिव्यक्ति में बदल सकी हैं। परिणामस्वरूप हिंदी को ‘प्रार्थना’, ‘प्रेम’, ‘व्यर्थ’, ‘अभी’, ‘भीतर’, ‘पानी के दरवाज़े’, ‘खेल’, ‘वह’, ‘विकलता’, ‘सुंदरता’, ‘अवसान’, ‘पृथ्वी के ऊपर’, ‘जुलाई’, ‘चुंबन’, ‘स्पर्श’, ‘लक्ष्यहीन’, ‘इसी तरह’ तथा ‘न बोलो’ जैसी अपूर्व रचनाएँ मिल पाई हैं जिनमें भावनाओं, विचारों, शब्दों, चित्रों, बिम्बों, संगीत तथा गीतिमयता का एक विस्मयकारी सामंजस्य नज़र आता है। चित्रांकन और बिम्बसृष्टि अनीता वर्मा को बहुत आकृष्ट करते लगते हैं और वे कभी-कभी अभिव्यक्तिवादियों-बिम्बवादियों-प्रतीकवादियों की तरह उनके तर्कातीत सौंदर्य के लिए एक निजी, स्वायत्त, परिष्कृत भाषा के प्रयोग का ख़तरा उठा लेती हैं और हिंदी की नई उद्रेक-क्षमता को उजागर करती हैं। लेकिन ऐसी कविता में हर्ष-विषाद तथा प्रेम की अनूठी, यथार्थ अभिव्यक्तियाँ भी हैं।
ऐसी रचनाएँ ही कवयित्री को महत्त्वपूर्ण बनाने में अपर्याप्त न होतीं लेकिन उसकी निगाह केवल अभ्यंतर और व्यष्टि तक सीमित नहीं है, वह बाह्य विश्व और समष्टि को भी देखती है। यह इसी दृष्टिसम्पन्नता का परिणाम है कि अनीता वर्मा वान गॉग, दा विंची और रेन्वा की सुप्रसिद्ध कृतियों के चाक्षुष पक्ष को ही नहीं देखतीं, उनमें छिपी तकलीफ़देह कहानियों और जटिल ज़िंदगियों को भी पहचानती-महसूस करती हैं। कलाकृतियों के पीछे के समाज और जीवन को हिंदी कविता में इस तरह कम ही देखा गया है। इससे भी आगे, अनीता वर्मा को अपने आसपास ‘इसी समय’ चलते ‘कोमलता और दर्द के व्यापक संसार’ का पूरा भान है जिसमें नवजात शिशु हैं, पूँजी के भयावह व्यापार हैं, वहशियों के बीच चीख़ती स्त्री है, ईर्ष्या, लालच और मासूम सपने हैं, मृत्यु की परछाइयों से परे हँसी और प्रेम हैं। यह दृष्टि महज़ एक ‘टूटता मकान’ नहीं देखती, उसके गिरते अतीत, भयानक भविष्य, मज़दूरों, भिखारियों, जानवरों तथा उस घर की गृहिणी को भी देखती है जिसकी ईंटें ले जाने के लिए अब एक ट्रक रात गये आता है। ‘घर’ में कवयित्री आज के बसेरे से शुरू कर आदिम आसरों तक जाती है, सारी पृथ्वी को निवास की तरह देखती है लेकिन इस क्रूर वास्तविकता को जानती है कि अब समझौतों से घर बनता है, जिसमें प्रेम संस्कारों पर टिका हुआ है। यथार्थ को देखती हुई कवयित्री की दृष्टि सर्वसंशयी नहीं है। कवयित्री अपने कथ्य, भाषा तथा शिल्प पर हमेशा एक संतुलित नियंत्रण रख पाने में सफल हो पाती है। वृहत्तर संसार की उसकी कविताएँ असंदिग्ध रूप से वंचितों, औरतों और बच्चों के पक्ष में हैं और पूँजी, मुनाफ़े, नियमों, बाज़ार, विज्ञापन, शोषण और नृशंसताओं के खिलाफ़ हैं। यदि ‘अमीर’ में विलासिता का जीवन उसके निशाने पर है तो ‘एक और प्रार्थना’ में उसे यह आत्म-विडंबनापूर्ण एहसास भी है–“प्रभु मेरी दिव्यता में/सुबह-सवेरे ठंड में काँपते/रिक्शेवाले की फटी कमीज ख़लल डालती है।” ‘तर्पण’ में धर्म और सभ्यता को मानवताविरोधी बताने का दुस्साहस है जबकि ‘विज्ञापन’ में उपभोक्तावाद से बर्बाद होते आदमी और समाज की तस्वीर है। स्त्रियों और बच्चों पर कुछ निहायत अलग ढंग की कविताएँ अनीता वर्मा के पास हैं। ‘अब भी विरोध’ में एक ऐसी औरत की कहानी है जो पहले ‘पैसे कमाती और दुआ माँगती थी’ लेकिन जब खुले, सुंदर संसार में आती है तो भी उसकी मुखालिफ़त की जाती है। ‘स्त्रियों से’ कविता का उद्बोधन लोकप्रिय नारीवादी पदावली का इस्तेमाल नहीं करता बल्कि ‘अपनी निबिड़ताओं से निकाल लानी होगी उजली हँसी’ का आह्नान करता है। स्त्री-शरीर के बाज़ारीकरण का गहरा आकलन ‘इस्तेमाल’ में है जिसकी “शुक्र करो कि खूबसूरत माँएँ बच्चे नहीं बेचतीं/यह काम बदसूरत माँओं के लिए तय किया गया है” सरीखी मार्मिक पंक्तियाँ भयावह हैं। लक्ष्मणपुर बाथे और शंकर बिगहा के दलित हत्याकांडों पर लिखी गयी कविता एक रोती हुई स्त्री से शुरू होती है। स्कूली बच्चों पर लिखी अनीता वर्मा की ‘अपनी कक्षा’, ‘ज़ाहिद अली का पन्ना’ (जो बचपन और साम्प्रदायिकता दोनों विषयों के बीच अद्भुत आवाजाही करती है), ‘स्कूल’ तथा ‘हम जो हैं’ सरीखी रचनाएँ एक विरल कोमलता से बच्चों के जटिल वर्तमान तथा अनिश्चित भविष्य को देखती हैं। ज़मीन सार्वजनीन हो या निजी, विषय समसामयिक हों या देश-कालातीत, अनीता वर्मा ने एक ऐसी भाषा और शैली अर्जित की है, पूरी मानवीय सहानुभूति देने और अपनी अंतर्तम बात को कह पाने का ऐसा तरीक़ा, कि वे पिछले दो दशकों में उभरी हिंदी युवा कवियों की बड़ी पीढ़ी में भी अगली पंक्तियों में अपनी विशिष्ट पहचान और स्थायी जगह बना चुकी हैं। — विष्णु खरे
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