Pratinidhi Kavitayen : Ashok Vajpeyi
Author:
Ashok VajpeyiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 120
₹
150
Available
जन्म और मृत्यु। दो जीवन-सत्य। चूँकि 'मैं' हूँ, इसलिए इनका अस्वीकार भी सम्भव नहीं। फिर एक लय, एक सनातन लय-प्रेम की। सराबोर करती जीवन के, मृत्यु के इस अनुभव-पट को। अनुभव, स्पर्श का अनुभव। ऐन्द्रिकता का निर्द्वन्द्व स्वीकार। यही हैं अशोक वाजपेयी की कविता के मुख्य सरोकार। जड़ और चेतन—सभी ढले हैं उनकी कविताओं में—जो उनकी कविता-गंगा के पाट को दूर, बहुत दूर तक ले गए हैं; जहाँ तक पहुँच पाना या देख पाना, बिना इस गंगा में उतरे सम्भव नहीं।
अशोक वाजपेयी जीवन के अनछुए अनुराग, अदेखे अन्धकार और अधखिले फूलों के साथ, उन मुरझाए फूलों को भी प्रेम करनेवाले कवि हैं, जिन्हें हम प्राय: नज़रअन्दाज़ कर जाते हैं।
विभिन्न संकलनों से ली गई उनकी चुनिन्दा कविताओं का यह संग्रह निश्चय ही उनकी काव्य-संवेदना के कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को रेखांकित करेगा।
ISBN: 9788171787043
Pages: 134
Avg Reading Time: 4 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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Description:
राज कुमार सिंह का कविता-संग्रह ‘उदासी कोई भाव नहीं है’ एक इंसान के भीतर मौजूद भावनाओं के अथाह सागर को समझने और उसे शब्दों में बाँधने का प्रयास है। यह उनकी दूसरी पुस्तक है। इस कविता-संग्रह में जीवन के कठोर यथार्थ, आम आदमी के संघर्ष, निराशा, प्रेम और उम्मीद को नए प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। राज कुमार सिंह जब प्रेम की बात कहते हैं तो परंपरागत प्रेम कविताओं से हटकर वहाँ भी उनका कुछ अलग नजरिया होता है, मसलन—‘जब तुम कहती हो सब ठीक है/तब मुझे लगता है अभी कितना कुछ ठीक होना बाकी है...’ या फिर—‘प्रेम को प्रेम ही खा जाता है...’
बात जब आम आदमी के संघर्ष की हो तो कुछ बेहद सशक्त कविताएँ देखने को मिलती हैं, जैसे—‘युद्ध के मैदान में खड़ा हुआ, प्रत्यंचा पर स्वयं मैं चढ़ा हुआ...’ इन सबके बीच आशा का एक दीपक भी उनकी कई कविताओं में अपने पूरे तेज के साथ रोशन दिखाई देता है। कहते हैं—‘एक बड़े शहर में, जब जब एक अजनबी, एक अजनबी से पूछता है कोई पता, तब तब यह भरोसा बनता है, कि दुनिया में खोई हुई सबकी चीजें, एक दिन उन्हें मिल जाएँगी।’
कविता-संग्रह में महात्मा बुद्ध से लेकर हिरण्यकश्यप तक को प्रतीक बनाकर लिखी कविताएँ हैं जो आज के दौर में भी महत्त्वपूर्ण हैं। पेशे से पत्रकार राज कुमार सिंह की कविताओं की खूबी बिना किसी शोर-शराबे और बिना चीख-चिल्लाहट के अपनी बात कहना है। समाज को नजदीक से देखने का जो अनुभव एक पत्रकार के रूप में उन्हें मिला है, उसका असर भी इस पुस्तक में देखने को मिलता है।
Pichhla Baqi
- Author Name:
Vishnu Khare
- Book Type:

- Description: यह कहकर कि विष्णु खरे हिन्दी में बिलकुल अलग ढंग की कविता लिखते थे (उनकी ख़ास अपने रंग की कविता की बात है यह, उन कुछेक कविताओं की नहीं जो उनकी उतनी ख़ास नहीं हैं), हम ज़रूर एक बड़ी बात कहते हैं। पर उनका अपना रंग क्या है, यह बताए बग़ैर बात अधूरी है। पहली ही नज़र में उन्हें अलग दिखा देनेवाली चीज़ है उनकी कविता का बाना; ऐसा बाना जिसमें से 'कवितापन’ के निशान मानो चुन-चुनकर हटा दिए गए हैं—भावनात्मकता, लयात्मकता, आवेग और बहाव, लगाव और आत्मीयता, सहानुभूति और करुणा तक...। पहली नज़र में वे कविता होने का दावा करनेवाली गद्यात्मक कहानियाँ मालूम होती हैं। उनका कहानीपन भी वर्णनात्मक लगता है, कथात्मक नहीं, मानो जान-बूझकर लयहीन, गद्यात्मक, मनमाने तौर पर लम्बी या छोटी पंक्तियों में कुछ चीज़ों के बारीक वर्णन में घटना या पात्र जोड़ दिए गए हैं; आप कविता से जुड़ी अपनी अपेक्षाएँ, रुचियाँ, आदतें लेकर उनके पास जाते हैं और निराश होते हैं; आप कहानी की तरह उसे पढ़ना चाहते हैं तो पाते हैं कि जिन तत्त्वों (सूक्ष्म निरीक्षण, मानसिक या घटनागत मोड़, आश्चर्य इत्यादि) को आप कहानी पढ़ने के बाद खोजते या निकालते, वे ढाँचे की तरह—मांस-मज्जा-मोटापे से रहित—आपके सामने हैं, पूरी कहानी नहीं। कविता के रूप में आप जिस ताप, आवेग और शब्दों की मितव्ययिता चाहते हैं, वह नहीं है। कविता के रूप में उक्त तत्त्वों को जिन आवरण-आच्छादनों के साथ चाहते हैं, वे आवरण-आच्छादन भी नहीं हैं। कहानी की दृष्टि से शब्दों की कंजूसी, कविता की दृष्टि से शब्दों की इफ़रात। ‘अकेला आदमी’, ‘कोशिश’ और ‘दोस्त’ जैसी कविताएँ आपको तब भी अपनी संस्कारगत काव्य-रुचियों के क़रीबतर जान पड़ती हैं। इससे बरबस आप विष्णु खरे की दूसरी कविताओं को समझने की, उनमें ‘कवितापन’ खोजने की कोशिश करते हैं। कभी-कभी यह कोशिश लगातार चलती है; होते-होते आप कवि के मुरीद भी हो जा सकते हैं। समय इन कविताओं में एक तरह से सर्वव्याप्त आयाम है जिसमें देश या स्थान भी समाहित है। 'टेबिल’ में वह चार पीढ़ियों का क़िस्सा बनता है। ‘हँसी’ में वह हमारा अपना ज़माना है, जब पुरस्कृत बालक भूखा, पैदल, थका, शील्डों के बोझ से दबा घर पहुँचता है, जहाँ ख़ुद ही उसे ताला खोलना है; समारोह में विशेष स्वागत अतिथियों का है, सड़क पर पुलिस की घुड़क है, दूसरे दिन स्कूल में क़तार में वह निरीह इकाई मात्र है। एक संवेदनहीन, मूल्यहीन, क्रूर समाज का समय। 'गर्मियों की शाम’ में वह हमारी यौन-नैतिकता, अच्छाई, किशोर-मन की कसमसाहट का समय है। ‘स्वीकार’ और ‘डरो’ में, ‘दूरबीन’ और ‘वापस’ में और ‘कार्यकर्ता’ और ‘कोमल’ में हमारे समय का समाज-संगठन, व्यक्ति-सत्ता, व्यंग्य, तल्ख, विडम्बना, अक्सर दुरदुराए जाते आम इनसान संकेतित हैं। समय पर यही आँख ‘मुक़ाबला’ में प्रागैतिहासि फ़ैंटेसी को समेट लाती है। बचपन, कैशोर्य, जवानी, बुढ़ापा; सफलता, रोग, दैन्य, छोटे शहरों की उदासी और उदास आकर्षण, बड़े शहरों का दृश्य (‘वापस’) उनमें तरह-तरह से आता है। समय के लिए विष्णु खरे काल या महाकाल जैसे प्रत्यय नहीं अपनाते, और इस नुक्ते में उनकी काव्य-चेतना के दो रुझान स्पष्ट हैं। ‘समय’ शब्द हमारे समय में अंग्रेज़ी के ‘टाइम’ का प्रत्ययान्तर है, और प्रचलित आधुनिकतावाद में वह प्रगति, इतिहास, उत्तरोत्तर आगे बढ़नेवाला, रैखिक विकास का अर्थ लिए हुए है; व्यतीत हो जानेवाला समय है, ‘कालो न यात:’ वाला, आवर्तित, चक्राकार काल नहीं। लेकिन विष्णु खरे इसको ‘अर्थ’ और ‘अव्यक्त’ जैसी कविताओं में ‘एक प्रवहमान अनन्त लीला’ से जोड़ते हैं। आधुनिकता के विश्लेषणात्मक, वैज्ञानिक, विषयी-निरपेक्ष विषय-केन्द्रित दृष्टि के उपकरणों का उपयोग क्या वे अपनी मूल भारतीय दार्शनिक अवधारणाओं की पड़ताल करने में कर रहे हैं? सर्वातीत, लीला, स्थावर-जंगम जैसे शब्द उनके यहाँ बार-बार हैं, और केवल शब्द ही नहीं, उनके अर्थ को स्वीकार करनेवाली चेतना भी। यह चेतना—शक होता है कि—सचेत रूप से अपनाई हुई नहीं है, बल्कि उनमें ख़ुद-ब-ख़ुद है, इस देश-प्रदेश में पलने, बढ़ने के कारण। उसकी पुष्टि तरह-तरह के अध्ययनों से, हालाँकि भारतीय अवधारणा से कुछ भिन्न रूपोंवाले स्रोतों से होती है—दॉन हुआन, बोर्खेस के हवाले द्रष्टव्य हैं। तर्क से चलकर अतर्क्य तक पहुँचना इसीलिए सम्भव है। क्षणवाद को इस तरह वे विजित करते दीखते हैं। अस्तित्ववादी अकेलेपन और संत्रास की धारणाओं का आतंक इसीलिए उन पर नहीं दीखता। अन्तत: निष्कृति का द्वार उन्हें सहज ही पता है।
Lipika
- Author Name:
Rabindranath Thakur
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- Description: ‘लिपिका’ रवीन्द्रनाथ ठाकुर का सबसे पहला गद्य-काव्य संग्रह है। किन्तु इसकी केवल एक को छोड़कर और कोई रचना कविता के तौर पर, यानी कविता आवृत्ति के छन्द के हिसाब से कभी प्रस्तुत नहीं की गई। ‘प्रश्न’ नाम की रचना को सन् 1911 में, पुस्तक प्रकाशित होने के तीन साल पहले, ‘भारती’ पत्रिका में कविता के छन्द के अनुसार छापा गया था। तो भी अगस्त, 1922 में पुस्तक प्रकाशित करने के समय कविगुरु ‘लिपिका’ को कविता-संग्रह के तौर पर छापने का साहस नहीं कर पाए। उन्होंने स्वयं ही लिखा है : ‘छापने के समय वाक्यों को पद्य की तरह तोड़ना नहीं हुआ—मैं तो मानता हूँ कि इसका कारण मेरी कायरता ही था।’ जो भी हो, ‘लिपिका’ वह कृति है जो मनुष्य के हृदय और बुद्धि की गहरी परतों को सर्वश्रेष्ठ कला के माध्यम से ऊपर उभारकर पाठक के सामने रख देती है। हर रूपक को पढ़कर एक दर्शन होता है और साथ-साथ अपने-आपको टटोलने की तरफ़ एक इशारा भी मिलता है। इस कृति की तरफ़ हिन्दी साहित्य जगत का ध्यान उतना नहीं गया है, जितना, मैं मानता हूँ, जाना चाहिए। मेरे लिए तो इसका अनुवाद करना आनन्द का एक बड़ा स्रोत रहा है। इसके कारण गुरुदेव का जो सामीप्य मिला, वह अपूर्व और बड़ा महत्त्वपूर्ण है। पाठकों के साथ इसमें भागीदारी करने का मौक़ा मिला है, उसके लिए कृतज्ञ हूँ। —भूमिका से
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