Mitti Ki Baraat
Author:
Shivmangal Singh 'Suman'Publisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 476
₹
595
Available
वर्ष 1974 के ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ और ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ से सम्मानित ‘मिट्टी की बारात’ हिन्दी के ओजस्वी कवि डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन का सातवाँ कविता–संग्रह है, सूरज के सातवें घोड़े की तरह। इसमें सन् 1961 से 1970 तक की अधिकांश रचनाएँ संगृहीत हैं, जो इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं कि प्रशासन की एकरसता के बावजूद सुमन जी अपने रचनाकार का धर्म पूरी मुस्तैदी से निबाहते रहे हैं।</p>
<p>‘मिट्टी की बारात’ एक काव्य–रूपक है, जिसके आधार पर इस संग्रह का नामकरण किया गया है। यह रूपक जवाहरलाल नेहरू और कमला के फूलों (अन्तिम अवशेषों) के सम्मिलित प्रयाण की गौरवगाथा है। यह इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना ही कही जाएगी कि किसी महापुरुष ने अपनी प्रियतमा के अन्तिम अवशेष इसलिए सुरक्षित रख छोड़े हों कि संसार से अन्तिम यात्रा के समय दोनों की मिट्टी साथ–साथ महाप्रयाण करेगी, साथ–साथ गंगा में प्रवाहित होगी और अविराम जीवन–क्रम में साथ–साथ सिन्धु में लय होगी। हमारे युग की एक ज्वलन्त घटना के आधार पर कवि ने यह रूपक प्रस्तुत किया है, परन्तु प्रतीक के रूप में मानव–संवेदना की इस भूमिका को सार्वकालिक और सार्वभौमिक ही समझना चाहिए।</p>
<p>पूरे संग्रह के लिए ‘मिट्टी की बारात’ शीर्षक एक प्रतीक है—‘ऐसा प्रतीक जो संग्रह की सम्पूर्ण कविताओं का प्रतिनिधित्व करता है—इन कविताओं में जीवन की धड़कन है, मिट्टी की सोंधी गंध है, जो पढ़नेवाले की चेतना को अनायास छू लेती है—ये कविताएँ मिट्टी की महिमा का गीत हैं, जिनमें कवि की प्रतिबद्धता, सांस्कृतिक दृष्टि और प्रगतिशीलता मुखरित हुई है।’
ISBN: 9788171789320
Pages: 156
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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‘‘अपने अनेक समकालीन जनवादी कवियों से मंगलेश कई अर्थों में भिन्न और विशिष्ट है। उसकी कविताओं में ऐतिहासिक समय में सुरक्षित गति और लय का एक निजी समय है जिसमें एक ख़ास क़िस्म के शान्त अन्तराल हैं। पर ये शान्त कविताएँ नहीं हैं। इन कविताओं की आत्मा में पहाड़ों से आए एक आदमी के सीने में जलती-धुकधुकाती लालटेन है जो मौजूदा अंधड़-भरे सामाजिक स्वभाव के बीच अपने उजाले के संसार में चीज़ों को बटोरना-बचाना चाह रही है और चीज़ों तथा स्थितियों को नए संयोजन में नई पहचान दे रही
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यह किताब उनकी रचनाओं का समग्र है, अभी तक उपलब्ध उनकी तमाम ग़ज़लों, नज़्मों और गीतों को इसमें इकट्ठा करने की कोशिश की गई है। उम्मीद है दर्द-पसन्द पाठकों को इसमें अपना वह खोया घर मिल जाएगा जो इधर की चमक-दमक में खो गया है।
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Chandrakant Devtale
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- Description: चन्द्रकान्त देवताले की ये कविताएँ किसी साँचे या कार्यक्रम में ढली नहीं हैं बल्कि वे दूसरों के दिए गए और वक़्त-ज़रूरत स्वयं अपने भी काव्य-एजेंडा को तोड़ती हैं। चूँकि चन्द्रकान्त ने कविताएँ लिखना उस समय शुरू किया था जब प्रतिबद्ध होने के लिए किसी कार्ड या संघ की ज़रूरत नहीं हुआ करती थी, इसलिए वे भारतीय समाज तथा जनता से जन्मना तथा स्वभावत: जुड़े हुए हैं। उनकी कविता की जड़ें बेहद निस्संकोच रूप से हमारे गाँव-खेड़े, क़स्बे और निम्न-मध्यवर्ग में हैं और वहीं से जीने और लड़ने की प्रेरणा प्राप्त करती है। और वह जीवन इतना वैविध्यपूर्ण और स्मृतिबहुल है कि कविता के लिए वह कभी कम नहीं पड़ता। चन्द्रकान्त देवताले की मौलिक प्रतिबद्धता इसीलिए हिन्दी के अवसरवादी गिरोहों और प्रमाणपत्र-उद्योग को और हास्यास्पद बना देती है। दरअसल चन्द्रकान्त जैसे कवि अपने सृजनात्मक शक्ति-स्रोतों के आगे इतने विवश रहते हैं कि उन्हें अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने के अलावा कुछ भी और परेशान नहीं करता। एक वजह यह भी है कि चन्द्रकान्त देवताले ने मानव-जीवन और अस्तित्व को कभी भी एक-आयामीय नहीं समझा है, इसलिए उनकी इन कविताओं में, और पिछली कविताओं में भी, जहाँ भारतीय समाज और राजनीति की तमाम विडम्बनाओं और कुरूपताओं के विरुद्ध एक खुला ग़ुस्सा है, वहीं परिवार, मित्रों, कामगारों, बच्चों और चीज़ों की आत्मीय उपस्थिति भी है। इनके साथ-साथ चन्द्रकान्त ने अपना एक निहायत व्यक्तिगत जीवन जीने और मानव-अस्तित्व की कुछ चुनौतियों पर चिंतन करने के अपने एकान्त अधिकार को बचाए रखा है और इसीलिए इन कविताओं में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के कई ऐसे हवाले और आयाम मिलेंगे जो हिन्दी कविता में दुर्लभ हैं। जिस ‘प्रेम’ या ‘ऐन्द्रिकता' को एक खोज की तरह कविता में वापस लाने के दावे कहीं-कहीं किए जा रहे हैं, वह चन्द्रकान्त देवताले की पिछले तीन दशकों की रचनाधर्मिता में एक प्रमुख सरोकार तथा लक्षण रहा है और यदि अन्तिम परिवर्तन मृत्यु है तो उस पर भी चन्द्रकान्त देवताले ने बिना रुग्ण हुए कुछ अद्वितीय कविताएँ लिखी हैं। काव्य-भाषा और शिल्प पर भी जाएँ तो चन्द्रकान्त देवताले की ये कविताएँ एक अत्यन्त सुखद विकास का प्रमाण हैं। अपनी अन्तरंग रचनाओं में कवि की भाषा अब अधिक से अधिक पारदर्शी हुई है और उसमें साठ और सत्तर के दशक की सघनता और गठीलापन समय और अनुभव के प्रवाह से मँजकर एक विरल संगीतात्मकता तक पहुँचे हैं। चन्द्रकान्त देवताले अपनी समष्टिपरक कविताओं में हमेशा सीधे सम्बोधन की भाषा के क़ायल रहे हैं और वैसी रचनाओं में उनके शब्द और मारक तथा लक्ष्यवेधी हुए हैं। उनके कुछ बिम्ब और कूटशब्द जैसे पत्थर, चट्टान, चाकू, समुद्र आदि इन कविताओं में भी लौटे हैं लेकिन ज़्यादा निखर कर। ‘लैब्रेडोर’ कविता शृंखला में चन्द्रकान्त देवताले ने सजगता और संघर्ष का एक सर्वथा नया तथा सार्वजनिक माध्यम चुना है जबकि ‘गाँव तो भूल नहीं सकता था मेरी हथेली पर’ तथा ‘नागझिरी’ जैसी कविताओं में वे अपने अनुभव और पाठक के बीच किसी भी अलंकरण को नहीं आने देते। ये लम्बी कविताएँ हैं और स्मरण दिलाती हैं कि ‘भूखंड तप रहा है’ जैसी रचना का यह सृजेता हिन्दी के उन बहुत कम कवियों में से है जिनसे लम्बी कविता भी सध पाती है। हिन्दी कविता के इन दिनों में जब दुर्भाग्यवश अधिकांश प्रतिभाशाली युवा और अधेड़ कवि भी बहुत जल्दी अपनी सम्भावनाओं के सीमान्त पर पहुँच रहे लगते हैं, चन्द्रकान्त देवताले की ये कविताएँ अपने प्रतिबद्ध ग़ुस्से की बार-बार धधकती उपस्थिति, गहरी मानवीयता और मर्मस्पर्शिता तथा निजी रिश्तों, संकटों, चिन्ताओं की स्वीकारोक्तियों की सदानीरा वैविध्यपूर्ण जटिलता से उन पर लौटने को बाध्य करती हैं। ‘आग’ चन्द्रकान्त के प्रिय बिम्बों में से है और उनकी कविता ठीक आग की तरह हिन्दी की अधिकांश रही कविता और आलोचना को राख कर देती है और अपनी जाज्वल्यमान उपस्थिति स्वीकारने पर बाध्य करती है। जिन कवियों को समझे बिना बीसवीं सदी की हिन्दी कविता का कोई भी आकलन बौद्धिक दारिद्र्य से विकलांग माना जाएगा, चन्द्रकान्त देवताले उनमें से एक रोमांचक, अमिट हस्ताक्षर हैं।
Shoodra
- Author Name:
Tribhuvan
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- Description: Hindi poems Shoodra by Tribhuvan
Urvashi Punah
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Puja Saxena
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- Description: Poems
Jaise Chand Par Se Dikhti Dharti
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Harjendra Chaudhary
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- Description: हरजेन्द्र चौधरी के पहले कविता-संग्रह ‘इतिहास बोलता है’ की कविताओं में जो गड़गड़ाता आवेश था, वह इस संग्रह की कविताओं में काफ़ी हद तक मंथर हो गया लगता है। समाज और संसार को अपनी अवधारणाओं, अपने सपनों के मुताबिक ढाल लेने की वह बेचैनी इन कविताओं में भी दिखाई पड़ती है लेकिन अधिक संयत, अधिक सधे हुए रूप में। चतुर्दिक घटित हो रहे सामाजिक परिवर्तन की गहरी पहचान और उसके सघन अनुभव इन कविताओं को अपेक्षाकृत अधिक 'स्थायी' प्रभविष्णुता प्रदान करते दिखाई पड़ते हैं। कवि यहाँ सामाजिक परिवर्तन की दिशा-गति के बिम्ब रचता है, जिनमें एक नैतिक आग्रह और 'रेजिस्टेंस' भाव अन्तर्निहित है। धरती पर से चाँद देखने की बजाय चाँद पर से धरती देखने-दिखाने वाली इन कविताओं में भाषा और बिम्बों की गजब की ताज़गी है। ये कविताएँ एक गहरी मानवीय संवेदना की कविताएँ हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि हरजेन्द्र चौधरी की कविताओं में किसान, कवि, औरत और बच्चे की उपस्थिति बार-बार दर्ज होती है। यहाँ इन्हें मानवीय संवेदना के बचे रहने के लक्षण और उसे बचाए रखने की चिन्ता के प्रमाणों के रूप में भी पढ़ा-देखा जा सकता है। साथ ही इन कविताओं में हम अपने 'समय का चेहरा' देख सकते हैं, जो निरन्तर बदल रहा है—जितना बाहर जीवन में, उतना ही इन कविताओं के भीतर भी। प्रतिकूल परिस्थितियाँ और मानवीय संघर्ष—दोनों की टकराहट भरी पारस्परिकता बार-बार इन कविताओं में स्थान पाती है। सामूहिक ज़िन्दगी को अनेकविध प्रभावित करने वाले 'सुदूर' कारणों को भी इन कविताओं में बिना किसी बड़बोलेपन के इतनी सहजता से स्थान दे दिया गया है कि पाठक चमत्कृत हुए बिना इनकी पकड़ में आ जाता है।
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