Khatam Nahin Hote Baat
Author:
BodhisatwaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 316
₹
395
Available
जीने का सहजबोध और उसको सहारती–सँभालती दुधमुँही कोंपलों–सी कुछ यादें, कुछ कचोटें, कुछ लालसाएँ और कुछ शिकायतें। बोधिसत्व की ये कविताएँ समष्टि–मानस की इन्हीं साझी ज़मीनों से शुरू होती हैं, और बहुत शोर न मचाते हुए, बेकली का एक मासूम–सा बीज हमारे भीतर अँकुराने के लिए छोड़ जाती हैं। इन कविताओं की हरकतों से जो दुनिया बनती है, वह समाज के उस छोटे आदमी की दुनिया है जिसके बारे में ये पंक्तियाँ हैं : ‘‘माफ़ी माँगने पर भी/माफ़ नहीं कर पाता हूँ/छोटे–छोटे दु:खों से/उबर नहीं पाता हूँ/पावभर दूध बिगड़ने पर/कई दिन फटा रहता है मन/कमीज़ पर नन्ही–सी खरोंच/देह के घाव से ज़्यादा देती है दु:ख।’’ (छोटा आदमी)</p>
<p>छोटे आदमी की यह दुनिया जिस पर आज क़िस्म–क़िस्म की बड़ी चीज़ें और दुनियाएँ निशाना साध रही हैं, अगर सुरक्षित है, और रहेगी, तो उन्हीं कुछ छोटी चीज़ों के सहारे जिन्हें बोधिसत्व की ये कविताएँ रेखांकित कर रही हैं। मसलन साथ पढ़ी मुहल्ले की उन लड़कियों की याद जिनके बारे में अब कोई ख़बर नहीं (‘हाल–चाल’); गाँव के वे बेनाम–बेचेहरा लोग जिनके सुरक्षित साये में बचपन बीता, और आज महानगर की भूल–भुलैया में जिनकी फिर से ज़रूरत है (‘मैं खो गया हूँ’); अपने घावों में सबको पनाह देनेवाली उस आवारा लड़की का प्यार जिसके अपने पास कोई जगह कहीं नहीं (‘कोई जगह’)। और ऐसी ही अन्य तमाम चीज़ें जो हम साधारण जनों के संसार को हरा–भरा रखती हैं, इन कविताओं के माध्यम से हम तक पहुँच रही हैं।</p>
<p>‘लालच’ शीर्षक कविता में व्यक्त इस छोटे आदमी की नग्न लालसा हिन्दी कविता को एक नया प्रस्थान बिन्दु देती प्रतीत होती है। लग रहा है कि थोड़ी हिचक के साथ ही, लेकिन अब वह उन सुखों में अपनी भी हिस्सेदारी चाहता है, जिनका उपभोग बाक़ी पूरा समाज इतने निर्लज्ज अधिकारबोध के साथ कर रहा है। ‘ख़त्म नहीं होती बात’ के रूप में कविता–प्रेमियों के सम्मुख यह ऐसी कविता–पुस्तक है जो काव्य–प्रयोगों के लिए नहीं अपने भाव–सातत्य और वैचारिक नैरन्तर्य के लिए महत्त्वपूर्ण है।
ISBN: 9788126718849
Pages: 128
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता की ग़ज़लों में न तो अतिशय भावुकता है और न ही अतिरंजित क्रांतिकारिता। वे सहज अभिव्यक्ति के शाइर हैं। उनकी शाइरी में जीवनानुभवों की विविधता भी है और संवेदना की गम्भीरता भी। वे अपने इर्द-गिर्द के जीवन को देखते हैं और उसे शेर में ढालते हैं। इसीलिए इस सवाल का जवाब ढूँढ़ना लाजिमी है कि आख़िर उनकी ये ग़ज़लें किसकी ख़ातिर है? जाहिर है कि लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता की ग़ज़लें न तो विशुद्ध बुद्धिजीवियों के लिए हैं और न ही बगैर कुछ समझे-बूझे 'वाह-वाह' करने वाले मजमे के लिए। उनकी ग़ज़लें तो ऐसे लोगों के लिए हैं जो अपने समय और समाज की हक़ीक़त से वाक़िफ़ हों। न सिर्फ़ वाक़िफ़ हों बल्कि उद्वेलित भी। - अब्दुल बिस्मिल्लाह लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता की ग़ज़लों की आर्ट गैलरी से गुज़रते हुए बड़ी शिद्दत से ये एहसास होता है कि उन्होंने अपनी ग़ज़लों को पहले पूरी ईमानदारी से जिया है फिर उन्हें कैनवस पर उतारा है, साथ ही अपने अनुभव की तूलिका से ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं को उकेरने की कामयाब कोशिश की है। लक्ष्मण की ग़ज़लों की लय मध्यम, गुफ़्तगू का अन्दाज़ नर्म और सोच में पवित्रता है। उनकी ग़ज़लों में पामाल होते इंसानी रिश्तों का दर्द, एक-दूसरे के प्रति बढ़ती संवेदनहीनता का दुख, तथाकथित तरक्की के पीछे अंधाधुंध भागने के क्रम में आपसी प्रेम, सौहार्द, भाईचारा से दूर होते जाने का ग़म, सर से पाँव तक स्वार्थ में डूबी राजनीति के प्रति मन में क्षोभ तथा सारे संसार को प्रेम के सूत्र में बाँध देने की छटपटाहट भी है। - हातिम जावेद
Udhav Satak
- Author Name:
Jagannath Das Ratnakar
- Book Type:

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Mera Ujar Pados
- Author Name:
Dinesh Jugran
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- Description: ‘मेरा उजाड़ पड़ोस’ दिनेश जुगरान का चर्चित काव्य-संग्रह है। संग्रह की कविताएँ हमारे आज के आस्थाहीन समय के सत्य और संकट को, जिसमें जीवन-मूल्य पूरी तरह अपनी क़दरो-क़ीमत खो चुके हैं, एक अत्यन्त प्रभावशाली भाषा और मुहावरे में परिभाषित करती हैं। इनमें उस शफ़्फ़ाक़ और बेहिस दुनिया की परतें खुलकर सामने आती हैं जिसमें 'होशियार लम्हों' की 'साज़िश' के चलते, यह एहसास कि 'ज़हरीले बीज, टूटे फावड़े और/बिना धार की खुरपियों से/नई क्यारियाँ कैसे बनेंगी', एक गहरी उदासी और असहायता का बोध छोड़ जाता है। लेकिन यह हार मान लेनेवालों की कविताएँ नहीं हैं। इनका सरोकार ज़िन्दगी से है जहाँ हार-जीत साथ-साथ चलते हैं। दुनिया का बिगाड़, दिनेश जुगरान पर भी इस तरह असरअन्दाज़ होना चाहता है कि वह भीड़ का हिस्सा और ख़ुद अपना तमाशा हो जाएँ, लेकिन इससे उनकी ज़िन्दगी के लिए शिद्दत और गर्मजोशी कम नहीं होती। वह कहते हैं—'मैंने अभी तक/हार नहीं मानी है/जीना चाहता हूँ/अपना ही किरदार/धरती को रख लिया है/अपनी ज़बान पर/और पहाड़ों की धड़कनों को/पहन लिया है अपनी साँसों में।' दिनेश जुगरान की कविता हमें अपने अन्तराल तक देखने की शक्ति प्रदान करती है और लगता है हम किसी जादुई गोले में अपनी ज़िन्दगी के अन्तर्विरोधों से रू-ब-रू होते हुए उन रहस्यों तक पहुँच रहे हैं जिन पर किसी कारणवश अभी तक पर्दा पड़ा हुआ था। वे कविताओं के लिए ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की पड़ताल करते हुए, उसका अतिक्रमण करने का प्रयास भी करते हैं। कविता दिनेश जुगरान के लिए किसी बदलाव का नारा नहीं, व्यक्ति के स्वतंत्र होने का एहसास है। उनका लहज़ा, ख़ुद से बात करने का, और कविता का परिदृश्य एक बड़ी दुनिया के उजाड़ होने का ख़तरा और वह कुछ महत्त्वपूर्ण, जो उसके विरोध में किए जाने से रह गया, जिसका किया जाना अब पहले से भी ज़्यादा ज़रूरी मगर दुश्वार है। कविता तब होती है जब शब्द पहचाने अर्थ से बाहर जाकर नए जीवन-सत्यों को पारदर्शिता के साथ सामने रख पाएँ। दो वाक्यों के बीच की ख़ामोशी ही कभी-कभी वह रहस्यात्मकता होती है जिसे समझने में उम्रें बीत जाती हैं। जीवन की हर यात्रा दिनेश जुगरान के भीतर से गुज़रकर किसी बिम्ब, उपमा या प्रतीक में रूपान्तरित होती, ऐसे विरोधाभासों का सामना कराती है, जो लगता है किसी और तरह से व्यक्त कर पाना सम्भव नहीं हो सकता। जैसे मैं देख और समझ सकता हूँ, उस एक मछली को जो ‘पानी से ऊपर उठाकर मुँह’ किसी को पुकारना चाहती है; जान सकता हूँ, उस ‘अज्ञात भय’ के टुकड़े को जो ‘उन डरी हुई तितलियों में/शामिल हो गया है/जो पहाड़ों से/नीचे गिर रही हैं।’ ‘आने से पहले ही चुपचाप/गुज़र जाता है लम्हा’ के अनुभव का शरीक, मैं महसूस कर सकता हूँ—‘मेरी डूबी हुई नाव का/सबसे मज़बूत हिस्सा/मेरी हथेलियों में/अभी भी चिपका हुआ है।’ या ‘सूर्योदय और सूर्यास्त का/फ़ासला’ ‘किस प्रकार पिता के माथे की लकीरों में/नापा जा सकता है’, और कैसे ‘बचपन के रहस्य/अन्दर ही अन्दर जकड़ गए हैं/चेहरे और शब्दों के दायरे/अब मुझे बाँध नहीं पाते/मेरे अन्दर की शीशे की खान/चूर-चूर हो चुकी है।’ जब वह कहते हैं—‘उसके नन्हे आँसू/एक दरिया छीनकर ले गया है’ तो जो मर्म उत्पन्न होता है, वह किसी दूसरी शब्दावली में कल्पना कर पाना सम्भव नहीं लगता। इसे उनकी भाषा पर अद् भुत पकड़ भी कहा जा सकता है और ज़िन्दगी की असलियत की गहरी समझ भी। उनकी भाषा और मुहावरा आनेवाले समय में लिखी जानेवाली कविता पर, देर तक और दूर तक, असरअन्दाज़ होगा। दिनेश जुगरान अपनी कविता में जिस रूपक का प्रयोग करते हैं, वह उनके दुनिया के अनुभव और निजी सोच के द्वन्द्वात्मक संघर्ष का निचोड़ होता है। आपबीती के जगबीती बनने की प्रक्रिया में निजी जीवन-सत्य व्यक्तिगत सीमाओं का अतिक्रमण कर विराट जीवन-सत्य के विभिन्न रूप रच लेते हैं। संक्षेप में ‘मेरा उजाड़ पड़ोस’ एक ऐसा महत्त्वपूर्ण काव्य-संग्रह है, जो हमारे मुश्किल संकटग्रस्त समय को आईना दिखाते हुए, हमें अपने भीतर के उजाड़ तक देखने की सलाहियत देता है। लगता है—‘हवा के वजन की तरह/लम्हा चेहरे पर उतरता हुआ’ के अन्दाज़ में। —मंज़ूर एहतेशाम
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