Seepiyaan
Author:
Javed AkhtarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry1 Reviews
Price: ₹ 319.2
₹
399
Available
कबीर, तुलसी, वृंद, रहीम और बिहारी आदि कवियों ने सदियों पहले अपनी गहरी अन्तर्दृष्टि और मानव-स्वभाव की समझ की बुनियाद पर कुछ बातें कहीं, और इसके लिए उन्होंने कविता का जो रूप चुना, वह था—दोहा। दो पंक्तियों में गुँथी-गठी एक सम्पूर्ण कविता जो तीर की तरह जाकर हमारी चेतना में गड़ जाती है।
सैकड़ों सालों से ये दोहे हमारे साथ रहते आए हैं, कभी ये हमें हमारी ख़ामियाँ दिखाते हैं, कभी हमारे रहबर बन जाते हैं, और कभी कोई ऐसा सच बता जाते हैं जिसे हमारी दुनियावी निगाह देखकर भी नहीं देखती।
‘सीपियाँ’ में जावेद अख़्तर ने ऐसे ही कुछ दोहों को चुनकर उनके भीतर छिपे सत्य को आमफ़हम ज़बान में हर किसी के लिए सुलभ कर दिया है। जो बातें इनसे निकलकर आई हैं वे आज भी उतनी ही सच हैं, आज भी उतनी ही उपयोगी हैं, जितनी उस समय थीं, और आगे भी उतनी ही सार्थक रहेंगी।
जावेद अख़्तर हमारी आज की रोज़मर्रा ज़िन्दगी से उन्हें जोड़ते हैं और बताते हैं कि कैसे उन पर अमल करके, उनसे मिलनेवाली सीख को अपनाकर हम ख़ुद को बेहतर इनसान और अपनी दुनिया को एक बेहतर समाज बना सकते हैं।
ISBN: 9789360867867
Pages: 296
Avg Reading Time: 10 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Tinka Tinka Tihar
- Author Name:
Vimlaa Mehra +1
- Book Type:

- Description: “दुनिया की हर औरत कभी न कभी एक ऐसे मुक़ाम से गुज़रती है जहाँ उसे अपनी चुप्पी और ज़बान के बीच में से किसी एक का चुनाव करना पड़ता है। जहाँ अदालतें महज़ सरकती हैं, सत्ताएँ सोचा करती हैं, संस्थाएँ दावे करती हैं और मन थरथराया करता है—वहाँ कविताएँ शर्म और धर्म को बचाए रखने का हौसला और मन में बुदबुदाता मंत्र बन जाती हैं। इन कविताओं में इतनी ताक़त है कि वे कह लेती हैं—थी.हूँ..रहूँगी...। तिहाड़ में उपजी इन कविताओं में आपको उधड़ चुकी कई लोरियों का अहसास होगा।” —विमला मेहरा, वर्तिका नन्दा यह किताब उन औरतों की है जिनका जिस्म क़ैद है, पर मन नहीं। इसमें तिहाड़ की चार महिला क़ैदियों की कविताएँ हैं जो उन्होंने सींखचों के पीछे रहकर लिखी हैं। कविताओं के साथ इसमें जेल नम्बर 6 की दुर्लभ तस्वीरें हैं जो इन्होंने ख़ुद ली हैं। मक़सद है—पाठक को उस जगह से परिचित करवाना जिसका नाम है—तिहाड़।
Bela
- Author Name:
Suryakant Tripathi 'Nirala'
- Book Type:

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Description:
‘बेला' और ‘नए पत्ते' के साथ निराला-काव्य का मध्यवर्ती चरण समाप्त होता है। 'बेला' उनका एक विशिष्ट संग्रह है, क्योंकि इसमें सर्वाधिक ताज़गी है। अफ़सोस कि निराला-काव्य के प्रेमियों ने भी इसे लक्ष्य नहीं किया, इसे उनकी एक गौण कृति मान लिया है। ‘नए पत्ते' में छायावादी सौन्दर्य-लोक का सायास किया गया ध्वंस तो है ही, यथार्थवाद की अत्यन्त स्पष्ट चेतना भी है। ‘बेला' की रचनाओं की अभिव्यक्तिगत विशेषता यह है कि वे समस्त पदावली में नहीं रची गईं, इसलिए ‘ठूँठ' होने से बच गई हैं।
इस संग्रह में बराबर-बराबर गीत और ग़ज़लें हैं। दोनों में भरपूर विषय-वैविध्य है, यथा—रहस्य, प्रेम, प्रकृति, दार्शनिकता, राष्ट्रीयता आदि। इसकी कुछ ही रचनाओं पर दृष्टिपात करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। ‘रूप की धारा के उस पार/कभी धँसने भी दोगे मुझे?', ‘बातें चलीं सारी रात तुम्हारी; आँखें नहीं खुलीं तुम्हारी।', ‘लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो/भरा दौंगरा उन्हीं पर गिरा।' बाहर मैं कर दिया गया हूँ। भीतर, पर, भर दिया गया हूँ।' आदि। राष्ट्रीयता ज़्यादातर उनकी ग़ज़लों में देखने को मिलती है।
निराला की ग़ज़लें एक प्रयोग के तहत लिखी गई हैं। उर्दू शायरी की एक चीज़ उन्हें बहुत आकर्षित करती थी। वह भी उसमें पूरे वाक्यों का प्रयोग। उन्होंने हिन्दी में भी ग़ज़लें लिखकर उसे हिन्दी कविता में लाने का प्रयास किया। लेकिन निराला-प्रेमियों ने उसे एक नक़ल-भर मान उन्हें असफल ग़ज़लकार घोषित कर दिया। सच्चाई यह कि आज हिन्दी में जो ग़ज़लें लिखी जा रही हैं, उनके पुरस्कर्ता भी निराला ही हैं। ये ग़ज़लें मुसलसल ग़ज़लें हैं। मैं स्थानाभाव में उनकी एक ग़ज़ल का एक शे’र ही उद्धृत कर रहा हूँ :
तितलियाँ नाचती उड़ाती रंगों से मुग्ध कर-करके,
प्रसूनों पर लचककर बैठती हैं, मन लुभाया है।
Gramya
- Author Name:
Sumitranandan Pant
- Book Type:

- Description: ‘ग्राम्या’ में मेरी ‘युगवाणी’ के बाद की रचनाएँ संगृहीत हैं। इनमें पाठकों को ग्रामीणों के प्रति केवल बौद्धिक सहानुभूति ही मिल सकती है। ग्राम जीवन में मिलकर, उसके भीतर से, ये अवश्य नहीं लिखी गई हैं। ग्रामों की वर्तमान दशा में वैसा करना केवल प्रतिक्रियात्मक साहित्य को जन्म देना होता। 'युग', 'संस्कृति' आदि शब्द इन रचनाओं में वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए प्रयुक्त हुए हैं, जिसे समझने में पाठकों को कठिनाई नहीं होगी; ‘ग्राम्या’ की पहली कविता 'स्वप्न पट' से यह बात स्पष्ट हो जाती है।
Nigah Dar Nigah
- Author Name:
Shalabh Shriram Singh
- Book Type:

- Description: Book
Samvedana Ke Swar
- Author Name:
Dinesh Adhikari
- Book Type:

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Description:
दिनेश अधिकारी नेपाली कवि हैं। हिन्दी में यह उनका पहला काव्य-संग्रह है। बहैसियत कवि अपने काव्य-कर्म के बारे में उनका कहना है कि आदमी और आदमी से जुड़े तमाम सन्दर्भ ही उनके लेखन की ऊर्जा बनते हैं। मौलिकता की उनकी अवधारणा ठीक उतनी ही विनम्र है जितनी ये कविताएँ। विनम्र लेकिन तत्वतः ठोस और अपने पैरों के नीचे की ज़मीं को भरी-पूरी नज़रों से देखती-आँकती हुई। वे कहते हैं कि एक ही विश्व के निवासी होने के कारण विषयवस्तु में समानता की सम्भावना प्रबल होती है। सो सृष्टा की मौलिकता को उसके प्रस्तुति-क्रम में खोजना चाहिए। लेकिन मौलिकता की एक कसौटी और भी है, वह है दृष्टि, जिसके दर्शन इस संग्रह की कविताओं में होते हैं। उनकी कविता पूछती है : ‘प्रदर्शन मात्र ही शक्ति है क्या?’ उनकी कविता बताती है : ‘कपड़ा फट जाता है, चमड़ी नहीं।’ उनकी कविता उद्घाटित करती है : ‘तर्क वास्तव में बेशर्म ही होता है...शासक की तरह बेहया।’ उनकी कविता स्वीकार करती है : ‘अकेले चलने का आनन्द तुम्हारे साथ चलते नहीं आता।’ ये कुछ पंक्तियाँ यद्यपि उनकी मौलिकता को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त हैं लेकिन इस
संग्रह की कविताओं की अर्थ और सन्दर्भ-व्याप्ति कहीं अधिक है।
बीच-बीच में नेपाली अभिव्यक्तियों के साथ ये कविताएँ अखिल मानवता को सम्बोधित करती हैं। ‘हर्क बहादुर’, ‘कहाँ रखें अब पैदा होनेवाले पुत्र को’, ‘मच्छरदानी के भीतर आदमी’, ‘आदमी का क़द’ और ‘विकासोन्मुख देश का आदमी’ जैसी अनेक कविताएँ कवि के आन्तरिक विस्तार का परिचय देती हैं।
संग्रह में प्रकाशित ‘गाँव की एक कविता’ बार-बार पढ़ने लायक़ कविता है जिसमें प्रस्तुत गाँव की तस्वीर भारत में भी जहाँ चाहे वहाँ देखी जा सकती है। हस्तक्षेप के रूप में देखें तो यह विचारणीय है जो यह कविता कहती
है : ‘गोद के शिशु को पीठ पर बाँधकर मज़े से निकल जाती है कोई भी माँ अपनी सन्तान पर भी बोझ बन सकती है—उसे पता नहीं।’ हिन्दी कविता के परिदृश्य में हमारे प्रिय पड़ोसी देश से आई यह दस्तक स्वागत योग्य है, पर उससे पहले ध्यान से पढ़ने योग्य।
Hunkar
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

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Description:
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ करुणा को जीने, विषमताओं पर चोट करने, भाग्यवाद को तोड़ने और क्रान्ति में विश्वास करनेवाले कवि हैं। यही कारण है कि पराधीन भारत की बात हो या स्वाधीन भारत की, वे अपने विज़न और वितान में एक अलग ही ऊँचाई पर दिखते हैं। और इस बात की मिसाल है उनका यह संग्रह ‘हुंकार’।
‘हुंकार’ में इस शीर्षक से कोई कविता नहीं है, लेकिन हर कविता एक हुंकार है। काव्य में ओज को कलात्मक रूप देनेवाले कवि हैं दिनकर। उन्होंने अपने काव्य में राष्ट्रीय अस्मिता की वह ज़मीन तैयार की, जिससे स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त हो सके। उन्होंने ‘अनल-किरीट’ में लिखा—‘धरकर चरण विजित शृंगों पर झंडा वही उड़ाते हैं/अपनी ही उँगली पर जो खंजर की जंग छुड़ाते हैं।’
दिनकर विसंगतियों और विडम्बनाओं को तटस्थ होकर नहीं देख सकते, वे उनकी जड़ों तक जाते हैं। ‘हाहाकार’ कविता में जो चित्र उन्होंने खींचे हैं, वे बेचैनी से भर देनेवाले हैं, क्योंकि यह धरती ऐसी हो गई है, जहाँ चीखें ही चीखें हैं। विदारक तो यह कि कुछ बच्चे माँ के सूखे स्तन चूस रहे हैं, कुछ की हड्डियाँ क़ब्र से ‘दूध-दूध’ चिल्ला रही हैं। इसलिए ‘दिल्ली’ जो क्रूर, निर्लज्ज और मनमानी की प्रतीक बन चुकी, उसे ललकारते हुए कहते हैं—‘अरी! सँभल, यह क़ब्र न फटकर कहीं बना दे द्वार/निकल न पड़े क्रोध में लेकर शेरशाह तलवार!’
इस संग्रह में दिनकर की दृष्टि वैश्विक है। इसलिए जिस तरह वे ‘तक़दीर का बँटवारा’ में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच वार्ता विफल होने पर जन को आगाह करते हैं, उसी तरह ‘मेघ-रन्ध्र में बची रागिनी’ में रक्तपिपासु इटैलियन फ़ासिस्टों के अबीसीनिया पर आक्रमण को लेकर सजग करनेवाली चेतना को प्रतिपादित करने से नहीं चूकते।
‘हुंकार’ क्रान्ति को एक नया रूप देनेवाला ऐसा संग्रह है जो आठ दशकों से विद्रोह की आवाज़ बना हुआ है, सपनों की राह और रोशनी बना हुआ है।
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