
Vinayak
Publisher:
Rajkamal Prakashan Samuh
Language:
Hindi
Pages:
263
Country of Origin:
India
Age Range:
18-100
Average Reading Time
526 mins
Book Description
...जो भी हो, इसका मतलब यही हुआ कि कुछ देना-पावना बचा था तुम्हारा मेरी तरफ़, जिसे तुम्हें मुझसे वसूल करना ही था।</p> <p>...दूरबीन लगाकर देखा, तुम ख़ासे फल-फूल रहे हो। सेवानिवृत्ति की सरहद पर हो, फिर भी एक और लम्बी छलाँग लगाने को तैयार बैठे हो। ...इस सबके बीच तुम्हें घर की याद जैसी पिछड़ी और बासी-बूसी चिन्ता क्यों सताने लगी—मेरी समझ से बाहर है। देखता हूँ, तुम्हारे भीतर का वह कौतुकी-खिलंदड़ा बीनू अभी भी ज़िन्दा है। अभी भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा।</p> <p>...उफ़! ऐसी भरी-पूरी और फलती-फूलती गिरस्ती के बीचोबीच यह कैसा बवंडर बो दिया तुमने! अजीब भँवर में डाल दिया है तुमने मुझे विनायक! तुम मेरे क़ाबू से बाहर हुए जा रहे हो। मैं क्या करूँ तुम्हारा अब? मेरी स्मृति भी मेरा साथ नहीं दे रही। ओह, अब याद आया। स्मृति नहीं, ‘प्रतिस्मृति’। जानते हो यह क्या होती है?</p> <p>...पर, विनायक! अब यह मेरी ज़िम्मेदारी है, तुम्हारी नहीं। तुम्हें मैं जहाँ तक देख-सुन सकता था, दिखा-सुना चुका। जितनी दूर तक तुम्हारा साथ दे सकता था, दे चुका। अब तुम अपनी राह चलने को स्वतंत्र हो, और मैं अपनी।</p> <p>यह एक ऐसा उपन्यास है जिसे इस लेखक के ही सुप्रसिद्ध और पहले-पहले उपन्यास ‘गोबरगणेश’ के नायक की उत्तरकथा की तरह भी पढ़ा जा सकता है और अपने-आप में मुकम्मल स्वतंत्र कृति की तरह भी। हाँ, जैसे उस विनायक का, वैसे ही इस विनायक का भी जिया-भोगा सब कुछ संवेदनशील पाठकों को ख़ुद अपनी जीवनानुभूति के क़रीब लगेगा : क्योंकि, यह किसी सिद्धिविनायक की नहीं, हमारे-आपके जैसे ही हर असिद्ध की व्यथा-कथा है, जिसमें अन्तर्द्वन्द्व और त्रास ही नहीं, उमंग और उल्लास भी कुछ कम जगह नहीं घेरते। चाहे चरितनायक हो, चाहे लच्छू-चन्दू-त्रिभुवन और हरीशनारायण सरीखे उसके नए-पुराने संगी-साथी हों, चाहे स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की अक्षय ऊष्मा और दुर्निवार्य उलझनों को साकार करनेवाले चरित्र—मालती, मार्गरेट और शकुन्तला उर्फ मिसेज़ दुबे हों—सभी के इस आख्यान में घटित होने की लय हमारे सामूहिक और व्यक्तिगत जीने की लय से अभिन्न है। लय, जो जितनी जीने के ‘सेंसेशन’ की है, उतनी ही सोचने-महसूसने और उस सोचने-महसूसने को कहने की ज़िन्दा हरकतों की भी।</p> <p>अन्तर्बाह्य जीवन की सनसनी से भरपूर यह उपन्यास अपने ही ढंग से, अपने ही सुर-ताल में जीवन के अर्थ की तलाश में भी पड़ता है : अपने ही जिये-भोगे हुए का भरपूर दबाव उसे उस ओर अनिवार्यतः ठेलता है। जीवन क्या किसी का भी, महज़ सीधी लकीर नहीं, एक वृत्त, बल्कि वर्तुल है जो ‘अन्त’ को ‘आरम्भ’ से मिला के ही पूरा होता है? यह भी महज़ संयोग नहीं, कि उपन्यास का आरम्भ ‘माई डियर बीनू’ को लिखी गई एक चिट्ठी और एक ख़ुशबू से होता है और उपसंहार स्वयं इस चरितनायक को उसके रचयिता के सीधे सम्बोधन और ‘प्रतिस्मृति’ से।