Itishri
Author:
SomnathanPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Plays0 Reviews
Price: ₹ 160
₹
200
Available
‘एक बार अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन सीनेट जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने एक जगह देखा, सड़क की बग़ल में दलदल में फँसा एक आदमी दलदल से निकलने का प्रयास कर रहा था, किन्तु वह दलदल में और भी धँसता जा रहा था, तब अब्राहम लिंकन स्वयं कीचड़ में घुसकर, उस आदमी का हाथ पकड़कर उसे दलदल से बाहर ले आए। देखनेवालों ने आश्चर्य व्यक्त किया, तो अब्राहम लिंकन ने उनसे कहा, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। मैंने यह काम अपने मन की पीड़ा शान्त करने के लिए ही किया। इस आदमी को दलदल में छटपटाते देखकर मेरा मन भी छटपटाने लगा था।...आशा है, आप लोग मेरा मन्तव्य समझ गए होंगे। अच्छा, अब विदा।’</p>
<p>‘इतिश्री’ के डॉ. राजगोपाल के ड्राइवर श्याम ने इसी मन्तव्य से उत्प्रेरित होकर अपने मालिक के परिवार के लिए वह काम कर दिखाया जिसे बड़े-बड़े लोग भी शायद ही कर सकें।</p>
<p>वस्तु की दृष्टि से यह अभूतपूर्व है। अपनी तमाम ख़ूबियों से युक्त यह नाटक मंचन और पाठ दोनों के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण है।
ISBN: 9788180318191
Pages: 101
Avg Reading Time: 3 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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भारत के स्वतंत्रता-आन्दोलन के ऐसे न जाने कितने अध्याय होंगे, जो इतिहास के पन्नों पर अपनी जगह नहीं बना पाए। देश के दूर-दराज़ हिस्सों में जनसाधारण ने अपने दम पर विदेशी शासकों से कैसे लोहा लिया, क्या-क्या झेला, उस सबको क़लमबन्द करने की उस समय न किसी को इच्छा थी, न अवसर। लेकिन पीढ़ियों तक जीवित रहनेवाली किंवदन्तियों में इतिहास के ऐसे अदेखे सूत्र मिल जाते हैं।
1857 के स्वतंत्रता-संग्राम से पहले 1842 के बुन्देल-विद्रोह का प्रकरण भी ऐसा ही है। लिखित इतिहास में इस विषय पर विस्तार से कहीं कुछ भी उपलब्ध नहीं है, लेकिन कुछ सूचनाएँ अवश्य मिलती हैं। उन्हीं को आधार मानकर जुटाई हुई बाक़ी जानकारी को लेकर इस नाटक की रचना की गई है।
कह सकते हैं कि यह रंगमंच के एक सिद्ध जानकार की क़लम से निकली रचना है, जो इस ऐतिहासिक प्रकरण को इतनी सम्पूर्णता से एक नाटक में बदलती है कि इसे पढ़ना भी इसे देखने जैसा ही अनुभव होता है।
बुन्देलखण्ड की खाँटी ज़ुबान, अंग्रेज़ अफ़सरों की हिन्दी और लोकगीतों के साथ बुनी गई यह नाट्य-कृति एक समग्र नाट्य-अनुभव रचती है।
Dank
- Author Name:
Vasant Kanetkar
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- Description: Awating description for this book
Rangayan
- Author Name:
Kunal
- Book Type:

- Description: पिछला चारि दशक सँ निरंतरताक संग प्रखरतापूर्वक मैथिली रंगमंच मे प्राण फुकनिहार समर्थ नाट्य निर्देशक कुणालक नव पोथी 'रंगायन' मैथिली नाटक एवं रंगमंचक साफ-सुथरा दर्पण अछि। एहन दर्पण जाहि मे मैथिली नाटक एवं रंगमंच अपन चेहरा संपूर्ण सामथ्र्य आ सीमाक संग निहारि सकैत अछि। कोनो भाषा मे नाटक पर नीक पोथीक अकाल। एहि अकाल बेला मे कुणाल अपन पोथी 'रंगायन' सँ मैथिली रंगमंचक लगभग सब कपाट (आयाम) खोलैत छथि। नाट्यालोचन मे नाट्येतर व्यक्तिक प्रवेश आ सामान्य आलोचनाक टूल्स सँ रंग समीक्षा, एहि विधाक विडंबना। कुणाल अनुभविये टा नहि अपितु सधल आ दक्ष निर्देशक रहलाहए। ई अकारण नहि जे ओ रंगशास्त्रक औजार सँ मैथिली नाटक आ रंगमंचक गंभीर सुधि लेब' मे पूर्ण समर्थ भेलाहए। कुणाल अपन रंग-आलोचना मे रंगपरंपरा, रंगशिल्प, रंगपीठ आ रंगभाषा आदि केँ सघन रूपें सम्पूर्ण रंगकर्म सँ जोडि़ दैत छथि। मैथिली नाट्यालोचन मे बहुत रास बात विस्तृत रूपें पहिल बेर कुणालजीक माध्यम सँ आबि रहल अछि जे स्वागतेय। समकालीन मैथिली रंगमंच, नाटक आ लोकनाट्य, रंगायन आ वातायन शीर्षक सँ चारि खंड मे विभाजित ई पोथी लगभग सम्पूर्ण मैथिली रंगमंचक खाका खींचैत अछि, संगहि एकर दशा, दिशा आ संभावनाक टोह लैत बेलाग, बेबाक मंतव्य सेहो दैत अछि। मैथिली रंगमंचक संग अन्य भारतीय भाषाक रंगमंच आ किछु वैश्विक रंगमंच सँ संवाद सेहो। रंग-अध्येताक संगहि छात्र सभक लेल सेहो बहुत उपयोगी पुस्तक। कुणालक संपूर्ण व्यक्तित्व रंगमय रहल अछि। आपादमस्तक रंगकर्मी। जाहि निष्ठा, ईमानदारी आ तत्परता संग कुणाल अपन जीवन मैथिली रंगमंचक नाम कयलनि, तकर निचोड़-अभिव्यक्तिक नाम अछि— 'रंगायन'। —कमलानन्द झा
Baqi Itihas
- Author Name:
Badal Sarkar
- Book Type:

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एक इतिहास वह है जिसे राजा–महाराजा, शासक शक्तियाँ और मुख्यधारा के नायक बनाते हैं; इसके बरअक्स एक दूसरा इतिहास भी होता है। इस इतिहास में शामिल होते हैं वे तमाम बेचेहरा लोग जिनके कन्धों से होकर नायकों के विजय–मत्त घोड़े अपने झंडे फहराते हैं। मसलन, सीतानाथ जो इस नाटक का ‘नायक नहीं’ है। वह इतिहास के पिछवाड़े पड़े लाखों औसत जनों की तरह का ही एक शख़्स है, जिनका नाम कहीं दर्ज नहीं होता। लेकिन सीतानाथ इसी व्यर्थता–बोध के चलते आत्महत्या करता है और एक स्थानीय अख़बार में एक–कॉलमी ख़बर बनकर उभरता है। शरद जो ख़ुद भी ‘नायक नहीं’ है, अपनी लेखिका पत्नी वासन्ती के साथ मिलकर उस आत्महत्या पर एक कहानी गढ़ने की कोशिश करता है, लेकिन असफल होता है, और अन्त में पाता है कि वह भी सीतानाथ की ही तरह ‘बाक़ी इतिहास’ का एक अर्द्ध–नायक भर है जिसके सामने न जीने की वजह मौजूद है, न मरने
की।मध्यवर्ग की इसी उबाऊ और दमघोंटू दैनिकता का विश्लेषण ‘बाक़ी इतिहास’ अपने बहुस्तरीय शिल्प के माध्यम से करता है। देश के कोने–कोने में सैकड़ों बार सफलतापूर्वक मंचित हो चुके इस नाटक का विषय आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना तीन दशक पहले था।
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