Mokshadhara
Author:
Sudhir Ranjan SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 240
₹
300
Available
सुधीर रंजन सिंह के पहले संग्रह और 'मोक्षधरा' के बीच लम्बा अन्तराल है। कारण सम्भवत: ऐतिहासिक है। ’90 के बाद की घटनाओं ने कुछ समय के लिए उन कवियों के कवि-कर्म को बाधित किया जो कविता में भविष्य को फलित करने की चेष्टा कर रहे थे। पुरानी काव्य-भंगिमाएँ बेअसर हो गई थीं।</p>
<p>यह आकस्मिक नहीं कि सुधीर रंजन सिंह ने पिछले काव्य-अभ्यास को पकड़े रहने के बजाय भर्तृहरि के काव्य-श्लोकों की अनुरचना का मार्ग पकड़ा। भर्तृहरि की नैतिक दृष्टि और विकल अन्त:ऊर्जा ने नई काव्य-स्फूर्ति पैदा कर दी। एक बिलकुल नई ज़मीन मिल गई। विकल अन्त:ऊर्जा ‘अनन्त प्रकृति’ में प्रवेश का द्वार है, जिससे गुज़रते हुए सन्तुलन बनाना आसान नहीं होता। सुधीर रंजन सिंह कवि के साथ-साथ आलोचक भी हैं। सन्तुलन बनाने में उनका आलोचनात्मक विवेक सहयोग करता है। आधुनिक कविता के काव्यशास्त्र में आलोचना का पक्ष काफी वजनदार है। सुधीर रंजन सिंह की आलोचनात्मक भंगिमा और कुछ नहीं विकल्प की चेतना है। यह ‘निद्रा अनुभव’ से बाहर निकालती है। मनुष्य और समाज को समझने की दृष्टि देती है।</p>
<p>सुधीर रंजन सिंह संकट के अनुभवों से बिना अलग हुए उल्लास और मुक्ति के उस संसार को रचने की चेष्टा करते हैं, जिसमें जीवन का अर्थ स्पन्दित होता है। उस अर्थ की लालसा, जो किसी अन्य पीड़ाहारक दिलासा से अधिक ज़रूरी है, उनकी कविता को गढ़ने का काम करती है। इस काम में ‘स्मृति की क्रीड़ा’ भूमिका निभाती है। स्मृति की क्रीड़ा यानी अनुभवों का प्रवाह। ‘मोक्षधरा’ ऐतिहासिक अनुभवों को आत्मचेतना के स्तर पर रचने और 'उत्कर्ष लोक' तैयार करने का सफल प्रयास है।</p>
<p>
ISBN: 9788126726882
Pages: 136
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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भारतीय संस्कृत साहित्य की अमूल्य थाती ‘मेघदूत’ प्रकृति तथा विपरीत परिस्थितियों में फँसे एक मनुष्य के अवचेतन रिश्ते का प्रतीक है। कालिदास ने अपनी यह महान रचना एक मिथकीय घटना के आधार पर बुनी है, जिसमें भगवान कुबेर का सेवक और अनन्त यौवन के वरदान से विभूषित यक्ष अपनी यक्षिणी के मोह के वशीभूत हो अपने स्वामी के लिए रोज़ सुबह ताज़े फूल तोड़ने का अपना कर्तव्य भुला बैठता है। इस पर क्रोधित हो कुबेर यक्ष को एक वर्ष के लिए जंगल में संन्यासी का जीवन बिताने के लिए भेज देता है।
एकान्तवास के दौरान जहाँ यक्ष का ध्यान प्रकृत और उसके तत्त्वों की ओर जाता है, वहीं उसके शरीर और एकाकी हृदय को बदलते मौसमों की मार भी झेलनी पड़ती है। परिणामस्वरूप यक्ष विभ्रम का शिकार हो जाता है। उसे प्रकृति की तमाम वस्तुओं में मानवीय क्रियाओं का आभास होने लगता है और वह उनमें अपनी भावनाओं का मनोछवियों का प्रतिबिम्ब देखने लगता है। आकाश में छाए-भरी बादलों में उसे अपना एक दोस्त दिखाई देता है जो दूर हिमालय में स्थित अलकानगरी में उसके लिए अवसादग्रस्त उसकी प्रेमिका तक उसका सन्देश लेकर जा सकता है। इस कृति में मृत्युंजय ने इतिहास और विरासत की छवियों को जिस अनूठे ढंग से समकालीन सन्दर्भों में पकड़ा है, उसके चलते यह पौराणिक नाट्य एक गीतात्मक प्रस्तुति बन गया है। पौराणिक चरित्रों और प्रतीकों को पाद-टिप्पणियों और प्राचीन ग्रन्थों के हवाले से समझाया गया है, उससे यह पुस्तक और भी पठनीय हो जाती है।
Ek Parityakt Pul Ka Sapna
- Author Name:
Saumya Malviya
- Book Type:

- Description: ये कविताएँ बीते दो-एक दशकों में उपजी बेचैनियों और निराशाओं को स्वर देने का प्रयास करती हैं। वक़्त की चोट को शब्दों में महसूसना चोट पर मरहम का ही काम नहीं करता, बल्कि उसे ज़िन्दा भी रखता है। यह संग्रह अपने ज़ख़्मों के प्रति उत्तरदायी बने रहने की अपील करता हुआ, उनके भरने की उम्मीद की व्यर्थ और अश्लील सकारात्मकता से मुक्त उम्मीद भी करता है। जैसे-जैसे इस दौर की अलामतें हम पर नुमायाँ हुई हैं, कविता, विचार और संवेदना में भ्रम और कुहासा बढ़ा है। दृश्य के धुँधलाने के साथ दृष्टि भी क्षीण होती-सी महसूस हुई है। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ इस सन्दर्भ में दृष्टि की खोज भी हैं और उसके थिर और स्पष्ट बने रहने की टॉर्च भी। हालाँकि इन कविताओं में रोशनी की दिशोन्मुखता नहीं, आग की दहनप्रियता अधिक है और इस जलने में केवल सन्ताप नहीं, प्रतिदिन की, सम्बन्धों की, स्थितियों और संघर्षों की ऊष्मा भी है जो जीवन को ठंडेपन से दूर रखते हुए जीवन्त-जाग्रत बनाए रखती है। शिल्प और भाषा के स्तर पर अपने को परस्पर काटते हुए प्रयोग भी उस विकलता को अपने में विन्यस्त करते हैं जो अन्तर्वस्तु की ज़मीन पर जगह-जगह उद्घाटित हुई है। इन कविताओं में एक कवि की यात्रा भी है जो गणित, विज्ञान, दर्शन और समाजशास्त्र की गलियों में भटकती हुई बार-बार कविता के दयार पर लौटती है। ये लौटना ही उसका अरमान भी है और उसका निकष भी। नतीजन इनमें जो धधक रहा है, कई पाँवों का चक्कर, कई हाथों की दुआ है जो हर बार कविता पर आकर ख़त्म होती है। इसलिए तमाम उत्कंठाओं और व्याकुलताओं के बाद भी इन कविताओं में एक बसेरापन भी है और अपनी जगह की ठसक भी।
Soorsagar Satik : Vols. 1-2
- Author Name:
Hardev Bahari
- Book Type:

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Description:
सूरसागर का प्रस्तुत संस्करण दो भागों में प्रकाशित हो रहा है। प्रत्येक भाग में 1000 से कुछ अधिक पद होंगे। पदों की व्याख्या करना इसका उद्देश्य नहीं है। यह सम्भव है कि किन्हीं अंशों के एक से अधिक अर्थ निकलते हों, किन्तु स्थानाभाव के कारण अनेक अर्थ दे पाना सम्भव नहीं था। पदों में जो कठिन शब्द आए हैं, उन्हें अंग्रेज़ी अंक देकर संकेतित कर दिया गया है। इससे पाठकों को स्वतंत्र रूप से अर्थ चिन्तन की सुविधा रहेगी।
भूमिका में ‘सूरसागर’ के संकलनों और संस्करणों पर विचार करने के पश्चात् ‘सूरसागर’ के दर्शन, भक्तिपक्ष, भावप्रसार, अभिव्यंजना-कौशल, पद-शैली, भाषा आदि विषयों का विवेचन किया गया है जिससे ‘सूरसागर’ की आत्मा को समझने में सहायता मिलेगी। इस प्रकार ‘सूरसागर’ के प्रस्तुत संस्करण को यथासम्भव पूर्ण और उपयोगी बनाने की चेष्टा की गई है।
Sahir Samagra
- Author Name:
Sahir Ludhianvi
- Book Type:

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Description:
साहिर लुधियानवी को जनसाधारण आम तौर पर फ़िल्मों के गीतकार के रूप में ही जानता-पहचानता है। लेकिन तथ्य यह है कि फ़िल्में उनके जीवन में बहुत बाद में आईं, उससे पहले वे एक प्रगतिशील शायर के तौर पर अपनी बड़ी पहचान बना चुके थे। फ़िल्मों ने बस उन्हें रोज़गार दिया जिसके जवाब में उन्होंने फ़िल्मों को कुछ ऐसे अमर उपहार दिए जिन्हें उन्होंने अपने ऊबड़-खाबड़ और गहरी उदासी में बीते जीवन में कमाया था।
एक ऐसे परिवार में पैदा होकर, जिसका शायरी और अदब से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था, और एक ऐसे पिता का पुत्र होकर जिसके साथ उनके सम्बन्ध कभी पिता-पुत्र जैसे नहीं रहे और एक ऐसे समाज में जीकर जिसका सस्तापन, नाइंसाफ़ी और संकीर्णताएँ उनकी उदास आँखों से बचकर निकल नहीं पाती थीं, उन्होंने वह कमाया जिसे भले ही उस वक़्त के आलोचकों ने बहुत मान नहीं दिया, लेकिन जो आम आदमी की यादों में हमेशा के लिए पैठ गया। फ़िल्मों में आने से पहले ही वे अपने समय के सबसे लोकप्रिय और चहेते शायरों में शुमार हो चुके थे।
साहिर की ऐसी कई नज़्में और ग़ज़लें हैं, और गीत भी, जिनमें उन्होंने समाज की आलोचना दो-टूक लहज़े में की है। प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़े साहिर की चिन्ताओं में गाँव में भूख और अकाल से जूझ रहे किसानों के दु:ख से लेकर शहरों में भूख के हाथों बिकतीं उन औरतों जिन्हें समाज वेश्या कहता है—तक का दर्द एक जैसी गहराई से आया है, जिसका मतलब यही है कि दु:ख को देखना, जीना और पकड़ना, शायर के रूप में यही उनका एकमात्र कौशल था, और इसी के विस्तार में उन्होंने हर माथे की हर सिलवट को पिरोकर तस्वीर बना दिया।
यह किताब उनकी रचनाओं का समग्र है, अभी तक उपलब्ध उनकी तमाम ग़ज़लों, नज़्मों और गीतों को इसमें इकट्ठा करने की कोशिश की गई है। उम्मीद है दर्द-पसन्द पाठकों को इसमें अपना वह खोया घर मिल जाएगा जो इधर की चमक-दमक में खो गया है।
Yaadon Ke Aaine Mein
- Author Name:
Ozair E. Rahman
- Book Type:

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Description:
उजैर ई. रहमान की ये ग़ज़लें और नज़्में एक तजरबेकार दिल-दिमाग़ की अभिव्यक्तियाँ हैं। सँभली हुई ज़बान में दिल की अनेक गहराइयों से निकली उनकी ग़ज़लें कभी हमें माज़ी में ले जाती हैं, कभी प्यार में मिली उदासियों को याद करने पर मजबूर करती हैं, कभी साथ रहनेवाले लोगों और ज़माने के बारे में, उनसे हमारे रिश्तों के बारे में सोचने को उकसाती हैं और कभी सियासत की सख़्तदिली की तरफ़ हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। कहते हैं, ‘साज़िशें’ बन्द हों तो दम आए, फिर लगे देश लौट आया है।’ इन ग़ज़लों को पढ़ते हुए उर्दू ग़ज़लगोई की पुरानी रिवायतें भी याद आती हैं और ज़माने के साथ क़दम मिलाकर चलनेवाली नई ग़ज़ल के रंग भी दिखाई देते हैं।
संकलन में शामिल नज़्मों का दायरा और भी बड़ा है। ‘चुनाव के बाद' शीर्षक एक नज़्म की कुछ पंक्तियाँ देखें :
सामने सीधी बात रख दी है/देशभक्ति तुम्हारा ठेका नहीं/ज़ात-मज़हब बने नहीं/बुनियाद/बढ़के इससे है कोई धोखा नहीं/कहते अनपढ़-गँवार हैं इनको/नाम लेते हैं जैसे हो गाली/कर गए हैं मगर ये ऐसा कुछ/हो न तारीफ़ से ज़बान ख़ाली। यह शायर का उस जनता को सलाम है जिसने चुनाव में अपने वोट की ताक़त दिखाते हुए एक घमंडी राजनीतिक पार्टी को धूल चटा दी। इस नज़्म की तरह उजैर ई. रहमान की और नज़्में भी दिल के मामलों पर कम और दुनिया-जहान के मसलों पर ज़्यादा ग़ौर करती हैं। कह सकते हैं कि ग़ज़ल अगर उनके दिल की आवाज़ हैं तो नज़्में उनके दिमाग़ की। एक नज़्म की कुछ पंक्तियाँ हैं :
देश है अपना, मानते हो न/दुःख कितने हैं, जानते हो न/पेड़ है इक पर डालें बहुत हैं/डालों पर टहनियाँ बहुत हैं/तुम हो माली नज़र कहाँ है/देश की सोचो ध्यान कहाँ है।
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