Paglaye Log
Author:
Prabhat Kumar UpretiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Plays0 Reviews
Price: ₹ 400
₹
500
Unavailable
‘पगलाए लोग’ में समसामयिक मंचित नाटक संगृहीत हैं। लेखक प्रभात कुमार उप्रेती के मन में उन लोगों के लिए अपर सम्मान है ‘जो लोग हमेशा इतिहास के उजाले पक्ष में होते हैं...भलाई के लिए मर-मिटते हैं...।’ इन नाटकों में ऐसे ही व्यक्ति केन्द्र में हैं जिनके कारण यह जीवन जीने के योग्य बना रहता है। जो सामाजिक मूल्यों की स्थापना के लिए सर्वस्व दाँव पर लगा देते हैं।</p>
<p>इस संग्रह की एक पृष्ठभूमि यह भी है कि 1980-2000 के मध्य उत्तराखंड में नाटक आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा था। व्यापक सामाजिक सरोकारों को ध्यान में रखकर लिखे गए ये नाटक वास्तविक घटनाओं पर आधारित हैं। इनके मंचनों को दर्शकों की भरपूर सराहना प्राप्त हुई है। यह तथ्य भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि इन नाटकों ने सकारात्मक मानसिक परिवर्तन के लिए एक पीठिका का निर्माण किया। प्रभात कुमार उप्रेती</p>
<p>ने उन जननायकों का स्मरण किया है जिनके बिना इस क्षेत्र का इतिहास नहीं लिखा जा सकता।</p>
<p>जो पाठक इन नाटकों में अपने समय की शिनाख़्त करना चाहेंगे उन्हें निराश नहीं होना पड़ेगा। मानव और मानवेतर प्रकृति से जुड़े अनेक सन्दर्भ यहाँ अनुभव किए जा सकते हैं। इस तरह कई नाटक होते हुए भी ‘पगलाए लोग’ एक लम्बे’ नाटक की तरह भी स्वीकार किया जा सकता है, अपने अर्थपूर्ण विभाजन में तो स्वीकार्य है ही।</p>
<p>लेखक ने प्रवाहपूर्ण भाषा के द्वारा घटनाओं, विचारों और मंचीय गतिविधियों को साकार किया है।
ISBN: 9788183616249
Pages: 332
Avg Reading Time: 11 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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‘बिदेसिया’ के विन्यास के बावजूद संरचनात्मक गठन एक नए ही शिल्प की तरफ़ इशारा करता है जो सुलभ की अपनी निर्मिति है। मौलिकता का एक सबूत तो इनकी अभिव्यक्ति है जो समकालीन जीवन की विसंगतियों के ज़बर्दस्त प्रतिरोध से जन्मी हैं। पारम्परिक प्रविधि को समकालीन सन्दर्भों में रखकर सुलभ ने उसे समकालीन बनाया है और उसकी सम्प्रेषण–क्षमता का बहुविध विस्तार किया है। एक अर्थ में यह नाटक अपनी स्थानीयता का अतिक्रमण भी है, तो दूसरे अर्थ में स्थानीयता का केन्द्रीयकरण भी क्योंकि जब तक स्थानीयता केन्द्रीयता हासिल नहीं करती, तब तक वह सार्वजनिक जीवन की समग्र प्रस्तुति नहीं बनती।
‘माटीगाड़ी’ में सुलभ का नाट्यकौशल अपने पूरे रंग में है। प्रेम की केन्द्रीय संवेदना लेकर सुलभ ने इस नाटक में वसन्तसेना और चारुदत्त के प्रेम सम्बन्ध में अनेक स्तरों को पिरोया है, जिससे यह नाटक जातिवादी उन्माद, राजनीतिक पाखंड, सामाजिक विडम्बनाओं की सशक्त अभिव्यक्ति बन गया है।
—ज्योतिष जोशी; ‘कथादेश’
‘मृच्छकटिकम्’ की काव्यात्मक संवेदना और शास्त्रीयता से मिलकर ‘बिदेसिया’ की लोकधर्मी चेतना नई नाट्यानुभूति देती है। शूद्रक का नाटक फिर से रचे जाने के क्रम में अपने बीजतत्त्वों का विकास करता है और समसामयिक हो उठता है। ‘माटीगाड़ी’ में हिन्दी तथा भोजपुरी का प्रयोग नए भाषिक स्वाद की अनुभूति कराता है।
Parsi Theater : Udbhav Evam Vikash
- Author Name:
Somnath Gupta
- Book Type:

- Description: डॉ. सोमनाथ गुज ने सन् 1947 में हिन्दी नाटक साहित्य का इतिहास लिखा था । प्रस्तुत रचना में यथास्थान यह बताया गया है कि विक्टोरिया थियोट्रिकल मण्डली की स्थापना से पहले भी पारसियों और गैर-पारसियों की मण्डलियाँ नाटक किया करती थीं परन्तु बड़े और सुदृढस्तर पर नाट्यकला को प्रतिष्ठित करने का श्रेय विक्टोरिया, एलफिनस्टन और जोरास्ट्रियन नाटक मण्डलियों को ही था । इनके सम्बन्ध में गुजराती के साप्ताहिक पत्र ' रास्तगोफ्तार ', में थोड़ी-बहुत जानकारी मिलती है । इसके सम्पादक कैखुसरो कावराजी स्वयं नाटककार, निर्देशक और अभिनेता थे । अंग्रेजी के ' बाम्बे टाइम्स ' और ' बाम्बे कूरियर एण्ड टेलिग्राफ ' की पुरानी फाइलें अनेकों सूचनाओं से भरी पड़ी हैं । महाराष्ट्र सरकार के ' आलेख और पुरातत्व विभाग' की सामग्री जीर्ण-शीर्ण है । सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण गुजराती साप्ताहिक ' कैसरेहिन्द ' है । इसी पत्र में धनजी भाई नसरवानजी पटेल के पारसी नाटक सम्बन्धी अनेकों लेख निरन्तर रूप से प्रकाशित हुए थे । इन लेखों में अधिकांशत: पारसी अभिनेताओं की चर्चा है । कुछ नाटक मण्डलियों, उनके मालिकों और निर्देशकों का विवरण भी आ गया है । जहाँगीर खम्बाता की रचना ' मारो नाटकी अनुभव ' भी बड़ी उपयोगी सिद्ध हुई है । सभी नाटक मण्डलियाँ जहाँगीर की अभिनय-कला और निर्देशन शक्ति का लोहा मानती थी । सबसे अधिक उपयोगी और प्रमाणित वे दीबाचे (भूमिकाएँ) है जो किसी-किसी नाटक के आदि में मिलते हैं । इन दीबाचों से यह पता चलता है कि नाटक किसने लिखा? किस नाटक मण्डली के लिए लिखा? कब उसका प्रकाशन हुआ? तथा नाटककार का नाटक-विशेष के लिए क्या दृष्टिकोण है? प्रस्तुत कृति में सभी प्राप्य और दुधार सामग्री का उपयोग किया गया है । ऐसा ग्रंथ हिन्दी में पारसी थियेटर पर नहीं लिखा गया जिसमें मूलभूत स्रोतों पर अवलम्बित इतनी अधिक सामग्री मिलती हो ।
Company Ustad
- Author Name:
Ravindra Bharti
- Book Type:

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Description:
“ ‘कम्पनी उस्ताद’ की भाषा, संगीत एवं पात्रों के अभिनय ने महेन्द्र मिसिर के विभिन्न रंगों से दर्शकों का परिचय कराया। नाटककार की भाषा उन्हें छपरा से निकालकर लगभग पूरे हिन्दी पट्टी के लोकजीवन से जोड़ देती है। यह भाषा उन्हें हिन्दी पट्टी की तात्कालिक संवेदना का गायक भी बनाती है, जिसमें वहाँ की पीड़ा और संस्कृति का दर्शन होता है।’’
—‘नवभारत टाइम्स (पटना संस्करण) 27 अप्रैल, 1994
‘‘महेन्द्र मिसिर के जीवन के तीन हिस्सों को रवीन्द्र भारती ने इस नाटक में बहुत ख़ूबसूरती से उभारा है।’’
—‘नवभारत टाइम्स’ (नई दिल्ली संस्करण) 6 सितम्बर, 1994
‘‘नौटंकी स्टाइल में इस नाटक ने अपार भीड़ खींच ली। नौटंकी के पुराने अदाकार 96 वर्षीय मास्टर फ़िदा हुसैन को यह नाटक बहुत पसन्द आया।’’
—‘स्वतंत्र भारत’ (नई दिल्ली) 25 सितम्बर, 1994
‘‘ ‘कम्पनी उस्ताद’ में भाषाओं के मिले-जुलेपन का जो सहारा लिया गया है, वह विशेष रूप से विचारणीय है। खड़ी बोली, अवधी, भोजपुरी—तीनों मिलकर नाटक की भाषा बनती हैं, इसके बावजूद नाटक की प्रेषणीयता कहीं से बाधित नहीं होती।’’
—‘प्रभात ख़बर’ (राँची संस्करण) 12 जून, 1994
Aas-Pados
- Author Name:
Gulzar
- Book Type:

- Description: यह ‘आस-पड़ोस’फ़िल्मकार, गीतकार, शायर और कहानीकार गुलज़ार के तीन ड्रामों से मिलकर बना-बसा है। गुलज़ार जिस तरह अल्फ़ाज़ से मनचाहा काम लेते हैं, उसी तरह उन्होंने ‘आस-पड़ोस’में फॉर्म्स को नई शक्ल दी है। लेकिन यह बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है वह जो इन ड्रामों में कही गई है, बल्कि बहुत सारी बातें। ‘ख़राशें’का सब्जेक्ट दंगे और उनके बीच जीता-लड़ता-मरता-भागता आम आदमी है, और हिन्दू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान होने की उसकी उलझनें हैं जिन्हें सियासत बीच-बीच में कठिन से कठिनतर करती जाती है। ‘लकीरें’उन्हीं सरहदों के बारे में है जो हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच खींची गई हैं। वे लकीरें जिन्हें अवाम के दिलों ने अब तक भी पूरी तरह क़ुबूल नहीं किया, लेकिन सरकारें उन्हीं से अपने कितने काम साधती रहती हैं! ‘अठन्नियाँ’में हमारी मुलाक़ात शहर मुम्बई और उसके तारीक हाशियों में ज़िन्दगी की जंग लड़ते लोगों से होती है। कहानियों और नज़्मों की इस बस्ती में दु:खों की भीड़ी-सीलीं गलियाँ भी हैं, और इनसान के हौसलों और ज़िन्दा रहने की ज़िदों का खुला बहुरंगी आसमान भी है। घने अहसास और हमारे दौर की एक पकी हुई क़लम से उतरी इस बस्ती से आप बार-बार गुज़रना चाहेंगे जिसका ख़ाका कहानियाँ खींचती हैं और उस ख़ाके को साँस की गर्मी और आँखों की नमी देने का काम नज़्में करती हैं।
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