Pad Kupad
Author:
Ashtbhuja ShuklaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 160
₹
200
Unavailable
‘पद-कुपद’ हिन्दी कविता की जनोन्मुख परम्परा में एक प्रतिमान है। अष्टभुजा शुक्ल ऐसे कवि हैं जिन्हें मनुष्यता के मौलिक मर्म का गहन ज्ञान है। उनकी कविताओं में वह गाँव और क़स्बा है जिसका संघर्ष निरन्तर बढ़ता जा रहा है। राजनीति और अर्थशास्त्र की भूमंडलीय परिभाषाओं के सम्मुख जो जीवन प्रायः भूलुंठित दिख रहा है, उसका प्रतिरोध अष्टभुजा शुक्ल की रचनाओं में गतिशील है।</p>
<p>पद-शैली में अष्टभुजा की ये अधिकांश रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर पहले ही पाठकों-आलोचकों की प्रशंसा प्राप्त कर चुकी हैं। यह छन्द की वापसी जैसा कोई उपक्रम नहीं है, बल्कि शताब्दियों से आ रही कबीरी पुकार का पुनर्नवन है। स्वीकृत पद-शैली के आयतन में कवि ने समकालीन समाज के अन्तर्विरोधों व अन्तःसंघर्षों को व्यक्त किया है।</p>
<p>‘लोहे के कुछ चने सुबह थे, सायं जिन्हें भिगोया/पानेवाले राज पा गए, अष्टभुजा सब खोया।’ —आम जन के दु:ख-दर्द को प्रकट करते हुए अष्टभुजा शुक्ल इसके लिए उत्तरदायी व्यक्ति, प्रवृत्ति, व्यवस्था तक जाते हैं। जिस प्रखर राजनीतिक विवेक की आज हिन्दी कविता में सर्वाधिक आवश्यकता है, वह ‘पद-कुपद’ का प्राण-तत्त्व है।</p>
<p>शब्द की त्रिशक्ति के पारखी अष्टभुजा शुक्ल के इन पदों में व्याप्त व्यंग्य अनायास कवि नागार्जुन की याद दिलाता है। इन रचनाओं में जाने ऐसे कितने शब्द हैं जो विस्मृतप्राय पुरखों की तरह सामने आ खड़े होते हैं। कहना न होगा कि यह काव्यभाषा केवल अष्टभुजा के रचना-संसार में ही सम्भव है। यदि एक उदाहरण देना हो तो गन्ना पर रचा पद पढ़ा जा सकता है। बीस पंक्तियों में समूचा जीवन और उसका दर्शन समाया है—‘कटकर, छिलकर, निचुड़-निचुड़कर होकर गेंड़ी-गेंड़ी/अष्टभुजा की गाँठ बची तो फिर पनपेगी पेंड़ी’।</p>
<p>‘पद-कुपद’ वस्तुतः हिन्दी की जातीय कविता का अर्थवान विस्तार है। पथरीले यथार्थ के बीच अदम्य जिजीविषा की दूब अर्थात् अनहारी हरियाली की पहचान इन पदों को महत्त्वपूर्ण बनाती है।
ISBN: 9788126723409
Pages: 96
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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दिनेश कुशवाह संवेदनात्मक ज्ञान के आलोचकीय विवेक सम्पन्न कवि हैं। उनकी कविताएँ सहजबुद्धि के विवेक से उपजी रचनाएँ हैं; इसीलिए मुक्त छन्द में होने के बावजूद उनमें संगति, गत्यात्मकता, आन्तरिक लय, संवेदना एवं प्रेम के स्वर प्रमुख हैं। व्यक्तियों, सम्बन्धों, स्थानों पर केन्द्रित दिनेश कुशवाह की कविताएँ स्मृति, आत्मीयता और मूल्यांकन की ईमानदार मनुष्योपयोगी कलाकृतियाँ हैं।
दिनेश कुशवाह की प्रेम कविताओं में प्रेम समाजशास्त्रीय या मनोवैज्ञानिक अध्ययन के विषय के रूप में जीवनीशक्ति की तरह आता है—आर्द्र और ऊष्ण! विषयों की विविधता, प्रगतिशील मूल्यों की पक्षधरता एवं परकाया प्रवेश से कवि ने अपनी कविताओं का संसार उदार एवं व्यापक बनाया है। दिनेश कुशवाह की लड़की विषयक, अभिनेत्रियों पर और ‘एकलव्य की तरफ़ से’ जैसी कविताएँ उतनी ही प्रामाणिक हैं जितनी हमारी नज़रों के सामने की यह दुनिया। ‘लड़की और सोना’, ‘नदी’ तथा ‘खजुराहो में मूर्तियों के पयोधर’ सौन्दर्य के दोनों पक्षों की गंगा-जमुनी कृतियाँ हैं। संक्षेप में दिनेश कुशवाह की सौन्दर्य-दृष्टि दार्शनिक महत्त्वाकांक्षा रखती है।
कविताओं में मौजूद प्रवाहमयता, रागात्मकता, ओजस्विता के प्रसंग में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दिनेश कुशवाह का कवि-कर्म विद्यापति के अपरूप रूप, तुलसी के कवित्व विवेक, कबीर की आँखिन देखी, मीर-ग़ालिब की दुनिया और विश्व साहित्य के गम्भीर अध्ययन से उत्पन्न सूझ और लोकसंपृक्ति से परिचालित होता है। पाठकों को हर्ष होगा कि दिनेश कुशवाह की कविताओं में समझ में न आने लायक कुछ नहीं है। अपठनीय, दुर्बोध, भीषण बौद्धिक कविताओं के इस संकटपूर्ण समय में उनकी कविताएँ पढ़ने और याद रखने योग्य हैं। वे प्रेम, सौन्दर्य और परिवर्तनकामी चेतना के कवि हैं। सही मायने में ‘मेजर वेवलेंथ’ के कवि।
—प्रह्लाद अग्रवाल
Atikraman
- Author Name:
Kumar Ambuj
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हमारे दौर की कविता के बारे में कभी-कभी एक आलोचना यह भी सुन पड़ती है कि ज़्यादातर कवियों के पहले कविता-संग्रह ही उनके सबसे अच्छे संग्रह साबित होते हैं, दूसरे संग्रहों तक आते-आते उनका प्रकाश मन्द हो जाता है, यथार्थ की काली गहराइयों में जाकर उनकी लालटेनें बुझने लगती हैं। इस बात में अगर कोई सचाई है तो कुमार अंबुज को उसके अपवाद की तरह देखा जा सकता है। अंबुज का पहला कविता-संग्रह 1992 में प्रकाशित हुआ था और सिर्फ़ दस वर्ष के अन्तराल में उनके चौथे संग्रह का छपना सबसे पहले यह बतलाता है कि इस कवि के पास कहने के लिए बहुत कुछ है : निरवधि काल और विपुल पृथ्वी है, बल्कि एक पूरा सौरमंडल है, निर्वात और सघन पदार्थों में से गुज़रना उसका रोज़ का काम है। वायुमंडल की सैर करते-करते वह ग्रह-नक्षत्रों को खँगाल लेता है, मंगल ग्रह के लोहे को अपने शरीर और रक्त में महसूस करता है और अन्तत: अपनी पृथ्वी पर लौट आता है। इस अछोर कायनात को खोजने-जानने के लिए कुमार अंबुज के पास उतनी ही विस्तृत भाषा भी है जिस पर उन्हें इतना विश्वास है कि एक कविता में वे ‘भाषा से परे का यह दुर्गम पहाड़’ भी ‘भाषा की लाठी के सहारे ही’ पार करना चाहते हैं। इस संग्रह की पहली और बीज-कविता जैसी रचना में वे ख़ुद को एक ऐसे पुराने ताँबे के पात्र की तरह देखते हैं जिसे कोई ‘इतिहास की राख से माँजता है’ और ‘एक शब्द माँजता है मुझे/एक पंक्ति माँजती रहती है/अपने खुरदुरे तार से।’
जीवन और कविता की उदात्तता को कुमार अंबुज बार-बार रचते हैं, प्राय: उसका एक नया स्थापत्य बनाने की कोशिश करते हैं लेकिन इतना-भर इस कविता का अभीष्ट नहीं है, बल्कि एक महाविमर्श के छोटे-छोटे ब्योरों, उसके बारीक ताने-बाने में प्रवेश करते हुए उसके अर्थों को खोजना ही उसकी मूल प्रतिज्ञा है और इसीलिए अंबुज यह देख पाते हैं कि ‘एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश’ और ‘इस एक के लिए/इस एक के विश्वास से/लड़ता हूँ हज़ारों से/इस एक की परवाह करता हूँ।’ एक महाजीवन के इसी ‘एक’ को लेकर कुमार अंबुज के सरोकार इतने व्यापक हैं कि वे ‘अभी-अभी दर्ज हुई एक नई ऋतु’ को ‘एक कीड़े के अपूर्व राग में गाते हुए’ सुन पाते हैं और यह संकल्प भी व्यक्त कर सकते हैं कि ‘यह एक कमज़ोर इच्छा है जिसकी चहलक़दमी की आवाज़/एक तानाशाह की इच्छा की आवाज़ से टकराती है।’ दरअसल इस एक का हालचाल जानने की तड़प ही कुमार अंबुज को अनेकता के सौरमंडल तक ले जाती है। अनेक कविताओं में वे जीवन का एक रूपक खड़ा करते प्रतीत होते हैं लेकिन सहसा उस रूपक को भेदकर उसके दारुण यथार्थ में प्रवेश कर जाते हैं।
एक मूलभूत सरलता से संश्लिष्टता की ओर कुमार अंबुज की यह यात्रा एक उल्लेखनीय अनुभव है जिसका साक्ष्य उनकी इन कविताओं की संरचना, उनके ख़ास पैटर्न में भी मिलता है। वे शुरू में प्राय: एक शान्त-सुन्दर प्रवेश-द्वार की तरह दिखती हैं लेकिन उसके खुलते ही जैसे एक जटिल यथार्थ के आयाम प्रकट होने लगते हैं, जहाँ ‘ग़रीब की बुदबुदाहट का अनुवाद’ कुछ इस तरह होता है कि ‘लकड़ी का बुरादा भी जगा देता है मेरी भूख’ और ‘जीवन में एकदम ख़ाली’ एक दिन भी पूरे जीवन की गतिविधि में इतना स्पन्दित और स्मृति में इतना चिन्हित दिखता है कि उसे ‘न उम्र में से घटाया जा सकेगा/और जोड़कर देखने में होगा एक अपराध।’ यह एक लगभग सिनेमाई शिल्प है जिसमें एक सुन्दर शुरुआत एक विरूप विस्तार की ओर जा सकती है, एक प्रतीक, एक अमूर्तन हमें एक यथार्थपरक और ठोस संसार में ले जाता है, फिर सहसा अपने मूल बिम्ब में लौटता है और दूसरी वास्तविकता की ओर बढ़ने लगता है। इस संग्रह की एक कविता ‘रेखागणित’ अंबुज की इस काव्य-प्रविधि का उकृष्ट उदाहरण है जिसमें एक सीधी-सरल रेखा के गणित में एक पूरे जीवन को, उसके आश्चर्यों और रोमांचों, उसकी निश्छलता और ऐन्द्रियता को, उसके न्याय और अन्याय की परस्पर न मिलनेवाली समान्तर लकीरों को अन्तत: इस उम्मीद के साथ देखा गया है कि ‘वहीं कहीं छिपा हो सकता है/ज़िन्दगी को आसान कर सकनेवाला प्रमेय।’
किसी भी रचनाकार के लिए अपने शिल्प को लाँघना कठिन काम होता है, लेकिन अंबुज की संवेदना अपने कथ्य के अनुरूप शिल्प सहजता से उपलब्ध कर लेती है, क्योंकि एक समृद्ध काव्य-भाषा उनका सबसे कारगर औज़ार है। इसीलिए ‘रेखागणित’, ‘चुम्बक’, ‘जीवाश्म’, ‘मेढक’, ‘मुर्गी’, ‘हस्तलिपि’ जैसे नए अनुभवों की मार्मिक शक्लें निर्मित होती हैं और ‘एक कम है’, ‘अतिक्रमण’, ‘मानकीकरण’, ‘मैं एक आततायी को जानता हूँ’, ‘कवि व्याप्ति’, ‘कला का कोना’, ‘भाषा से परे’, ‘एक और शाम’ और ‘मध्यवर्गीय ओट’ जैसी किंचित् परिचित भावभूमि के अपरिचित आयाम खुलते हैं। करुणा और नैतिकता, जो कि कविता के स्थायी-अपरिवर्तनीय सुर हैं, जैसे अंबुज की कविताओं में ताने-बाने की तरह मौजूद हैं—इसीलिए ‘असाध्य रोग’ में सहज, गद्यात्मक लोकोक्ति जैसी बात को वे विचलित करनेवाले तरीक़े से लिख सकते हैं : ‘आँसुओं से कोई दवा तैयार हो सकती होती/तो कोई रोग असाध्य नहीं रह जाता।’ ‘पगडंडी’ कविता बताती है कि ‘जब सारी दुनिया चमकदार सड़कों से भर जाएगी, तब भी एक राह को दूसरी राह से जोड़ती पगडंडी बची रहेगी।’ कुमार अंबुज ख़ुद किसी राजमार्ग पर नहीं, बल्कि कविता की एक पगडंडी पर चलते उसी हाशिये, उसी किनारे से राजमार्गों के जाल को देखते आए हैं, क्योंकि न्याय और अन्याय की समान्तर रेखाएँ भले ही आपस में न मिलें, अन्याय का प्रतिरोध और न्याय की प्रतिष्ठा इसी राह से सम्भव है।
Sadran
- Author Name:
Bittu Sandhu
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- Description: सदरां दा सफ़र खारीयां रातां तों कसैले दिन, सुफनेयां दे निघ तों उडीक दी पीड़, ओसीयां भरीयां ‘तरकालां’ तों हिजर दी हूक निकियां-निकियां उम्मीदां, उडीकां ते गुआचीआं मुस्कुराहटां तों उस ‘किल’ तक दा है जो ऐसी ‘पीड़’ दे गया जिस तों कई जन्मां, रिश्तेयां ते रुतां दे बाद वी निजात नहीं मिली जापदी। बिट्टू दियां सदरां पता नहीं केहड़े जन्म तों केहड़ा पतझड़ ते केहड़ी बसन्त आपणी पोटली च बन लेआइयां हन। गल ख़ास एह है कि बिट्टू दी पहली किताब ‘सफ़ीना’ 2009 विच हिन्दुस्तानी दा लड़ फड़ डूंगे उफानी रुहानी समुंदरां च गोते लाउंदी सी। अज उनां समुंदरां ने साडे आले दुआले दी मिट्टी नू गल ला पंजाबी विच गुनीआं सदरां नू साडी झोली पाया ए। एह मिट्टी दा असर वी है। ते हां जो बिट्टू संधू नू नहीं जाणदे ते सिर्फ़ ‘सफ़ीना’ दी उर्दू हिन्दी विच बुणी महीन कविता नू मणदे हन। उन्हा लई एह ख़ुशख़बरी है कि पंजाबी बिट्टू संधू नू उन्हां दी अम्मी तों मिलया तोहफ़ा है। पनताली कवितावां विच लखां सदरां करोड़ां सुफनेआं ते अनगिणत सफ़र नामेयां दा एह ज़िक्र ख़ूबसूरत है बिट्टू च रचेया, मिचेया हूबहू उसदे नाल दा, बिलकुल उसदे हाल दा।
Kuchh Samuday Hua Karte Hain
- Author Name:
Sushant Supriy
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- Description: Collection of Poems
Thithurate Lamp Post
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अदनान कफ़ील ‘दरवेश’ की कविता को पढ़ते हुए लगता है जैसे हम अपने समय में फिर से दाख़िल हो रहे हैं। यह एक गतिमान समय है जिसमें आगे-पीछे आवाजाही करते हुए जितना आप अतीत में जाते हैं उतना ही वर्तमान में और भविष्य में भी। कवि ने समय की जो विभाजक रेखा बनाई है, वह स्वयं भी उस रेखा से पीछे जाकर ही वर्तमान के चेहरे के नाक-नक़्श उकेरता है। इस समय की ठीक-ठीक शक्ल पहचानने के लिए शायद समय में यह आवाजाही ज़रूरी है। बिना इसके इसे पहचानना सम्भव नहीं है।
वर्तमान, जिसकी विडम्बनाओं, विद्रूपताओं और नई तकनीकों के प्रतिदिन बदलते चेहरे को हम जानते हैं। उसकी बर्बरता और अमानवीयता को हम जानते हैं और समय की गति को अचानक बदल देने वाले परिवर्तनों को भी हमने बहुत क़रीब से देखा है। लेकिन अदनान की कविता को पढ़ने के बाद चीज़ें ज़्यादा साफ़ नज़र आने लगती हैं। जैसे हमारे ऐनक का नम्बर एकाएक बदल गया हो। शायद इस कविता की एक बड़ी ख़ूबी यह भी है कि वह प्रत्यक्षतः जानने और कविता को पढ़कर जानने के बीच के अन्तर का एहसास हमें कराती है। अदनान की कविता बहुत मुखर होकर स्वयं बहुत ऊँची आवाज़ में नहीं बोलती, जीवन की वास्तविकताएँ ही उसमें से बोलती हैं। इसलिए उसकी आवाज़ ज़्यादा विश्वसनीय लगती है। उसकी कविता में वाचिक कविता जैसा प्रवाह और उसकी प्रति-गति कविता के क़द को ऊँचा कर देती है। वह हमारी संवेदनाओं को झिंझोड़कर जागृत कर देती है और चीज़ों और स्थितियों के प्रति ज़्यादा वस्तुनिष्ठ बना देती है।
अदनान की कविता अपनी अस्मिता और परम्पराओं को बचाते हुए हमारे समय के सांस्कृतिक आघात के प्रति असहमति और प्रतिरोध की कविता है। वह हिन्दी कविता के अनुभवों के लैंडस्केप को अपने अनुभवों और मिथकों से पूरा करने की बहुत सजग कोशिश है।
–राजेश जोशी
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