Pratinidhi Kavitayen : Kunwar Narain
Author:
Kunwar NarainPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
शुरू से लेकर अब तक की कविताएँ सिलसिलेवार पढ़ी जाएँ तो कुँवर नारायण की भाषा में बदलते मिज़ाज को लक्ष्य किया जा सकता है। आरम्भिक कविताओं पर नई कविता के दौर की काव्य-भाषा की स्वाभाविक छाप स्पष्ट है। इस छाप के बावजूद छटपटाहट है—कविता के वाक्य-विन्यास को आरोपित सजावट से मुक्त कर सहज वाक्य-विन्यास के निकट लाने की। आगे चलकर यह वाक्य-विन्यास कुँवर नारायण की कविता के लिए स्वभाव-सिद्ध हो गया है। लेकिन उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने सहज वाक्य-विन्यास को बोध के सरलीकरण का पर्याय अधिकांशत: नहीं बनने दिया। सहज रहते हुए सरलीकरण से बचे रहना, साधना के कठिन अभ्यास की माँग करता है। 'सहज-सहज सब कोई कहै—सहज न चीन्हे कोय!' बाल-भाषा में 'प्रौढ़ व्यक्तित्व को अभिव्यक्ति' देने की चुनौती को कुँवर नारायण ने बहुत गहरे में लिया और जिया है। परम्परा की स्मृति और 'सैकड़ों नए-नए' पहलुओं को धारण करनेवाली काव्य-भाषा सम्भव करने के लिए जो साधना उन्होंने की होगी, उसका अनुमान ही किया जा सकता है। कुँवर नारायण इस महत्त्वपूर्ण सचाई के प्रति सजग हैं कि ‘कलाकार-वैज्ञानिक के लिए कुछ भी असाध्य नहीं।’ वे इस गहरी सचाई से भी वाक़िफ़ हैं कि चिन्तन चाहे दार्शनिक प्रश्नों पर किया जाए चाहे वैज्ञानिक तथ्यों पर, काव्यात्मक भाषा ही प्रत्यक्ष दिखने वाले विरोधों के परे जाकर मूलभूत सत्यों को धारण करने का हौसला कर पाती है।</p>
<p>—पुरुषोत्तम अग्रवाल
ISBN: 9788126715428
Pages: 232
Avg Reading Time: 8 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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विहाग अपनी इन कविताओं में दलित-दमन के पीड़ाजनक बिम्बों को उन तमाम कटघरों से निकाल लाए हैं जहाँ उत्पीड़न और दमन को मात्र भोथरी सहानुभूति के छींटों से ठंडा कर सहनीय बना दिया जाता रहा है। उनकी कविताएँ जाति की व्यवस्था से उपजे अब तक के दुख को एक गतिशीलता देना चाहती हैं, वे चाहती हैं वह कहीं पहुँचे, कि यदि जरूरी है तो युद्ध हो, लेकिन उसे केवल अकादमिक विमर्श बनाकर लाभदायक लेकिन दिशाहीन वस्तु में न बदल दिया जाए।
विहाग का कवि अपने शत्रु को पहचानता है, उसकी ताकत और कमजोरियों को भी जानता है, ताकत के किन-किन रूपों में उसके अवतार सम्भव हैं; यह भी समझ उन्हें है। इसलिए वे धर्म के ठेकेदारों को भी उसी तुर्शी के साथ रेखांकित करते हैं, जाति के शक्तिशालियों को भी, और बहुमत के शिखरस्थों को भी।
ये कविताएँ सिर्फ अपने स्पष्ट इरादों के लिए ही नहीं, पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए अपनी भाषिक सामर्थ्य के लिहाज से भी मुख्यधारा से अलग दिखाई पड़ती हैं। अपने आक्रोश को सुचिंतित और विस्फोटक बिम्बों में हथियार की तरह गढ़ देना—यह एक दुर्लभ क्षमता है जो इस संग्रह की लगभग हर कविता में दिखाई पड़ती है। और यह चीज इन्हें कविता से ज़्यादा एक आह्वान में बदल देती है। सवर्ण की सर्वव्यापी, अति-दृश्यमान और आक्रामक मौजूदगी के प्रति वे हर क्षण सचेत हैं और इतिहास के दूरस्थ बिन्दुओं से वर्तमान तक फैली उसकी परम्परा से भिज्ञ भी। उनकी कविताएँ मिथकों के लौह-कोष में सुरक्षित बैठे उन देवताओं तक को अपनी युद्धभूमि में घसीट लाती हैं जिन तक कोई तीर, कोई पत्थर नहीं पहुँचता, और जिन्हें पवित्रता के भय-प्रसारक मैकेनिज़म द्वारा हर आलोचना से बाहर कर दिया जाता रहा है। देश में कोरोना-काल के नाम से जाने गए समय को लेकर इस संग्रह में पाँच कविताएँ हैं, और यह कहना गलत नहीं होगा कि ये कोरोना की शारीरिक-सामाजिक और नैतिक आपदा को लेकर लिखी गईं सबसे अच्छी कविताओं में से हैं।
Dharati Aaba Birsa Munda
- Author Name:
Joydev Das
- Book Type:

- Description: बिरसा मुंडा का दृष्टांत बना व्यक्तित्व सहज ही प्रेरित और प्रभावित करता है। इस व्यक्तित्व, इसकी क्रांतिधर्मी चेतना और संघर्षों की प्रेरणा नाटक विधा में उतर कर दूरगामी प्रभाव रच सकती है। बिरसा मुंडा के जीवन की प्रमुख घटनाओं पर आधारित रंगकर्मी जयदेव दास द्वारा रचित नाटक ‘धरती आबा-बिरसा मुंडा’ एक ऐतिहासिक क्रांतिकारी चरित्र को उसकी पूरी संघर्षशीलता के साथ सामने लाता है। ‘धरती आबा’ यानी धरती का पिता-बिरसा मुंडा को यह समान सहज ही प्राप्त नहीं हुआ। अंग्रेजों की आदिवासी विरोधी आर्थिक नीतियों के विरुद्ध लामबंद होने और ब्रिटिश साम्राय की सामंतशाही के तमाम उत्पीन झेलने के साथ आदिवासी और स्त्री केंद्रित मुद्दों के प्रति व्यापक समाज में अपनी अस्मिता की लाई को धारदार बनाने का काम बिरसा मुंडा ने किया। जिसके लिए अन्यायी शासन ने उन्हें कैद किया और धोखे से पककर जहर देकर मौत के घाट उतारा। निश्चय ही एक अति पठनीय नाटक।
Chautha Shabda
- Author Name:
Parmanand Srivastav
- Book Type:

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Description:
‘उजली हँसी के छोर पर’ (1960) और ‘अगली शताब्दी के बारे में’ (1981) संग्रहों के बाद परमानंद श्रीवास्तव की कविताओं का तीसरा संग्रह ‘चौथा शब्द’ एक दशक से कुछ अधिक के अन्तराल पर प्रकाशित हो रहा है। कविता के इतिहास में यह बीता हुआ दशक कविता के लिए ही कठिन समय बनकर उपस्थित नहीं हुआ, शब्द या अभिव्यक्ति के सभी रूपों और माध्यमों के लिए और सबसे अधिक मानवीय अस्तित्व के लिए, मनुष्य द्वारा अर्जित समस्त मूल्य सम्पदा के लिए चुनौती बनकर उपस्थित हुआ। यह दौर बीता नहीं है बल्कि आज और अधिक भयावह प्रश्नों और शंकाओं से घिरा है। परमानंद श्रीवास्तव ने कविता के बाहर भी शब्द के पक्ष में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में, मानवीय मूल्यों के पक्ष में लगातार संघर्ष किया है और कविता के भीतर भी धीमी शान्त ऐन्द्रिकता, राग संवेदना और जीवन के प्रति सहज आसक्ति मात्र से सन्तुष्ट न होकर ऐसा उत्तेजक नाटकीय
शिल्प विकसित किया है जो कविता के पाठकों के रूप में अपने समाज के प्रति सीधा सम्बोधन है।
परमानंद श्रीवास्तव के इस संग्रह में ‘इन दिनों’, ‘साध्वियों’, ‘बटोर’ जैसी कविताएँ अपने कठिनतम समय के मुख्य संकट को न किसी शब्द-छल से छिपाती हैं, न ख़तरनाक ताक़तों को सीधे लक्ष्य करने से बचती हैं। इसके बाद भी परमानंद श्रीवास्तव कविता के अपने विन्यास या रूप-तंत्र के प्रति कितने सजग हैं, इसका अनुमान सहज ही किया जा सकता है। ‘चौथा शब्द’ में उनका अनुभव-संसार अधिक विस्तृत है और स्थितियों, चरित्रों तथा समय की त्रासदियों को देखने-समझने की दृष्टि भी अधिक विकसित और सचेत है। ‘वह अघाया हुआ आदमी‘, ‘फ़ुर्सत में’, ‘अपरिचित', ‘सहपाठी मिले एक दिन’ जैसी कविताएँ एक तरह के कथातन्तु का आश्रय लेती हैं जबकि ‘स्त्री सुबोधनी’ जैसी कविता मानवीय अनुभव और भाषा के स्रोतों तक जाने के लिए एक विलक्षण लोकरंग प्राप्त करती है। स्त्री की यातना के अनुभव प्रत्यक्ष कई कविताओं मे दर्ज हैं। यह कविता भी उसी अनुभव को अतीत की यातनापूर्ण यादों में जोड़कर देखने की सार्थक कोशिश है। परिप्रेक्ष्य-सम्पन्न कविताओं के लिए यह संग्रह ज़रूर ही पाठकों के बीच देर तक चर्चा में रहेगा और शायद आनेवाली कविता का संकेत भी देगा।
Ummid Ki Tarah Lautna Tum
- Author Name:
Pankaj Subeer
- Book Type:

- Description: इन कविताओं के बारे में मैं किताब की भूमिका या अपनी बात लिखने से हमेशा परहेज़ करता हूँ, मगर इस किताब के बारे में कुछ लिखना मुझे ज़रूरी लगा, सो लिख रहा हूँ। 8 अप्रैल 2025 को मैंने अपने पिता को हमेशा के लिए खो दिया। किसी व्यक्ति के हमेशा के लिए चले जाने के बाद आप कैसा महसूस करते हैं, यह मेरे लिए पहला अनुभव था। मुझे ऐसा लगा कि मेरे अंदर का एक बड़ा हिस्सा टूट कर खो गया है। मैं अपने अंदर एक प्रकार का सूनापन, एक बड़ी ख़ला को महसूस करने लगा। पिता के जाने के ठीक तीसरे दिन मैं सुबह छह बजे अपनी टेबल पर अन्यमनस्क अवस्था में बैठा हुआ था। एक दिन पहले ही पिता की अस्थियों को नर्मदा में विसर्जित कर के आया था। मेरे सामने काग़ज़ और क़लम रखे हुए थे। मैंने क़लम को उठाया और यूँ ही कुछ लिखना शुरू किया, जो लिखा जा रहा था वह एक कविता जैसा था- 'पिता- तीन दिन बीत गये'। अगले दिन जब फिर बैठा तो फिर एक कविता लिखी... बस उसके बाद सिलसिला चलता रहा... दिनों नहीं बल्कि अगले कुछ महीनों तक... प्रारंभ में कविताएँ पिता पर लिखी गयीं... फिर धीरे-धीरे और विषय जुड़ते चले गये। इस प्रकार इन कविताओं का जन्म हुआ। इस किताब में सात कविताएँ- 'रबाब- एक मुसलसल इश्क़', 'गौतम राजऋषि के लिए', 'लिफ़ाफ़ा', 'ताना-बाना', 'तुम', 'पीली और उदास आँखें' तथा 'विश्वास' मेरी पुरानी कविताएँ हैं, बाक़ी सारी कविताएँ उसी तीन से चार माह की अवधि की हैं। उसे मैं 'जुनून-अवधि' भी कह सकता हूँ। मुझे नहीं पता कि ये कविताएँ भी हैं कि नहीं। मुझे नहीं पता कि इनको इस प्रकार सामने भी लाना चाहिए था अथवा नहीं। मगर अब ये कविताएँ आपके सामने हैं। इनको पढ़ें, और अगर ठीक नहीं लगें तो इनको ख़ारिज कर देने का भी पूरा अधिकार आपके पास है।
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