Apna Vajood
Author:
Shyampalat PandeyPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 316
₹
395
Available
श्यामपलट पांडेय वर्तमान समय और उससे जन्मे प्रत्यक्ष आवेग के कवि हैं। हमारा सामाजिक परिवेश जीवन-मूल्यों की टूटन और त्रासद स्थितियों के तनाव से भरा हुआ है। एक संवेदनशील कवि के लिए हमारे इस वर्तमान की कोई भी शक्ल अनिवार्यतः एक विडम्बना-बोध से ही जन्म लेती है। इन कविताओं में रोज़मर्रा के जीवन के सन्दर्भ हैं, छोटे-बड़े प्रसंग और परिस्थितियाँ हैं। पांडेय जीवन के विद्रूप से सीधे मुठभेड़ करते हैं। कहीं इन कविताओं में एक विकलता है तो कहीं एक प्रश्नाकुलता। कहीं अपने रचना-कर्म के प्रति ही एक बुनियादी संशय का भाव भी। दरअसल यही हमारे समय के अनुभव के विभिन्न शेड्स हैं। विसंगतियों के चित्रों के साथ इन कविताओं में परिवर्तन की एक बुनियादी कामना भी है।</p>
<p>तिक्त अनुभवों के बीच से उठी ये कविताएँ जीवन के किसी बेशक़ीमती तत्त्व को बचाए रखने की विकलता की कविताएँ हैं। महत्त्वपूर्ण यह भी है कि श्यामपलट पांडेय का कवि-मन अपने जातीय अनुभव-बोध की ज़मीन से गहरा जुड़ा हुआ है। विडम्बनाओं के चक्रव्यूह में फँसे हुए रचनाकार की अपनी जड़ों की ओर लौटने की एक बेचैनी इन कविताओं में दिखाई पड़ती है। इसीलिए आस-पास की दुनिया और घर-परिवार की अन्तरंगता के अनेक चित्र इन कविताओं में मौजूद हैं। कहना न होगा कि कुटुम्ब से जुड़ी संवेदना हमारे समय में अमानवीय ताक़तों के बरक्स एक नया अर्थ ग्रहण करती है। उसके नए सामाजिक-मनोवैज्ञानिक आशय बनते हैं। अपने पास-पड़ोस से यह लगाव इस दौर में या शायद किसी भी दौर में कविता को हमेशा आत्मीय और प्रामाणिक बनाता रहा है। पांडेय की ये कविताएँ वादों और मुहावरों के शोरगुल से दूर अपनी नैसर्गिक ऊर्जा, जीवन-राग और सहज अनुभूति के बल पर ‘अपने वजूद’ का एहसास कराती हैं।</p>
<p>—विजय कुमार
ISBN: 9788171198320
Pages: 83
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: जितने कवि हिन्दी के काव्याकाश में चमकते हुए दीख पड़े, सौन्दर्य के सुख-स्पर्श जादू से जिन्होंने मन को वशीभूत कर लिया तथा प्रकाश और दृष्टि दी, श्री गोपाल सिंह नेपाली उन्हीं में से एक हैं। —सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ सोई उमंग उठ जाग, जाग जीवन से क्यों इतना विराग भावों की मादकता, मोहकता, आशा, विश्वास और महत्वाकांक्षाओं से भरी ‘उमंग’ की ये कविताएँ गोपाल सिंह नेपाली की काव्य-विशेषताओं को एक अलग आलोक में प्रकाशित करती हैं। अपनी तरफ से इन कविताओं की भाव-भूमि का परिचय देते हुए नेपाली जी बताते हैं कि कविता के इस रूप तक आने से पहले वे ब्रजभाषा की कोमल-कान्त पदावली, उमर खय्याम की हाला और उर्दू शायरी की उदासी तक भी होकर आए, लेकिन कविता का जो रूप उन्हें जँचा वह यही है जो उनके इन गीतों और कविताओं में साकार हुआ। कविता का यह रूप उमंग का है, प्रेरणा का है, समकालीन यथार्थ को समझने, उसे अंकित करने और उसमें परिवर्तन की चाह का है। प्रकृति को सम्बोधित उनके गीत-कविताएँ हमें अपने स्थूल व सूक्ष्म संसार को सुदूर अन्तरिक्ष के भीतर तक खोलने को आमंत्रित करते हैं, और सामाजिक सन्दर्भों की कविताएँ फौरन हालात को बदल देने को प्रेरित करती हैं। ‘किरण’ कविता की यह पंक्तियाँ चलती है कितना मन्थर तिरछी विद्युत-रेखा सी/आती है वह मेरे घर नक्षत्र-लोक की वासी कितनी कोमलता से हमें अखिल सृष्टि से जोड़ देती हैं। इस संग्रह की सभी कविताएँ इसी तरह आपकी चेतना को आयत्त कर लेती हैं।
Rangayo Jogi Kapda
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Devendra Arya
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- Description: Collection of Poems
Akshat
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Description:
style="line-height: 10px;">तुम
मेरी एकमात्र पुस्तक हो
मेरे मन का धर्मग्रन्थ तुम
मेरी एकमात्र कविता हो
मेरे सृजन के सच्चे दस्तावेज़
तुम मेरा एकमात्र विश्वास हो
मेरी आत्मा के वास्तविक सहचर
प्रेम का यही अकुंठ भाव इन कविताओं का मूल स्वर है। यह प्रेम-कविताओं का संग्रह है जिनकी कमी इधर आकर बहुत खलने लगी है। कविता के केन्द्र से प्रेम का हटना बेशक जीवन का अनुगमन ही है, क्योंकि जीवन का केन्द्र भी आज प्रेम नहीं है, लेकिन इसीलिए प्रेम अपनी तमाम पारदर्शिताओं, स्वच्छताओं और उदात्तताओं के साथ और भी ज़रूरी हो जाता है। वह एक अमूर्त भाव है लेकिन दुनिया में उसका अभाव हमें किसी चीज़ की तरह कचोटता है, जिसे इतनी तमाम चीज़ों की उपस्थिति भी पूर नहीं पाती।
ये कविताएँ हमें प्रेम की याद दिलाती हैं, उसकी उस ताक़त की याद दिलाती हैं जो हमें देह में देह को और आत्मा में आत्मा को अनुभव करने की क्षमता देता है, हमें ज़्यादा सहनशील, सहिष्णु और संसार को ज़्यादा रहने लायक़ बनाता है।
तुम
मेरे पास
सुख की तरह हो
जैसे जड़ों के पास ज़मीन
तुम्हारा स्पर्श मुझे छूता है
जैसे सूरज छूता है पृथ्वी।
Sach Poochho To
- Author Name:
Bhagwat Rawat
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Description:
अपनी ईमानदारी और सदाशयता के बावजूद एकरस होती जा रही अधिकांश हिन्दी कविता के बीच भगवत रावत इसलिए अपनी अनायास और अप्रगल्भ पहचान तथा अस्मिता प्राप्त कर लेते हैं कि उनके यहाँ अपने कवि और कविताई को लेकर उतना हिसाब-किताब नहीं है जितनी कि अपनी और औरों की इनसानियत और दोस्ती को बचा पाने और चरितार्थ कर पाने की चिन्ता। इसलिए अभिव्यक्ति को लेकर उनकी कविता में कई क़िस्म के ‘कलात्मक’ संकोच या आत्म-प्रतिबन्ध नहीं हैं। लिखना उनके लिए इसलिए ज़रूरी नहीं है कि कविता एक प्रतिष्ठा का प्रश्न है या उसे लिखकर कुछ सिद्ध किया जाना है, बल्कि आज के भारतीय समय में जो लिख सकते हैं, उनके पास लिखने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। वे लिखकर अमरत्व प्राप्त नहीं करना चाहते बल्कि यदि कोई विकल्प न हो तो मर-मर कर लिखना चाहते हैं।
आदमी को लेकर एक निस्संकोच अपनापन और करुणा भगवत रावत की कविता के केन्द्र में है, इसीलिए जब वे याद दिलाते हैं कि इस समय दुनिया को ढेर सारी करुणा चाहिए तो वे भावुक नहीं हो रहे होते हैं, बल्कि निर्वैयक्तिकता, तटस्थता आदि के मूलत: मानव-विरोधी मूल्यों के ख़िलाफ़ एक अमोघ नकार दर्ज करते हैं।
भारतीय साहित्य की एक महान् परम्परा पर कभी भी ध्यान नहीं दिया गया है और वह है मित्रता के चित्रण की। ‘महाभारत’ और ‘रामायण’ की मैत्रियाँ भी भारतीय मानवीयता का एक अनिवार्य तत्त्व हैं और बीसवीं शताब्दी में जिस वैश्विक मानवीय प्रतिबद्धता की बात की जाती है, उसके मूल में यही वह स्वाभाविक दोस्ताना है जो इनसानों में हमेशा मौजूद रहता है। मुक्तिबोध के बाद भगवत रावत आज के पहले हिन्दी कवि हैं जिनके यहाँ दोस्ती का जज़्बा, किसी मित्र की प्रतीक्षा, सखा के आने की ख़ुशी, बल्कि किसी भी राह चलते को दोस्त बनाने की चाहत इतनी शिद्दत से मौजूद है। जब हर अपने जैसा इनसान दोस्त है तो बेशक वसुधा भी कुटुम्ब है। यह आकस्मिक नहीं है कि भगवत रावत ने कुछ कविताएँ अपने कवि-कलाका र मित्रों पर भी लिखी हैं। दोस्ती का यह जज़्बा उस समय और भी सम्पूर्ण तथा सार्थक हो जाता है, जब भगवत रावत उसकी ज़द में प्रकृति और पर्यावरण को भी ले आते हैं।
भगवत रावत की ये कविताएँ भारतीय जीवन के ऐसे कई चित्र हिन्दी कविता में पहली बार लाती हैं जो शायद पहले कभी देखे नहीं गए। यदि प्रेमचन्द ने ‘क़फन’ में दलितों के मर्मांतक यथार्थ का चित्रण किया था तो ‘अतिथि कथा’ में भगवत रावत उसी बिरादरी का एक ऐसा स्निग्ध दृश्य उपस्थित करते हैं जो आत्मा को जगमगा जाता है। ‘यह तो अच्छा हुआ’, ‘सोच रही है गंगाबाई’, ‘मानव-संग्रहालय’ (जो निराला की ‘तोड़ती पत्थर’ का समसामयिक संस्करण है) आदि में उनकी कविता संसार के सबसे बड़े सर्वहारा वर्ग—स्त्रियों की कथाएँ खोज लेती है। उनकी ‘कचरा बीननेवाली लड़कियाँ’ हिन्दी की इस तरह की बेहतरीन समूहपरक कविताओं में भी अपनी निगाह और वात्सल्य के लिए बेमिसाल स्वीकार की जानी चाहिए। यदि भगवत रावत की व्यापक आस्था और पक्षधरता को लेकर किसी भी दुविधा की गुंजाइश नहीं है तो यह भी सच है कि उसमें कोई अतिमानवीय, सुनियोजित, यंत्रचालित आशावाद तथा आत्माभिनन्दन भी नहीं है। कई कविताओं में पराजय की अकातर स्वीकृति है, अपनी और अपने जैसों की भूल-ग़लतियों, ख़ामियों और ग़फ़लतों का इक़बाल भी है। लेकिन इनमें आत्मदया और विलाप नहीं है, बल्कि उस तरह का मूल्यांकन है जो हर मुक़ाबले के बाद शाम को शिविरों में किया जाता है ताकि अगली सुबह फिर आगे बढ़ा जा सके। ‘मेरा चेहरा’, ‘सच पूछो तो’, ‘ठहरा हूँ जब-जब छाया के नीचे’, ‘क्या इसीलिए धारण की थी देह’, ‘मौत’ तथा ‘आग पेटी’ जैसी अत्यन्त निजी कविताओं में अपने एकान्त, पारिवारिक और सामाजिक जीवन से कई क़िस्म की मुठभेड़ें हैं, आत्म-स्वीकृतियाँ हैं, यथार्थ से निर्मम मुक़ाबले हैं लेकिन निराशा या पस्ती कहीं नहीं है।
भगवत रावत की काव्य-प्रौढ़ता का एक विलक्षण पहलू उनका शिल्प-वैविध्य है। ‘सम्भव नहीं’, ‘और अन्त में’ तथा ‘हम जो बचे रह गए’ सरीखी कविताएँ सिद्ध करती हैं कि छन्द पर भी उनका सहज अधिकार है जबकि कुछ लम्बी कविताओं में उन्होंने सिर्फ़ एक विचार-स्थिति को निबाहा है और कुछ में वे सफल कथा-निर्वाह कर ले गए हैं। छोटी रचनाओं को उन्होंने उक्ति, सुभाषित, शब्द-चित्र या व्यंग्य नहीं बना दिया है, बल्कि, उनमें जायज़ कविता मौजूद है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात शायद यह है कि इन कविताओं में अधिकांश में भगवत रावत भाषा की एक ऐसी विरल सादगी हासिल कर पाए हैं जो अपनी सम्प्रेषणीयता में किसी तंतुवाय से जगाए गए सुदूर लेकिन गहरे संगीत की तरह है। भाषा को शिल्प, और इन दोनों को कथ्य से अलग करके देखना हिमाकत है, इसलिए यह माने बिना काम नहीं चलता कि सच पूछो तो भगवत रावत की कविता अपने सारे आयामों में हिन्दी में ऐसी जगह बना चुकी है जिसकी उपेक्षा कविता की अपनी समझ पर प्रश्नचिन्ह लगाकर ही की जा सकती है।
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