Khurduri Hatheliyan
Author:
AnamikaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
अनामिका की कविताएँ एक व्यापक अर्थ में गहरे वात्सल्य और हँसमुख दोस्त-दृष्टि की सधी अभिव्यक्तियाँ हैं। स्त्री के लेंस से वृहत्तर समाज की क्लिष्ट विडम्बनाएँ देखती-समझती इन कविताओं में एक महीन-सी परिहास वृत्ति भी है, गम्भीर क़िस्म की एक क्रीड़ाधर्मिता–सत्य को समग्रता में समझने की ईमानदार कोशिश!</p>
<p>लोकरंग में रची-बसी इस समाद्रित स्त्री कवि की शब्द और बिम्ब-सम्पदा के स्रोत अनन्त हैं। यहाँ लोकजीवन का कोई अनूठा प्रसंग विश्व-साहित्य के किसी मार्मिक प्रसंग की उँगली पकडक़र उसी तरंग में उठता है जिसमें चेखव की ‘तीन बहनें’ उठती थीं। मिलकर देखे एक सपने का तबोताब है इनमें!</p>
<p>मुहावरे, कहावतें, पढ़ा-सुना-भोगा हुआ– सब कुछ एक अलग कौंध में उजागर करती इन कविताओं में स्त्री-भाषा अपने पूरे ठस्से के साथ अपनी अलग-सी उपस्थिति दर्ज करती है।
ISBN: 9788119989515
Pages: 183
Avg Reading Time: 6 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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- Description: कवि ने प्रथम पृष्ठ पर ही शीर्षक के नीचे टिप्पणी दी है –“ कृष्ण-रूप में कंस जैसे हर शासक के प्रति “, जिससे मुख्य मन्तव्य स्पष्ट हो जाता है ‘ करारे व्यंग्य – देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर ‘ | रमेशराज के व्यंग्यों की ख़ास बात यह है कि स्तरहीनता नहीं, कहीं अशिष्टता नहीं, न कहीं मर्यादा का उल्लंघन, फिर भी करारे प्रहार | जीवन का भोगा हुआ यथार्थ जैसे साकार सामने खड़ा हो | कैसी सहज-सरल अभिव्यक्ति, लक्ष्य की ओर दनदनाते-सनसनाते तीर की तरह – जन को न रोटी-दाल, जै कन्हैयालाल की नेताजी को तर माल, जै कन्हैयालाल की! नीति है कमाल की !! व्यंग्य को अधिक धारदार और मारक बनाने के लिए कवि ने उद्धव-गोपी प्रसंग को बड़ी होशियारी के साथ जोड़ दिया है- ऊधौ देश पर आप कर्ज विश्वबैंक का लाद-लाद हो निहाल, जै कन्हैयालाल की ! नीति है कमाल की !! कथ्य की सशक्तता के साथ कवि का कौशल भी प्रभावित करता है | इसे मैं उक्ति-वैचित्र्य का कमाल मानता हूँ, साथ ही वर्ण-मैत्री भी निर्दोष एवं प्रभावी है | प्रकृति से जो प्रतीक लिए गए हैं वे कवि के मन्तव्य को भी स्पष्ट करते हैं तथा उनसे काव्य में कलात्मक विम्ब-सौन्दर्य भी प्रभावित करता है | देखिये एक उदाहरण – खुशियों का मानसून अँखियों से दूर है सूख गए सुख-ताल, जै कन्हैयालाल की ! नीति है कमाल की !! कवि ने अपने कथ्य को अधिक ग्राह्य बनाने के लिए पौराणिक इंगित भी दिए हैं | कहीं विरोधाभास से अपना मन्तव्य स्पष्ट किया है तो कहीं आधुनिक योजनाओं की विडम्बनाओं की ओर इंगित है – केवल अंगूठे नहीं मांगें आज द्रोण जी भील को करें हलाल, जै कन्हैयालाल की ! नीति है कमाल की !!
Samay Ka Hisab
- Author Name:
Vandana Devendra
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Description:
जितना अचरज यह जानकर होता है कि पिछले क़रीब दो दशकों से लिखते रहने के बावजूद वंदना देवेन्द्र ने अब तक अपनी कोई भी रचना किसी पत्र-पत्रिका में नहीं दी है, उससे कहीं ज़्यादा अचम्भा उनकी इन कविताओं की गहराई, वैविध्य और विस्तार को देखकर होता है। मसलन हम पूछते रह जाते हैं कि जिस कवयित्री ने ‘छाते’ और ‘रँगे हाथ’ सरीखी मृदु, गीतात्मक रचनाएँ दी हों, वह ‘राक्षस पहले राक्षस थे’ या ‘धूमिल’ का स्मरण दिलानेवाली ‘उत्तर प्रदेश’ जैसी निर्मम, यथार्थवादी, राजनीतिपरक कविताएँ कैसे लिख सकी ? यदि ‘विजेता’ और ‘राजा था कन्नौज’ में वंदना इतिहास तथा सामन्ती मानसिकता को लेकर नए प्रश्न उठाती हैं तो ‘ताजमहल के बाद’ और ‘कोई चिल्लाता है’ में वे भारतीय और वृहत्तर मानव-इतिहास को एक विसंगति-भाव से देखती हैं, और ‘समय का हिसाब’ में वे इतिहास से भी आगे जाकर करोड़ों सूर्य, लाखों आकाश गंगाओं के बीच अपने कबाड़ के साथ हमारे प्रवेश की बात करती हैं और इससे पहले कि हम यह समझें कि वे ‘बड़े’ विषयों की महत्त्वाकांक्षी कवयित्री हैं, ‘रंग बिरंगे पाल’ और ‘कविता जैसा’ की उदास एकान्तिकता उनकी निजी संवेदनशीलता का परिचय दिलाती है।
वंदना एक (चर्चित) चित्रकार भी हैं और अपने इस फ़न का विनम्र, स्वाभाविक संकेत उन्होंने अपनी कुछ कविताओं में दिया भी है किन्तु हमारे लिए महत्त्वपूर्ण यह है कि शायद उनकी चित्रकार-प्रतिभा उन्हें भारतीय मानवीयता की विभिन्न रंगतों और सूक्ष्म तथा स्थूल रेखाओं को देखने में मदद करती है—या उनका कवि उनके चित्रकार के इस तरह काम आता हो, या दोनों ही वक़्त-ज़रूरत एक-दूसरे को प्रेरित करते हों। बहरहाल, नतीज़ा यह है कि उनकी कविता का कैनवस एक अद्भुत वैराट्य लिए हुए है और उसमें स्टिल लाइफ़, पोर्ट्रेट, व्यक्ति-समूह, लैंडस्केप (जो उनकी पर्यावरण-चेतना का हिस्सा है), पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, कीट-पतंग आदि सब-कुछ है। उनकी रचनाओं में यदि निजी, पराए और वृहत्तर सामाजिक दु:ख-तकलीफ़ों के गाढ़े रंग हैं तो छोटी-बड़ी ख़ुशियों, विसंगतियों, चुनौतियों, शरारत और व्यंग्य के शोख़-चटख़ वर्ण भी हैं।
शायद सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि वंदना देवेन्द्र की सृजनशीलता के मूल में एक ऐसी सामाजिक तथा नारी-प्रतिबद्धता है जो उन्हें एक अनूठी अस्मिता देती है। एक स्तर पर वे अमेरिकी राष्ट्रपति से भारतीय लुम्पेन राजनेताओं तक को, यानी भूमंडलीय से देशी राजनीति तक को, पहचानती हैं तो दूसरे स्तर पर वे स्त्री, पत्नी, माँ होने के अपने निजी अनुभव-संसार के साथ-साथ किसी लड़की, सहेली, फुलनियाँ, कम्मो आदि की जीवनियों को भी जानती हैं। नारी-प्रवृत्ति तथा औरत की आज़ादी पर आजकल बहुत-कुछ कहा लिखा जा रहा है लेकिन ‘रे फुलनियाँ भाज धरी’ जैसी लोकगीतनुमा कविता में वंदना ने एक असहाय विवाहिता का एक नया, चौंकानेवाला रूपान्तर प्रस्तुत किया है। फ़िरोज़ाबाद के चूड़ी बनानेवाले पर उनकी कविता ‘चूड़ियाँ’ हिन्दी के लिए एकदम नई है और दंगों में अपना जवान बेटा खो चुके बूढ़े मुस्लिम पर लिखी उनकी छोटी कविता ‘बेटा’ काव्य के उद्देश्य और असामर्थ्य को मार्मिकता से उभारती है।
‘कमल’, ‘बादशाह’, ‘सोचते हुए लोग’, ‘पेंटर’ आदि उनकी ऐसी रचनाएँ हैं जो अपनी दृष्टि और कला में हिन्दी के किन्हीं भी बेहतर कवि-कवयित्रियों के समकक्ष निस्संकोच रखी जा सकती हैं। कुछ अत्यन्त निजी अनुभवों और स्मृतियों पर चन्द ऐसी कविताएँ वंदना ने लिखी हैं जो उनके काव्य-विश्व को और जटिल तथा चुनौतीपूर्ण बनाती हैं। यह देखकर हैरत होती है कि उन्होंने यह सब एक ऐसी भाषा और शैली में उपलब्ध किया है जो अपनी सादगी में इतनी कारगर हैं कि उन्हें शब्दों या शिल्प के चमत्कार की ज़रूरत नहीं पड़ती। उनकी कविता में पश्चिमोत्तर उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक तथा संघर्षशील स्त्री-पुरुष-किशोर-बच्चे वैसे ही स्वाभाविक ढंग से मौजूद हैं जैसे कि वे वास्तविक भारतीय समाज में उपस्थित हैं। शिनाख़्त के लिए कह सकते हैं कि वंदना देवेन्द्र अनायास ही कात्यायनी, सविता सिंह, अनीता वर्मा, नीलेश रघुवंशी, अनामिका, निर्मला गर्ग जैसी प्रासंगिक कवयित्रियों में उल्लेख्य हो गई हैं जबकि सच यह है कि इन सबके साथ वे उस वृहत्तर सर्जक पीढ़ी में शामिल हैं जो रघुवीर सहाय के बाद हिन्दी कविता को अपूर्व विस्तार, वैविध्य और समृद्धि प्रदान कर रही हैं।
—विष्णु खरे
Unbosoming
- Author Name:
Samridhi Prakash
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- Description: Poetry is the mist tying our human souls together in intricate, compelling knots of life (and lies). ‘unbosoming’ is the maiden attempt of Samridhi to unravel these knots while struggling to trap the waves of self-loathing, anger, doubt and fear inside the tip of her pen every night. For it’s always better to brandish a pen than a knife. This book is about the webs we spin and trip over, again and again, only to smile for others the next morning and crumble within ourselves again at night. ‘unbosoming’ is the secret child of such spirals, scribbled over for months. It is the journey of the pleasure of self-abuse and acceptance and redemption and the faint knowledge of hope.
Dakkhin Tola
- Author Name:
Anshu Malviya
- Book Type:

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Description:
अंशु मालवीय की कविताओं का विषय-व्यास अनेक दिशाओं में फैला हुआ है। यूँ तो इस संग्रह का प्राथमिक स्वर राजनैतिक विद्रूपता का है पर दीगर स्वर भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। यहाँ भँवरी देवी, शाहबानो, मिथिलेश, सगुनाबाई आदि की शोषण-गाथाएँ हैं। वे स्त्रियाँ भी हैं जो निर्जला व्रत रखकर पसीना चुआते हुए काम कर रही हैं। शोहदों के कन्धों की रगड़ झेलते हुए काम पर जा रही हैं। वे जलती औरतें हैं जो धर्म के कारखाने में दिहाड़ी मजदूर थीं। अंशु की कविताओं में ‘दक्खिन टोला’ का दैनिक जीवन, वहाँ की संस्कृति, भाषा और सुख-दुख आम जन के दुखों से अलग एक दूसरी दुनिया के लगते हैं। वहाँ से गान नहीं रुदन उठता है। भाषा का अर्थ अपभ्रंश और बोली के माने अभंग है। संस्कारों की वृहद सूची में मेहनत के अलावा कोई संस्कार नहीं है।
ये कविताएँ बताती हैं कि साम्प्रदायिकता और राजनीति के सम्बन्ध कितने अन्तर्गुम्फित हैं। ‘कौसर बानो की अजन्मी बिटिया की ओर से’ जैसी अमानुष और कलपाती हुई कविता हो या फिर ‘खून’, ‘गाय’ और ‘यूसुफ भाई’ जैसी कविताएँ। कोई जरूरी नहीं कि हर खेल लपटों की तरह ही दिखे, वह शान्त और अनुत्तेजक भी हो सकता है। ‘न कोई वीभत्स मुखौटा न नाखून, न खून के धब्बे... बस कोई दोस्त आपसे पूछ लेगा, तुम्हारा मजहब क्या है? और आपकी रीढ़ बर्फ की तरह ठंडी हो जाएगी।’ तुलसीदास का अपनी चौपाइयों, दोहों को नारा हो जाते देखना, एक पेड़ का वह एहसास है जो अपनी लकड़ियों से सलीब बनते देख रहा है।
प्रेम और पारिवारिकता की इस संग्रह में भरपूर समाई हुई है। असमय चले गए पिता से कविता और राजनीति पर बहस करने की अपूर्ण इच्छा है। माँ-पिता के प्रणय पलों की सात्विकता है। वह गेहुँआ आलस्य है जो माँ बनने की प्रक्रिया में स्त्री देह पर छा जाता है। अंशु की कविता का यह एक छोर है, दूसरे छोर पर हो ची मिन्ह की दाढ़ी है जिसे वे वियतनाम के जंगल कहते हैं जिनमें साम्राज्यवादियों के सपने भटक जाते थे। अंशु मालवीय अपनी कर्मशील रचना-यात्रा में आज एक समादृत कवि के रूप में हमारे सामने हैं। खुशी की बात है कि वर्षों से अनुपलब्ध अंशु का ये चर्चित कविता-संग्रह पाठकों के बीच कविता के उसी तेवर के साथ दोबारा उपस्थित है जिसकी कमी की बात बार-बार की जाती रही है।
—हरीश चन्द्र पाण्डे
Is Shahar Mein Tumhen Yaad Kar
- Author Name:
Virbhadra Karkidholi
- Book Type:

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Description:
'इस शहर में तुम्हें याद कर' संग्रह की कविताएँ इसी दुनिया में एक ऐसी धरती की कविताएँ हैं, जहाँ आसमान में जब काले बादल मँडराते हैं, धरती बिवाइयों की तरह फटती है और अपनी पीड़ा किसी से नहीं कह पाती; जहाँ कुछ लोग बाज और चील की तरह अपनी उड़ान में शामिल हैं और कुछ उन तोते-मैना की तरह हैं जिनके पंख काट दिए गए हैं; जहाँ दया और प्रेम की हत्याएँ होती हैं तो अपराधियों के अपराध की सज़ा एक निरपराध को भुगतना पड़ता है; जहाँ एक भागा हुआ आदमी भागकर भी कहीं नहीं भाग पाता, वापस वहीं आ जाता है अपनी ग़लती पुन: दुहराने; जहाँ बूट रौंदते हैं सड़कों को तो आह में बस पिघलने को अभिशप्त पर्वत देखते रह जाते हैं कि रात में श्रमिकों की ख़ुशियों को जलानेवाले ही दिन में संरक्षक हैं...। ऐस में कवि की यह अदम्य जिजीविषा ही है कि वह अपनी आग से सृजन की ही कामना करता है और कहता है—'...तुम्हारे कारावास से परे/जो जीवन है/नितान्त नवीन जीवन/वहीं से गुज़रने दो/कि मैं तुम्हारी ईश्वरीय दुनिया में/पुन: एक युग ईश्वरहीन होकर जी सकूँ!
इस संग्रह की कविताएँ अपनी पीठ पर अपना बोझ लेकर अपने पैरों से यात्रा करनेवाले कवि की कविताएँ हैं, जो अपने वितान-उद्देश्य में जितनी मनुष्यों की उतनी ही प्रकृति की हैं—सुख, दु:ख, संघर्ष और सौन्दर्य के साथ; अपनी बोली-बानी, संस्कृति और सभ्यता के साथ; बदलते समय में सत्ता और समाज के बीच निरन्तर प्रदूषित होते कारकों के साथ—इसीलिए ये कविताएँ अपने पाठक से मुखर होकर संवाद भी करती हैं।
प्रेम है, बिछुड़न है और उसकी यादें भी हैं जो कवि की अपनी ज़मीन की ऋतुओं और पर्वतों की तरह जीने की कला में शामिल हैं, और इस तरह जैसे थाह के आगे अथाह की अभिव्यक्ति हों; वह कैनवस हों जहाँ कहने-भूलने के सम्बन्धों की हार-जीत का कोई भी चित्र बनाना बेमानी है। ईश्वर है तो आध्यात्मिक चेतना के उस रूप में जिससे कुछ कहा जा सके, जिसका कुछ सुना जा सके। आँसुओं में मन की बातें देखने-समझने की ये कविताएँ जो अनूदित होने के बावजूद अपरिचित नहीं लगतीं—साथ जगते हुए जीने की कविताएँ हैं।
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