Main Tumhara Hoon
Author:
Muni KshamasagarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 100
₹
125
Unavailable
“अभी मुझे और धीमे/क़दम रखना है। अभी तो चलने की/आवाज़ आती है।” अपनी साधना-यात्रा में ऐसा सूक्ष्म आत्मालोचन करनेवाले सन्त-कवि क्षमासागर जी अपनी अनुभूतियों की काव्याभिव्यक्ति एवं सूक्ष्म टिप्पणियों में ऐसा कुछ कह जाते हैं कि पाठक भाव-विभोर होते-न-होते विचारोद्वेलित हो उठता है। अत्यन्त कोमलता के साथ वे मनुष्य की सांसारिकता को दर्पण के सामने सरका देते हैं। पाठक बिम्ब-प्रतिबिम्ब में स्वयं को पाकर, कवि पर रीझता हुआ विचलित हो उठता है।</p>
<p>मनीषी कवि, चिन्तक एवं विज्ञानविद् मुनिश्री क्षमासागर दिगम्बर वीतरागी मुनि हैं। सागर के</p>
<p>एक सम्भ्रान्त, धर्मनिष्ठ एवं सुसमृद्ध सिंघई परिवार में जन्मे वीरेन्द्र कुमार ने सागर विश्वविद्यालय से भूगर्भ विज्ञान में एम.टेक. की उपाधि प्राप्त कर, तपोनिष्ठ आचार्य</p>
<p>श्री विद्यासागर जी के आध्यात्मिक आलोक में, अपनी अविवाहित युवावस्था (23 वर्ष) में, गृह-त्याग कर दीक्षा अंगीकार कर ली थी। वीरेन्द्र कुमार ने नया नाम पाया था, क्षमासागर। गृहस्थावस्था में वे घर-भर के लाड़ले थे। जीवन में न कहीं निराशा थी, न हताशा। न कहीं कोई असफलता, न कोई विरक्तिप्रेरक कटु प्रसंग। स्वेच्छा और स्वप्रेरणा से आत्मकल्याण की ओर वे प्रवृत्त हुए थे।
ISBN: 9788183612968
Pages: 80
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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एक ऐसे समय में ‘जिसमें न स्मृतियाँ बची हैं/न स्वप्न और जहाँ लोकतंत्र एक प्रहसन में बदल रहा है/एक विदूषक किसी तानाशाह की मिमिक्री कर रहा है’—ये कविताएँ हमें निर्प्रश्न अनुकरणीयता के मायाजाल से निकलने का रास्ता भी देती हैं, और तर्क भी।
कवि देख पा रहा है कि ‘सिकुड़ते हुए इस जनतंत्र में सिर्फ़ सन्देह बचा है’, ताक़त के शिखरों पर बैठे लोग नागरिकों को शक की निगाह से देखते हैं, तरह-तरह के हुक्मों से अपने को मापते हैं; कहते हैं कि साबित करो, तुम जहाँ हो वहाँ होने के लिए कितने वैध हो, और तब कविता जवाब देती है–‘ओ हुक्मरानो/मैं स्वर्ग को भूलकर ही आया हूँ इस धरती पर/तुम अगर मुझे नागरिक मानने से इनकार करते हो/तो मैं भी इनकार करता हूँ /इनकार करता हूँ तुम्हें सरकार मानने से!’
लगातार गहरे होते राजनीतिक-सामाजिक घटाटोप के विरुद्ध पिछले चार-पाँच सालों में जो स्वर मुखर रहते आए हैं, राजेश जोशी उनमें सबसे आगे की पाँत में रहे हैं। इस संग्रह की ज़्यादातर कविताएँ इसी दौर में लिखी गई हैं। कुछ कविताएँ महामारी के जारी दौर को भी सम्बोधित हैं जिसने सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने के सरकारी उद्यम पर जैसे एक औपचारिक मुहर ही लगा दी–‘सारी सड़कों पर पसरा है सन्नाटा/बन्द हैं सारे घरों के दरवाज़े/एक भयानक पागलपन पल रहा है दरवाज़ों के पीछे/दीवार फोड़कर निकल आएगा जो/किसी भी समय बाहर/और फैल जाएगा सारी सड़कों पर!’
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