Kavita Ka Shahar : Ek Kavi Ki Notebook
Author:
Rajesh JoshiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 236
₹
295
Available
कविता का नगर चाहे बहुत भिन्न हो, उसमें कल्पना का तत्त्व बहुत अधिक या कम हो, लेकिन बाहर स्थित नगर से उसकी शक्ल थोड़ी-बहुत तो मिलती है। पर हर बार मेरी शक्ल को वास्तविक नगर की शक्ल से मिला-जुलाकर देखने की क़वायद फ़िज़ूल है। कई बार कवियों को भी यह भ्रम हो जाता है कि वे अपनी कविता में वास्तविक शहर के यथार्थ को समेट रहे हैं। उन्हें लगता है कि वो कविता में शब्दों से वो ही शहर बना सकते हैं जो वास्तविक शहर है। लेकिन दोनों के निर्माण में लगनेवाली सामग्री ही भिन्न है। जब भी वास्तविक शहर शब्दों में रूपान्तरित होता है, उसका चेहरा-मोहरा वही नहीं रहता जो उसका वास्तविक चेहरा है। यह शहर का पुनर्रचित चेहरा है। यह कविता का नगर है।
लेकिन मुझे बसाना या बनाना भी कोई आसान काम नहीं है। मेरे भवनों, सड़कों, गलियों, नदियों और सरोवरों को बनाने के लिए एक कवि को भी जाने कितने शब्द, कितने वाक्य, बिम्ब, प्रतीक, छन्द, लय, मिथक-कथाओं और कल्पनाओं की ज़रूरत होती है। कवि का श्रम किसी वास्तुशिल्पी या नगरशिल्पी से किसी बात में कम नहीं होता।
मेरा इतिहास उतना ही पुराना है जितना मनुष्य द्वारा किए गए नगरीकरण का। इसे मेरा दम्भ न समझा जाए तो कई बार तो मुझे लगता है कि मनुष्य द्वारा बसाए गए शहर से भी पहले मैं अस्तित्व में आया होऊँगा। एक शहर में जैसे हमेशा ही कुछ न कुछ जुड़ता रहता है, कुछ टूटता रहता है, इसी तरह मुझमें भी कुछ न कुछ बदलता रहता है। प्राचीन कविता का नगर और आज की कविता का नगर एक-सा तो नहीं है। आधुनिक शहरों की तरह मुझमें भी भीड़ है, शोर है और तेज़ गतियाँ हैं, परिचित और अपरिचित चेहरे हैं। आख़िरकार मैं भी एक नगर हूँ और भीड़ और शोर से मैं भी कैसे बच सकता हूँ।
तो आइए, मैं आपको वास्तविक नगर की भीड़ और शोर से निकालकर कविता के नगर की भीड़ और शोर के बीच लिए चलता हूँ।
ISBN: 9789387462311
Pages: 136
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. बच्चन सिंह तथा डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी जैसे महान समीक्षकों पर एक गवेषणात्मक दृष्टि डाली गई है।
Bhojpuri Sanskriti Ki Sant Kavita
- Author Name:
Udai Pratap Singh
- Book Type:

- Description: ित्यिक समृद्धि, सामाजिक सौहार्द और आध्यात्मिक ऊँचाई की दृष्टि से भोजपुरी भाषी क्षेत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसी भूमि पर संस्कृत में काव्य-महाकाव्य रचे गए तो पालि में भगवान बुद्ध के उपदेशों का संचरण हुआ। नदियों के प्रवाह ने इस क्षेत्र को उर्वर बनाया तो साधु-सन्तों की अध्यात्म-सनी वाणियों ने लोकहृदय में भक्ति की मशाल जला दी। राजनैतिक व वैचारिक गुलामी का दृढ़ता से मुकाबला करने वाला यह क्षेत्र सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न रहा है। यह क्षेत्र हर कालखंड में अध्यात्म की पताका सुदूर तक फहराता रहा है। इतिहास, संस्कृति व सभ्यता के न जाने कितने अज्ञात व विस्मयकारी पृष्ठ भोजपुरी माटी में छिपे हुए हैं। यह पुस्तक उसी दिशा में एक प्रयास है। भोजपुरी बोली-बानी में सन्तों ने गाया और गुनगुनाया है। अत: भोजपुरी में सन्तों का प्रभूत साहित्य प्राप्त होता है। सन्त शिरोमणि कबीर और भक्त-शिरोमणि रैदास की यह जन्मभूमि है तो कीनाराम जैसे भक्त और योगी की तपोभूमि भी है। नाथपन्थ, रामानन्द, कबीर व रैदास पन्थ यहीं विकसित व पल्लवित हुए। दरियापन्थ, अघोरपन्थ, सतनामी सम्प्रदाय, शिवनारायणी पन्थ, सन्तमतानुयायी आश्रम, गड़वाघाट और महर्षि सदाफल देव का विहंगम योग जैसे सम्प्रदायों का प्रभाव भोजपुरी भाषी क्षेत्र में सुदूर तक विस्तृत है। सन्त बानियों की अध्यात्म वर्षा सदियों से इस क्षेत्र को हरी-भरी करती रही ह
Hindi Riti Sahitya
- Author Name:
Bhagirath Mishra
- Book Type:

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Description:
मध्यकालीन साहित्य के विश्रुत विद्वान डॉ. भगीरथ मिश्र ने इस छोटी-सी पुस्तक में हिन्दी-काव्य की एक अत्यन्त वेगवती धारा का सर्वांगीण अध्ययन प्रस्तुत किया है। इस काव्यधारा की पृष्ठभूमि के रूप में उन्होंने लोक-भाषा की परम्परा, रीति-साहित्य के विकास के कारणों और तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों पर विस्तार से विचार किया है। सामान्यतः इस काव्यधारा पर जो दोष लगाए जाते हैं, उन पर क्रमबद्ध रूप से विचार करते हुए निष्कर्ष रूप में कहा है कि ‘उस समय रीति साहित्य का बँधी-बँधाई परिपाटी पर विकास, रूढ़िवादिता नहीं वरन् अतिशय राजप्रशंसा से मुक्ति पाने और शुद्ध काव्य लिखने के उद्देश्य को पूरा करनेवाला है।’ और ‘हिन्दी-रीति साहित्य का जिन परिस्थितियों में विकास हुआ उनका पूरा प्रभाव आत्मसात् करके भी इस साहित्य की अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक देन है।’
लेखक का मानना है कि हमें ‘रीति-साहित्य’ को संकीर्णता से नहीं बल्कि साहित्यिक उदारता से देखना चाहिए जिससे केवल आम और अमरूद की उपयोगिता से प्रभावित लोगों के लिए बिहारी को फिर यह न कहना पड़े कि :
‘फूल्यो अनफूल्यो रह्यो गँवई गाँव गुलाब।’
पृष्ठभूमि के उपरान्त डॉ. मिश्र ने ‘रीति’ के तात्पर्य, रीतिशास्त्र की परम्परा और उसके आधार को स्पष्ट करते हुए अलंकार सम्प्रदाय, रस सम्प्रदाय और ध्वनि सम्प्रदाय के इतिहास और सिद्धान्त पर भी विस्तार से विचार किया है। साथ ही, इन सम्प्रदायों के विभिन्न आचार्यों और उनके योगदान का समुचित मूल्यांकन किया है।
पुस्तक के अन्त में रीति-काव्य धारा के नौ प्रमुख कवियों का काव्य-चयन है। उपरोक्त सम्पूर्ण विवेचन के सन्दर्भ में इस काव्य को पढ़ना पाठकों के लिए रुचिकर अनुभव होगा। इस प्रकार सिद्धान्त और व्यवहार की समवेत प्रस्तुति के रूप में यह पुस्तक हिन्दी रीति-साहित्य का सांगोपांग इतिहास ही है, जो साहित्य के विद्यार्थियों के लिए तो उपयोगी है ही, सन्दर्भ-ग्रन्थों के विस्तृत उल्लेख से विद्वानों के लिए भी समान रूप से उपयोगी हो गई है।
Kavita Ke Teen Darvaje : Agyeya, Shamsher, Muktibodh
- Author Name:
Ashok Vajpeyi
- Book Type:

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Description:
कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी लगभग चार दशकों से नई कविता की अपनी बृहत्त्रयी अज्ञेय-शमशेर बहादुर सिंह-गजानन माधव मुक्तिबोध के बारे में विस्तार से गुनते-लिखते रहे हैं। उन्हें लगता रहा है कि हमारे समय की कविता के ये तीन दरवाज़े हैं जिनसे गुज़रने से आत्म, समय, समाज, भाषा आदि के तीन परस्पर जुड़े फिर भी स्वतंत्र दृश्यों, शैलियों और दृष्टियों तक पहुँचा जा सकता है। इस त्रयी का साक्षात्कार अपने समय की जटिल बहुलता, अपार सूक्ष्मता और उनकी परस्पर सम्बद्धता के रू-ब-रू होना है।
तीन बड़े कवियों पर एक कवि-आलोचक की तरह अशोक वाजपेयी ने गहराई से लगातार विचार कर अपने आलोचना-कर्म को जो फोकस दिया है, वह आज के आलोचनात्मक दृश्य में उसकी नितान्त समसामयिकता से आक्रान्ति का सार्थक अतिक्रमण है।
'बड़ा कवि द्वार के आगे और द्वार दिखता और कई बार हमें उसे अपने आप खोलने के लिए प्रेरित करता या उकसाता है', 'शमशेर की आवाज़ अनायक की है' और 'मुक्तिबोध भाषा से नहीं अन्तःकरण से कविता रचते हैं' जैसी स्थापनाएँ हिन्दी आलोचना में विचार/संवेदना और आस्वाद के नए द्वार खोलती हैं।
Tulsi-Kavya Mein Sahityik Abhipray
- Author Name:
Janardan Upadhyay
- Book Type:

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Description:
भक्ति कविता स्वयं में साहित्यिक परम्परा से जुड़ी प्रतिबद्ध भारतीय आध्यात्मिक कविता ही है और अब उन आलोचकों की मान्यताएँ ख़ारिज हो चुकी हैं जो कबीर तथा तुलसीदास जैसे श्रेष्ठतम काव्य सर्जकों को साहित्येतर श्रेणी में रखते रहे हैं।
तुलसी की आध्यात्मिक कविता की व्याख्या केवल उनके द्वारा अभिव्यक्त भावात्मक संवेदनाओं से ही न की जाकर उन सन्दर्भों से भी किया जाना अपेक्षित है—जो साहित्य एवं सर्जन के संरचनात्मक मानदंड के रूप में परम्परा में जाने जाते रहे हैं—और जिनको कलात्मक परम्परा के कवियों यथा—कालिदास, भारवि, श्रीहर्ष आदि ने अपनाया है। ये मानदंड हैं, साहित्यिक अभिप्राय अर्थात् कवि के कल्पना प्रसूत कलात्मक मानक जैसे—विविध प्रकार के कवि समय, काव्य रूढ़ियाँ, काल्पनिक कथाएँ, अलंकार विधान की प्रचलित उपमान तथा उपमेय परम्पराएँ आदि।
गोस्वामी तुलसीदास अपनी व्यक्ति काव्य-प्रतिमा के प्रति विनयोक्ति जैसा भाव प्रगट करते हुए भी भारतीय कविता की शास्त्रीय परम्पराओं की वे उपेक्षा नहीं करते। इन सबके लिए मानस में वे 'काव्य प्रौढ़ि' एवं ‘काव्य छाया’ शब्दों का प्रयोग करके इंगित करते हैं कि भारतीय कविता की वैभवमयी परम्परा को त्याग कर कविता का सर्जन किसी भारतीय कवि के लिए सम्भव नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन का गन्तव्य इसी सन्दर्भ को स्पष्ट करना रहा है कि तुलसी जैसे श्रेष्ठ आध्यात्मिक कवि की कविता भी भारतीय कविता की कलात्मक परम्परा से पूरी तरह जुड़ी है और उसे किसी भी तरह से धार्मिक साहित्य की श्रेणी में रखकर एकांगी एवं संकीर्ण नहीं बनाया जाना चाहिए। आध्यात्मिक कविता के श्रेष्ठतम मानक भारतीय कविता तथा कला के मानक हैं—और उन्हीं से हम भारतीयों की पहचान भी सम्भव है।
—डॉ. योगेन्द्र प्रताप सिंह
Dwabha
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

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Description:
नामवर सिंह जीते-जी विशिष्ट शख़्सियत की देहरी लाँघकर एक लिविंग ‘लीजेंड' हो चुके थे। तमाम तरह के विवादों, आरोपों और विरोध के साथ असंख्य लोगों की प्रसंशा से लेकर ‘भक्ति-भाव तक को समान दूरी से स्वीकारने वाले नामवर जी ने पिछले दशकों में मंच से इतना बोला कि शोधकर्ता लगातार उनके व्याख्यानों को एकत्रित कर रहे हैं और पुस्तकों के रूप में पाठकों के सामने ला रहे हैं। यह पुस्तक भी इसी तरह का एक प्रयास है लेकिन इसे किसी शोधार्थी ने नहीं उनके पुत्र विजय प्रकाश ने संकलित किया है।
इस संकलन में मुख्यत: उनके व्याख्यान हैं और साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखे-छपे उनके कुछ आलेख भी हैं। नामवर जी ने अपने जीवन-काल में कितने विषयों को अपने विचार और मनन विषय बनाया होगा, कहना मुश्किल है। अपने अपार और सतत अध्ययन तथा विस्मयकारी स्मृति के चलते साहित्य और समाज से लेकर दर्शन और राजनीति तक पर उन्होंने समान अधिकार से सोचा और बोला। इस पुस्तक में संकलित आलेख और व्याख्यान पुन: उनके सरोकारों की व्यापकता का प्रमाण देते हैं। इनमें हमें सांस्कृतिक बहुलतावाद, आधुनिकता, प्रगतिशील आन्दोलन, भारत की जातीय विविधता जैसे सामाजिक महत्त्व के विषयों के अलावा अनुवाद, कहानी का इतिहास, कविता और सौन्दर्यशास्त्र, पाठक और आलोचक के आपसी सम्बन्ध जैसे साहित्यिक विषयों पर भी आलेख और व्याख्यान पढ़ने को मिलेंगे।
पुस्तक में हिन्दी और उर्दू के लेखकों-रचनाकारों पर केन्द्रित आलेखों के लिए एक अलग खंड रखा गया है जिसमेँ पाठक मीरा, रहीम, संत तुकाराम, प्रेमचन्द, राहुल सांकृत्यायन, त्रिलोचन, हजारीप्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, परसाई, श्रीलाल शुक्ल, ग़ालिब और सज्जाद ज़हीर जैसे व्यक्तित्वों पर कहीं संस्मरण के रूप में तो कहीं उन पर आलोचकीय निगाह से लिखा हुआ गद्य पढ़ेंगे।
बानगी के रूप में देश की सांस्कृतिक विविधता पर मँडरा रहे संकट पर नामवर जी का कहना है : ‘संस्कृति एकवचन शब्द नहीं है, संस्कृतियाँ होती हैं...सभ्यताएँ दो-चार होंगी लेकिन संस्कृतियाँ सैकड़ों होती हैँ...सांस्कृतिक बहुलता का नष्ट होते हुए देखकर चिन्ता होती है और फिर विचार के लिए आवश्यक स्रोत ढूँढ़ने पड़ते हैं।’ यह पुस्तक ऐसे ही विचार-स्रोतों का पुंज है।
Sahitya Vidhaon Ki Prakriti
- Author Name:
Devishanker Awasthi
- Book Type:

- Description: यह पुस्तक सृजनात्मक लेखन की सभी विधाओं के मूलभूत स्वरूप, उनके अन्तःतत्त्वों और उनकी प्रकृति का प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत करने के क्रम में विश्व के प्रमुख समीक्षकों के दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक आदि प्रमुख साहित्यिक विधाओं ने किस प्रकार अपने स्वरूप का क्रमिक निर्माण किया है, उनकी प्रकृति में अन्तर्भूत सृजनात्मकता के आयाम किस प्रकार बदलते और जुड़ते रहे हैं तथा जातीय संस्कृति की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में—विधाएँ किस प्रकार प्रमुख या गौण भूमिका निभाती हैं—इन सारे प्रश्नों पर विश्व के प्रमुख चिन्तकों के बीच जो भी मतभेद और सहमति के बिन्दु उपलब्ध हैं, उन्हें एक ग्रन्थ में प्रस्तुत करने का यह एक ऐतिहासिक प्रयास है।
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