Dyodhi Par Aalap
Author:
Yatindra MishraPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 316
₹
395
Available
पिछली सदी के आख़िरी वर्षों तक आते-आते यथार्थ कुछ इस क़दर निरावृत्त हुआ कि उसे खोजने और रचना में व्यक्त करनेवाली पुरानी प्रविधियाँ अपने तमाम औज़ारों के साथ निरर्थक लगने लगीं। ‘समाजवाद’ से थोड़ा पहले ही नेहरूवीय भ्रमों का अवसान हुआ और रात के ‘अँधेरे में’ दिखनेवाला फासिस्ट जुलूस प्रभातफेरी और शोभायात्रा में बदल गया। न छिपाने में किसी की रुचि रह गई, न बताने को कुछ ख़ास बाक़ी बचा। हिन्दी की युवतम कविता के मुहावरे में इस विडम्बनात्मक स्थिति को यतीन्द्र मिश्र कुछ यूँ व्यक्त करते हैं : कठपुतलियाँ भी जानती हैं/जो दिखा रहीं वह नक़ली है/जो छिपा रहीं वह असली है...’ (कठपुतलियाँ)।</p>
<p>यथार्थ में हुए परिवर्तन के इस विस्फोट ने पुरानी दुनिया में रचे-पगे अनेक रचनाकारों को स्तब्ध कर दिया। उनकी आँखें फटी रह गईं, पर नए दृश्य अपने आशयों के साथ उनमें समा न सके। इस स्थिति का सामना होने पर कुछ ने तो अपने भी आवरण उतार फेंके और बहती गंगा में कूद पड़े, लेकिन अधिकांश ने पुराने वैचारिक ढाँचे को सख़्ती से पकड़ लिया। सम्भवतः असुरक्षा की भावना के चलते ‘विचारधारा के अवसान’ के युग में बननेवाला वैचारिक स्टीरियोटाइप पहले से अधिक एकीकृत और व्यापक हुआ। परम्परागत आलोचना ने भी इसे सराहा क्योंकि उसकी समस्या भी वही थी, यानी नए यथार्थ के सामने असहजता और अपने अप्रासंगिक हो जाने का भय। दोनों ने एक-दूसरे की कमी को पहचाना और भाषा में उसकी भरपाई की—‘दिखाई नहीं देती बात करती ज़ुबान में/एक ताज़ा आदिम महक/न ऐसा सच/जो निबौलियों की तरह कड़वा हो’ (हम प्रतिदिन)।</p>
<p>इस ‘मतलबपरस्ती’ के बरक्स कुछ स्वर हिन्दी कविता में ऐसे भी उभरे जिन्होंने नए यथार्थ की चमकीली सतह की चकाचौंध से आक्रान्त हुए बिना उसकी गहराइयों में जाने का जोखिम उठाया और वहाँ से भाँति-भाँति के रंग-बिरंगे तत्त्व एकत्र किए। स्वभावतः, बहुस्तरीय यथार्थ से सम्पर्क और तदनुरूप भाषा-शैली की ईमानदार खोज के कारण उनके स्वर भी अलग-अलग थे, लेकिन उनकी एकसूत्रता भी ठीक उसी वजह से थी—‘इसी भीड़ में रहते हुए भीड़ से अलग/हर एक रोता है अपने-अपने ढंग से/जिस पर दूसरे अपने अनूठे तरीक़ों से हँसते हैं’ (मसखरे)। यतीन्द्र मिश्र की कविता इन्हीं नए स्वरों का प्रतिनिधित्व करती है। धैर्य के साथ चीज़ों को देखना, उनके रहस्यों को विखंडित करना यतीन्द्र मिश्र को विशेष प्रिय है।</p>
<p>यह संग्रह इस अर्थ में अनूठा है कि इसकी प्रायः सभी कविताएँ किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थिति को विश्लेषित करती, ठोस वस्तुस्थिति की कविताएँ हैं। भावनाओं की अमूर्त्त दुनिया भी है, लेकिन परदे के पीछे। इहलौकिकता के साथ यतीन्द्र मिश्र की कविता की दूसरी विशेषता है इसकी स्मृति-सम्पन्नता। वैसे तो ‘नमक’ जैसी एकाध कविता में अतीत के संघर्ष की स्मृति भी मिलती है, लेकिन आमतौर पर यतीन्द्र के यहाँ मिटती हुई अथवा हाशिये पर जाती हुई मूल्यवान चीज़ों की स्मृति बार-बार आती है। लोक और संगीत प्रायः इसके माध्यम बनते हैं।</p>
<p>‘बारामासा’, ‘लोकगीत’ और ‘क़िस्से-कहानियों की स्मृतियाँ’ ऐसी कविताएँ हैं, जिनमें यथार्थ और स्वप्न के सन्दर्भ में लोकजीवन की स्मृति को सहेजा गया है। ‘आदमी बने रहने की कोशिश’ तथा ‘अष्टपदी’ जैसी कविताओं में यह चिन्ता संगीत के माध्यम से हमारे सामने आती है, जबकि हाशिये पर पहुँच चुके लोग अपनी शक्ति के साथ ‘तकियाकलाम’, ‘मिरासिनें’ तथा ‘कछुआ और खरगोश’ में उपस्थित होते हैं। वैसे तो यतीन्द्र का काव्य-संसार शुरू से आख़िर तक ऐन्द्रिक संवेदनों का संसार है, लेकिन रंगों का जादू उन्हें ख़ासतौर पर सम्मोहित करता है। रंग और संगीत की परस्पर अन्तःक्रिया से निर्मित प्रेम का यह बिम्ब देखें—‘मैं नदी जितना साँवला/तुम सूर्योदय जितनी उज्ज्वल/हमारा प्रेम/कभी बसन्त/ कभी जोगिया में/एक अतिविलम्बित बढ़त’ (हमारा प्रेम)। तेज़ी से भागते समय को रंगों के आकर्षण में रोक रखना कवि को सम्भव जान पड़ता है। लिखना, पढ़ना और रँगना यहाँ परस्पर समानार्थक क्रियाएँ बनकर उभरती हैं। सम्भवतः इसीलिए अपने देशकाल का सबसे सार्थक आख्यान वे ‘सुनो रंगरेज’ जैसी कविता में कर पाते हैं। इस दृष्टि से ‘समय को रँगते हुए पढ़ना’, ‘सहजता के लिए जगह’ और ‘कजरी’ जैसी कविताएँ उल्लेखनीय बन पड़ी हैं।</p>
<p>कवि की यही प्रवृत्तियाँ तानसेन, तुकाराम, उस्ताद अलाउद्दीन ख़ाँ और ग़ालिब तक उसे ले जाती हैं और उनके होने का मतलब, उनका सारतत्त्व तलाशती हैं। इसी तलाश में यतीन्द्र अक्सर उन जगहों पर भी पहुँचते हैं, जहाँ जीवन की साधारण परिस्थितियाँ अपनी विशिष्टता में मौजूद हैं। यहाँ उनके साथ कवि का सौहार्दपूर्ण रिश्ता हमें ज़्यादा बड़े आशयों की ओर ले जाता है और इस प्रक्रिया में ‘रफ़ू’, ‘लंगड़ा आम’, ‘सुबह’ व ‘ढोल’ जैसी महत्त्वपूर्ण कविताओं से हमारा सामना होता है। इन कविताओं को पढ़कर कोई भी पाठक मामूली चीज़ों से कविता बना देने की कवि की प्रतिभा को महसूस किए बिना नहीं रहेगा।</p>
<p>यह संग्रह हिन्दी की युवा कविता की सम्भावना, शक्ति और दिशा को प्रकट करनेवाला एक प्रतिनिधि संग्रह है।</p>
<p>—कृष्णमोहन
ISBN: 9788126709496
Pages: 104
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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गीत कहाँ है अब यहाँ/गीत जैसा कुछ है’—गीतकार स्वानंद किरकिरे इस संग्रह की एक कविता की शुरुआत इन पंक्तियों से करते हैं। वे इधर की फ़िल्मों के चहेते गीतकारों में से एक हैं, जिसकी वजह शायद यह ईमानदारी ही है? इन कविताओं की उपलब्धि भी और औज़ार भी यही ईमानदारी है। कवि के रूप में उन्होंने कहीं अपने व्यक्ति से बेईमानी नहीं की, न ख़ुद से यह कहा कि वे शायर हैं, न यह कि गीतकार हैं, न यह कि कवि हैं। वे तेज़गाम दुनिया के बीचोंबीच बैठे, अपने-आप के परदे से दुनिया को देख रहे हैं और वह जितना उन्हें समझ आ रही है, उसे लिख रहे हैं। कविताओं की इस पुस्तक को पढ़ना एक अनुभव है...। और उम्मीद है, हिन्दी का नया पाठक इसे अपनी अनुभव-सम्पदा में मोती की तरह जड़कर रखेगा।
Aab Katek Chup Rahoo
- Author Name:
Deep Narayan
- Book Type:

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दीप नारायण अपन जीवनक भोगल यथार्थकेँ अपन शब्द-शिल्प, उद्भावना आ कुशल अभिव्यक्तिक माध्यमे समकालीन मैथिली कविताक क्षेत्रमे अपन बेछप उपस्थिति दर्ज कएलनि अछि।
—तारानन्द वियोगी
दीप नारायणक कवितासँ समकालीन मैथिली कवितामे निस्संदेह सम्भावनाक एकटा नव बाट फुजैत अछि।
—नारायणजी
दीप नारायण मैथिलीक लोकप्रिय कवि छथि। मैथिली कविता आ समकालीन भारतीय कविता हिनक लेखनीसँ समृद्ध हैत।
—विद्यानन्द झा
दीप नारायण, सरल सुबोध भाषामे दैनिक जीवनक बहुत रास शब्द जकर अंकुरण मिथिलाक माटिपानिमे भेलैक, ओकरा अपन रचनात्मक कौशलसँ प्रभावी अर्थ दए, ‘आब कतेक चुप रहू’ लिखि एकटा सार्थक काज कएलनि अछि। प्रयुक्त प्रतीक-विम्बमे मानवीय-संवेदनाक अन्तर्वर्ती सौन्दर्य कवितासभकेँ विशिष्ट बनबैत छैक।
लोक–संवेदनाक एहि कविक लिखबाक अपनहि ढ’ब-ढर्रा छनि। जीवनक भोगल यथार्थकेँ अनुभूतिक र’हीसँ र’हिक’ मानवीय संवेदनाक प्रतीति गढ़बामे निष्णात कवि दीप नारायणक कविताक बगएमे फूटल बकार समकालीन मैथिली कविताक एक विशिष्ट हाक भ’ सकैत अछि।
अपन मौलिक शिल्पगत वैशिष्ट्यसँ काव्य-जगतमे फूट पहिचानक संग ई प्रतिष्ठित होएताह से हमर विश्वास अछि।
—कीर्ति नारायण मिश्र
Soorsagar Satik : Vols. 1-2
- Author Name:
Hardev Bahari
- Book Type:

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Description:
सूरसागर का प्रस्तुत संस्करण दो भागों में प्रकाशित हो रहा है। प्रत्येक भाग में 1000 से कुछ अधिक पद होंगे। पदों की व्याख्या करना इसका उद्देश्य नहीं है। यह सम्भव है कि किन्हीं अंशों के एक से अधिक अर्थ निकलते हों, किन्तु स्थानाभाव के कारण अनेक अर्थ दे पाना सम्भव नहीं था। पदों में जो कठिन शब्द आए हैं, उन्हें अंग्रेज़ी अंक देकर संकेतित कर दिया गया है। इससे पाठकों को स्वतंत्र रूप से अर्थ चिन्तन की सुविधा रहेगी।
भूमिका में ‘सूरसागर’ के संकलनों और संस्करणों पर विचार करने के पश्चात् ‘सूरसागर’ के दर्शन, भक्तिपक्ष, भावप्रसार, अभिव्यंजना-कौशल, पद-शैली, भाषा आदि विषयों का विवेचन किया गया है जिससे ‘सूरसागर’ की आत्मा को समझने में सहायता मिलेगी। इस प्रकार ‘सूरसागर’ के प्रस्तुत संस्करण को यथासम्भव पूर्ण और उपयोगी बनाने की चेष्टा की गई है।
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