Awadhi Muhavare Evam Lokoktiyan
Author:
Dr. G. S. SrivastavaPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 320
₹
400
Available
प्रस्तुत पुस्तक अवधी भाषा के प्रचलित मुहावरे और लोकोक्तियों का संग्रह है। यह पुस्तक न तो सऌपूर्ण मुहावरों का वृहद्कोश है और न हम ऐसा दावा करते हैं। मुहावरे भाषा की जीवंतता को दरशाते हैं। किसी बात को सही तरीके से बताने के लिए मुहावरे और लोकोक्तियों का सहारा लिया जाता है। प्रायः किसी बात के मर्म को बताने के लिए लऌंबे विवरण के बजाय मुहावरे या लोकोक्तियों के द्वारा सुगमता से और शुद्ध रूप में बताया जा सकता है। मुहावरे समाज की स्थितियाँ भी बताते हैं। मुहावरे और लोकोक्तियों में भेद किया जा सकता है। मुहावरे छोटे और किसी विशेष बात के संदर्भ, दृष्टांत या निष्कर्ष से बने होते है और धीरे-धीरे प्रचलित हो जाते हैं, जिनका उपयोग भाषा में सऌंप्रेषण के साथ-साथ चुटीलापन भी प्रदान करता है। लोकोक्ति किसी पूर्व घटना की उपमा या दृष्टांत होने के साथ-साथ कुछ उपदेश या ज्ञान की बात भी बताती है। मुहावरे आज भी गढे़ जा रहे हैं, जो प्रायः मीडिया व फिल्म के माध्यम से लोगों तक पहुँचते हैं, पर वही मुहावरे जीवित रह पाते हैं, जो लोगों की जबान पर चढ़ जाते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में ठेठ अवधी मुहावरों के साथ-साथ हिंदी-उर्दू में प्रचलित मुहावरों का भी समावेश किया गया है। पुस्तक के अंतिम अध्याय में इन सभी मुहावरों और लोकोक्तियों को अक्षरानुसार सूचीबद्ध किया गया है, जिससे किसी भी मुहावरे को ढूँढ़ने में आसानी रहे। यह पुस्तक सामान्य पाठकगण, भाषाविद् तथा भाषा के शोध छात्रों में समान रूप से उपयोगी सिद्ध होगी।
ISBN: 9789352666270
Pages: 208
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: कविता का नगर चाहे बहुत भिन्न हो, उसमें कल्पना का तत्त्व बहुत अधिक या कम हो, लेकिन बाहर स्थित नगर से उसकी शक्ल थोड़ी-बहुत तो मिलती है। पर हर बार मेरी शक्ल को वास्तविक नगर की शक्ल से मिला-जुलाकर देखने की क़वायद फ़िज़ूल है। कई बार कवियों को भी यह भ्रम हो जाता है कि वे अपनी कविता में वास्तविक शहर के यथार्थ को समेट रहे हैं। उन्हें लगता है कि वो कविता में शब्दों से वो ही शहर बना सकते हैं जो वास्तविक शहर है। लेकिन दोनों के निर्माण में लगनेवाली सामग्री ही भिन्न है। जब भी वास्तविक शहर शब्दों में रूपान्तरित होता है, उसका चेहरा-मोहरा वही नहीं रहता जो उसका वास्तविक चेहरा है। यह शहर का पुनर्रचित चेहरा है। यह कविता का नगर है। लेकिन मुझे बसाना या बनाना भी कोई आसान काम नहीं है। मेरे भवनों, सड़कों, गलियों, नदियों और सरोवरों को बनाने के लिए एक कवि को भी जाने कितने शब्द, कितने वाक्य, बिम्ब, प्रतीक, छन्द, लय, मिथक-कथाओं और कल्पनाओं की ज़रूरत होती है। कवि का श्रम किसी वास्तुशिल्पी या नगरशिल्पी से किसी बात में कम नहीं होता। मेरा इतिहास उतना ही पुराना है जितना मनुष्य द्वारा किए गए नगरीकरण का। इसे मेरा दम्भ न समझा जाए तो कई बार तो मुझे लगता है कि मनुष्य द्वारा बसाए गए शहर से भी पहले मैं अस्तित्व में आया होऊँगा। एक शहर में जैसे हमेशा ही कुछ न कुछ जुड़ता रहता है, कुछ टूटता रहता है, इसी तरह मुझमें भी कुछ न कुछ बदलता रहता है। प्राचीन कविता का नगर और आज की कविता का नगर एक-सा तो नहीं है। आधुनिक शहरों की तरह मुझमें भी भीड़ है, शोर है और तेज़ गतियाँ हैं, परिचित और अपरिचित चेहरे हैं। आख़िरकार मैं भी एक नगर हूँ और भीड़ और शोर से मैं भी कैसे बच सकता हूँ। तो आइए, मैं आपको वास्तविक नगर की भीड़ और शोर से निकालकर कविता के नगर की भीड़ और शोर के बीच लिए चलता हूँ।
Humsafaron Ke Darmiyan
- Author Name:
Shamim Hanfi
- Book Type:

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Description:
आधुनिक उर्दू कविता के बारे में यह छोटी-सी किताब मेरे कुछ निबन्धों पर आधारित है। समकालीन साहित्य और उससे सम्बन्धित समस्याएँ मेरी सोच और दिलचस्पी का ख़ास विषय रही हैं। पिछले पचास-साठ बरसों में मैंने इस विषय पर कम से कम साठ-सत्तर निबन्ध लिखे होंगे। उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी के बहुत से शायरों को मैंने अपने आलोचनात्मक अध्ययन का बहाना बनाया यानी कि ग़ालिब से लेकर आज तक की शायरी में मेरी गहरी दिलचस्पी रही है।
यहाँ आगे बढ़ने से पहले एक और सफ़ाई देना चाहता हूँ। पारम्परिक प्रगतिवाद, आधुनिकतावाद और उत्तर-आधुनिकतावाद में मेरा विश्वास बहुत कमज़ोर है। मैं समझता हूँ कि हमारी अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक परम्परा के सन्दर्भ में ही हमारे अपने प्रगतिवाद, आधुनिकतावाद और उत्तर-आधुनिकता की रूपरेखा तैयार की जानी चाहिए। हमारा जीवन हमारे समय के पश्चिमी जीवन और सोच-समझ की कार्बन कॉपी नहीं है। जिस तरह हमारा सौन्दर्यशास्त्र या Aesthetic Culture अलग है, उसी तरह हमारी प्रोग्रेसिविज़्म (Progressivism) और Modernity या ज़दीदियत भी अलग है। मैंने इसी दृष्टिकोण के साथ आधुनिक युग के अधिकतर शायरों को समझने की कोशिश की है।
ये निबन्ध मेरी दो किताबों—'हमसफ़रों के दरमियाँ’ (सह-यात्रियों के बीच) और 'हमनफ़सों की बज़्म में’ (यार-दोस्तों की सभा में) से लिए गए हैं। इनमें मेरा विषय बननेवाले शायरों का स्वभाव, चरित्र, चेतना और रूप-रंग अलग-अलग हैं। मैं समझता हूँ कि आधुनिकतावाद को इसी भिन्नता और बहुलता का प्रतीक होना चाहिए।
—शमीम हनफी (प्रस्तावना से)
''हालाँकि हिन्दी में उर्दू साहित्य के आधुनिक दौर के अधिकांश शायरों से ख़ासी वाक़िफ़यत रही है, उन पर स्वयं उर्दू में जो विचार और विश्लेषण हुआ है, उससे हमारा अधिक परिचय नहीं रहा है। शमीम हनफी स्वयं शायर होने के अलावा एक बड़े आलोचक के रूप में उर्दू में बहुमान्य हैं। उनके कुछ निबन्धों के इस संचयन के माध्यम से उर्दू की आधुनिक कविता की कई जटिलताओं, तनावों और सूक्ष्मताओं को जान सकेंगे और कई बड़े उर्दू शायरों की रचनाओं का हमारा रसास्वादन गहरा होगा। हमें यह संचयन प्रस्तुत करते हुए प्रसन्नता है।”
—अशोक वाजपेयी
Manipuri Kavita Meri Drashti Mein
- Author Name:
Devraj
- Book Type:

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Description:
हिन्दी में मणिपुरी कविता के इतिहास एवं आलोचनात्मक अध्ययन पर केन्द्रित यह प्रथम कृति है। देवराज पिछले दो दशकों से मणिपुर में कार्यरत हैं और वहाँ हिन्दी प्रचार-प्रसार आन्दोलन तथा मणिपुरी साहित्य से निकट से जुड़े हैं। उनके प्रयास से विपुल परिमाण में मणिपुरी साहित्य हिन्दी में आ चुका है और हिन्दी की अनेक कृतियाँ मणिपुरीभाषी पाठकों को उपलब्ध हो चुकी हैं। स्वाभाविक रूप से मणिपुरी साहित्य के विविध पक्षों के सम्बन्ध में उनकी दृष्टि अधिक पैनी और तटस्थ है।
हिन्दी में भारतीय भाषाओं के साहित्य सम्बन्धी आलोचना तथा इतिहास ग्रन्थों की कमी नहीं है, किन्तु यह कृति कुछ अलग हटकर एक समर्थ भारतीय भाषा के काव्य का मूल्यांकन करते समय अन्य भारतीय भाषाओं और कुछ भारतेतर भाषाओं के साहित्य को भी ध्यान में रखती है। इससे अन्य भाषाओं के बीच मणिपुरी भाषा और उसके साहित्य का वास्तविक महत्त्व रेखांकित हो जाता है। यह वैशिष्ट्य इस पुस्तक को साहित्य के अध्ययन की परम्परा में अभिनव स्थान प्रदान करता है।
लेखक ने इसे इतिहास-ग्रन्थ नहीं कहा है, फिर भी पाठक इसकी सहायता से मणिपुरी कविता के इतिहास की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। ग्रन्थ का दूसरा खंड मणिपुरी भाषा में अनूदित-प्रकाशित होकर व्यापक स्वीकृति और प्रशंसा प्राप्त कर चुका है। यह इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता के लिए पर्याप्त है। अभिव्यक्ति में निजता और लालित्य के कारण समग्र सामग्री कथा-साहित्य की सी रोचकता से परिपूर्ण है।
—प्रो. ऋषभदेव शर्मा
Hindi Bhasha : Sanrachna Ke Vividh Aayam
- Author Name:
Ravindranath Shrivastava
- Book Type:

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Description:
प्रस्तुत पुस्तक हिन्दी भाषा की संरचना के विविध आयामों पर प्रकाश डालती है। विभिन्न व्याकरणाचार्यों के विचारों से सहमति-असहमति प्रकट करते हुए प्रो. श्रीवास्तव ने विभिन्न लेखों में तार्किक उक्तियों द्वारा अपने पक्ष को पुष्ट किया है। उनके चिन्तन की गहराई तथा साफ़-सुथरा विवेचन सर्वत्र विद्यमान है। हिन्दी भाषा की व्याकरणिक संरचना को आरेख के रूप में सम्भवतः पहली बार प्रो. श्रीवास्तव ने तैयार किया था, उसे भी इस पुस्तक में दे दिया गया है। पाठकों के सम्मुख यह पुस्तक रखते हुए दुःख और सन्तोष दोनों की मिली-जुली अनुभूति हो रही है। दुःख इस बात का कि यह पुस्तक उनके जीवनकाल में प्रकाशित न हो सकी, और सन्तोष यह है कि उनका यह महत्त्वपूर्ण अध्ययन पाठकों तक पहुँच पा रहा है।
आशा है, यह पुस्तक तथा इस शृंखला की अन्य पुस्तकें भी प्रो. श्रीवास्तव के भाषा-चिन्तन को प्रभावशाली ढंग से अध्येताओं तक पहुँचाएँगी और हिन्दी भाषा के प्रति स्नेह एवं लगाव रखनेवाले मनीषी भाषाविद् प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव की स्मृति को ताज़ा रखेंगे।
Samsaamyik Hindi Natkon Mein Khandit Vyaktitwa Ankan
- Author Name:
Dr. T.R. Pateel
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Description:
मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में खंडित व्यक्तित्व एक आधुनिक संकल्पना है। आज का मानव टूटा हुआ, थका हुआ, हारा हुआ व्यक्ति है और इसी कारण उसका व्यक्तित्व भी खंडित है। इस विषय पर फुटकर रूप में कुछ विवेचन कतिपय पुस्तकों में अवश्य हुआ है किंतु अपनी समग्रता में खंडित व्यक्तित्व की परिधि में इसके अध्ययन की आवश्यकता बनी हुई थी। डॉ. टी. आर. पाटील की यह पुस्तक ‘समसामयिक हिंदी नाटकों में खंडित व्यक्तित्व अंकन’ इस अभाव की पूर्ति का एक सफल प्रयास है ।
डॉ. पाटील ने अपनी इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक में जहाँ खंडित व्यक्तित्व के अर्थबोध और अर्थ-विस्तार के साथ उसकी अवधारणा पर अपने गम्भीर विचार प्रस्तुत किए हैं, वहीं 1947 से 1985 तक प्रकाशित प्रतिनिधि नाटकों को परिलक्षित कर उनमें अंकित खंडित व्यक्तित्व के विविध आयामों को विवेचित-विश्लेषित किया है। इस संदर्भ में उन्होंने प्रेम और यौन समस्या, आत्मविश्लेषणवाद, मानव का असंगत जीवन, राजनीतिक-आर्थिक चेतना, सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से प्रभावित हिंदी नाटकों में प्रतिबिंबित खंडित व्यक्तित्व को विस्तार के साथ विश्लेषित किया है।
खंडित व्यक्तित्व को रंगमंच पर प्रस्तुत करने की दृष्टि से नाटककारों ने जिस रंगमंच की अभिनव कल्पना की है उसमें मंच-सज्जा, पात्रों के क्रिया-व्यापार, पात्रों का अतर्द्वंद्व, पात्रों की वेश-भूषा, प्रकाश-योजना, ध्वनि-योजना, गीत-संगीत के विशिष्ट प्रयोग, नव्य यांत्रिक साधन तथा विविध रंगकर्मियों और निर्देशकों का योगदान और दर्शकों की प्रतिक्रियाओं को दिखाने का जो सफल प्रयास डॉ. पाटील ने किया है, वह इस पुस्तक की एक अनुपम उपलब्धि है।
Bhakti Andolan Aur Bhakti Kavya
- Author Name:
Shivkumar Mishra
- Book Type:

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Description:
प्रस्तुत पुस्तक का सम्बन्ध भक्ति-आन्दोलन और भक्ति-काव्य से है, भक्ति-आन्दोलन के मूल में जनता के दुःख-दर्द ही हैं और उन दुःख-दर्दों को बड़ी जीवन्त मानवीयता के साथ उभरने, उनसे एकमेक होकर सामने आने में ही भक्ति-आन्दोलन की शक्ति को देखा जा सकता है। अनुमान कर सकते है कि तीन शताब्दियों से भी अधिक समय तक अपने पूरे वेग के साथ गतिशील होनेवाले इस भक्ति-आन्दोलन में जनता के ये दुःख-दर्द कितनी गहरी संवेदनशीलता के सान्निध्य में उभरे होंगे। भक्तिकाव्य में, उसके रचनाकारों में, अन्तर्विरोध भी हैं, उनकी सीमाएँ भी हैं। पुस्तक में उनकी चर्चा भी की गई है।
हम भक्तिकाव्य जैसा काव्य आज नहीं चाहते, पर जिन मूलवर्ती गुणों के कारण भक्ति कविता कालजयी हुई, वे गुण ज़रूर उससे लेना चाहते हैं, और इन गुणों के नाते ही हम उसे साथ लेकर चलना भी चाहते हैं।
पुस्तक में निबन्धों में पुनरुक्ति भी मिल सकती है। अलग-अलग समय में लिखे गए निबन्ध ही मिल-जुलकर यह किताब बना रहे हैं। इनमें से कबीर, सूर तथा भक्ति-आन्दोलन से जुड़े निबन्ध प्रकाशित भी हो चुके हैं। यहाँ वे कुछ संशोधित परिवर्द्धित रूप में फिर से प्रकाशित हो रहे हैं। मलिक मुहम्मद जायसी, तुलसी, भक्ति-आन्दोलन का पहला निबन्ध अप्रकाशित है। वे यहाँ पहली बार ही प्रकाशित हो रहे हैं। नानकदेव तथा गुरु गोविन्द सिंह पर लिखे निबन्ध भी अप्रकाशित हैं। ये विशेष अवसर के लिए लिखे गए निबन्ध थे, किन्तु किताब के विषय की सीमा में आ सकने के नाते उन्हें भी समेट लिया गया है। भक्ति-आन्दोलन सम्बन्धी निबन्धों में प्रमुखतः के. दामोदरन, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तथा गजानन माधव मुक्तिबोध के विचारों को ही रेखांकित किया गया है।
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