Shastra-Santan
Author:
Rameshwar PremPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Plays0 Reviews
Price: ₹ 68
₹
85
Unavailable
“कुरुक्षेत्र में दिन में ही रहो, बस! रात में वहाँ मत रहो। यदि तुम रात में वहाँ रहे तो दिन में जो देखोगे, ठीक उसका उलटा पाओगे।” ‘शस्त्र-सन्तान’ का यह सूत्र वाक्य—केवल ‘महाभारत’ (आरण्यक पर्व) तक ही सीमित नहीं है। अस्तित्व के तब से अब तक के महावृत्तान्त में यह गूँज रहा है और यह उसके अन्तर्विरोधों तथा दर्दनाक विडम्बना को एक झटके में उजागर करता है। क्या पता हम जो देख रहे हैं—अगले क्षण उसका अर्थ उलट जाए! यह नाटक निःशब्द रात्रि में गांधारी, शववाहक, शस्त्र संचयकर्ताओं और विलाप करती स्त्रियों के मद्धिम स्वरों से शुरू होकर एक ऐसी बीहड़ सांगीतिक रचना में परिवर्तित होता है, जहाँ करुणा के साथ शब्द और महारंग काक की आवाज़ें भी हैं। एक ऐसी सांगीतिक रचना जो खींचती है, रुलाती है और सत्य के काँटों से भरी मरुभूमि पर ढकेल देती है।</p>
<p>यह नाटक कुरुक्षेत्र की रातों के बहाने रक्त में ऊभ-चूभ विगत, वर्तमान, आगत की भी कथा है, जिसमें जटिल सम्बन्धों और सत्य के लिए संघर्षरत आत्माओं का पुनरुद्घाटन होता है।</p>
<p>बहुविदित महाआख्यान के बहाने ‘शस्त्र-सन्तान’ हिन्दी नाटक के इतिहास में समकालीन काव्य की भाषा के नाटकीय प्रक्षेपण का अप्रतिम उदाहरण है।
ISBN: 9788171192625
Pages: 87
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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दो पात्रों का यह नाटक एक लेखक के रहस्यमय जीवन और लेखन से एक-एक कर कई पर्दे उठाता है। गड़गड़ सूफ़ी एक जासूस है, जो उसके चर्चित-पुरस्कृत उपन्यासों की सच्चाई की तस्दीक अख़बारी कतरनों से करता चलता है और एक दिन आकर लेखक को बताता है कि मुझे मालूम है कि आपने जो भी हत्या-कथाएँ लिखी हैं, वे आपने स्वयं की हैं; और लेखक उसके इस आरोप को स्वीकार कर लेता है और कहता है कि हाँ, वे सब हत्याएँ मैंने ही की हैं। इससे पहले कि जासूस लेखक से कुछ हासिल करने के लिए अपनी शर्तें मनवाता लेखक पिस्तौल के इशारे पर उसे बाल्कनी से गिरकर मरने पर बाध्य कर देता है।
तुर्की-ब-तुर्की संवादों के माध्यम से आगे बढ़ता यह छोटा-सा नाटक दर्शक के सामने सच और झूठ का एक तिलस्म रचता है जिसमें हमें यथार्थ का एक नया चेहरा दिखाई देता है।
Rang Kolaj
- Author Name:
Devendra Raj Ankur
- Book Type:

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Description:
रंग कोलाज रंगमंच के कुछ अनिवार्य सवालों पर उत्तेजक बहस छेड़ती है। इसमें अभिनेता, निर्देशक, नाट्य रचना, नुक्कड़ नाटक, कहानी मंचन के बहाने रंगमंच के बदलते स्वरूप और समीकरणों को कई स्तरों पर परखने की कोशिश की गई है। कुछ सैद्धान्तिक सवाल उठाए गए हैं तो दूसरी ओर प्रयोग के धरातल पर भी संवाद बनाने की शुरुआत की गई है।
साहित्य के अध्येता और सक्रिय रंगकर्मी देवेन्द्र राज अंकुर का यह अध्ययन हिन्दी रंगकर्म के विद्यार्थियों और सुधी पाठकों के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। अभिनेता की रचना प्रक्रिया, भारतीय रंगमंच में एकल अभिनय, अभिनेता और दर्शक के आपसी सम्बन्ध, नुक्कड़ नाटकों के व्याकरण, उनकी परम्परा तथा नाटककार और निर्देशक के अन्तर्सम्बन्धों पर अपने अनुभवों के परिप्रेक्ष्य में प्रकाश डालने के अलावा इस पुस्तक में लेखक ने कृष्ण बलदेव वैद और काशीनाथ सिंह की रचनात्मकता पर भी एक रंगकर्मी-आलोचक की हैसियत से पर्याप्त प्रकाश डाला है।
विवेचनात्मक आलेखों के साथ-साथ इस पुस्तक में दो नाटकों के अनुवाद भी शामिल हैं, और, साथ ही महेश आनन्द द्वारा अंकुर जी से लिया गया एक साक्षात्कार भी जो इस पुस्तक की उपयोगिता को और ज़्यादा बढ़ा देता है।
Konark
- Author Name:
Jagdish Chandra Mathur
- Book Type:

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Description:
जगदीशचन्द्र माथुर का ‘कोणार्क’ अत्यन्त सफल कृति है। नाट्यकला की ऐसी सर्वांगपूर्ण सृष्टि अन्यत्र देखने को नहीं मिली। विषय-निर्वाचन, कथा-वस्तु, क्रम-विकास, संवाद, ध्वनि, मितव्ययिता आदि दृष्टियों से ‘कोणार्क’ अद्भुत कला-कृति है।
छोटे-छोटे अंकों के भीतर एक विराट युग का स्पन्दन गागर में सागर की तरह छलक उठता है। उपक्रम तथा उपसंहार लेखक के अत्यन्त मौलिक प्रयोग हैं, जिनमें नाटक की सीमाएँ एक रहस्य-विस्तार में खो-सी गई हैं। उपक्रम में आँखों के सामने एक विस्मृत ऐतिहासिक युग का ध्वंस-शेष, कल्पना में समुद्र ही तरह आर-पार उद्वेलित होकर साकार हो उठता है।
कलाकार का बदला जीवन-सौन्दर्य ही चुनौती नहीं देता, वह अत्याचारी को भी जैसे अतल अन्धकार में डाल देता है। सहनशील ‘विशु’ तथा विद्रोही ‘धर्मपद’ में कला के प्राचीन और नवीन युग मूर्तिमान हो उठते हैं। ‘विशु’ और ‘धर्मपद’ का पिता-पुत्र का नाता और तत्सम्बन्धी करुण-कथा इतिहास के गर्जन में घुल-मिलकर नाटक को मार्मिकता प्रदान करती है।
आज के संघर्ष के जर्ज युग में ‘कोणार्क’ द्वारा ‘कला और संस्कृति’ अपनी चिरन्तन उपेक्षा का विद्रोहपूर्ण सन्देश मनुष्य के पास पहुँचा रही है।
— सुमित्रानंदन पंत
‘सन् 1950 में लिखित’
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