Tola
Author:
Ramesh Dutt DubePublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 316
₹
395
Available
हिन्दी में पिकरेस्क उपन्यासों की परम्परा बहुत पुरानी नहीं है। 1928 में केदारनाथ अग्रवाल ने ‘पतिया’ लिखा, इसी के आसपास सूर्यकान्त त्रिापाठी ‘निराला’ के ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ और ‘कुल्लीभाट’ भी लिखे गए। ये सभी उपन्यास, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, व्यक्ति- केन्द्रित हैं। पश्चिम में भी पिकरेस्क उपन्यासों का जन्म ‘डेविड कॉपरफील्ड’ जैसी व्यक्ति-केन्द्रित कथाओं से हुआ था। <br>सामन्ती व्यवस्था के अन्तिम दिनों में समाज में एक ऐसा वर्ग उभर रहा था जो औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए अनिवार्य था। समाज के घूरे पर फेंक दिया गया यह वर्ग नाले के उस पार का है, रोज कुआँ खोदने को विवश जो केवल अपने जीवट के बल पर ही जीवित है। समाज के ये दईमारे, बेचारे, हारे हुए लोग रमेश दत्त दुबे के टोले के बाशिंदे हैं—इनके नाम भले अलग- अलग हों, पर इनके अभाव एक से हैं, इनके चेहरे एक से हैं, इनके जीवन की दुर्घटनाएँ एक सी हैं क्योंकि रूढ़ियों और अभावों की जिस चक्की में ये पिस रहे हैं, उसमें साबुत बचा न कोय। <br>रमेश के टोले में जो रहते हैं, कौन हैं वे लोग—बीड़ी और अवैध शराब बनानेवाले, गर्भपात करवानेवाले, मछली मारनेवाले, बैलगाड़ी हाँकने वाले। स्त्रियाँ हैं तो वे जंगल से लकड़ियाँ बीनने के लिए हैं, पति की मार खाने के लिए हैं, देह व्यापार के लिए हैं, लड़ने-झगड़ने के लिए हैं। इन्हें अपने जीवन से कोई शिकायत नहीं है क्योंकि इन्हें अपने जीवन से कोई अपेक्षा ही नहीं है। <br>‘टोला’ की कहानी का न कहीं से प्रारम्भ होता है, न कहीं अन्त क्योंकि इस कथा के पात्रों का न कोई आदि है, न अन्त। बरसात में उफनते नाले में जैसे कचरा बहता है वैसे ही टोले के पात्र आते-जाते हैं—एक-दूसरे को ठेलते हुए, थोड़ी देर के लिए, एक हहराती हुई गन्दगी को बहाकर आगे बढ़ाने के लिए ताकि वह नयी गन्दगी के लिए जगह बना सकें। किसी बेहतर जीवन का न कोई वायदा, न कोई यकीं, न कोई उम्मीद। पर लेखक को इन्तजार है। शायद यही इन्तजार ‘टोला’ को सर्जनात्मक संवेदना से मंडित करता है और उसे आस्था-विहीन नहीं बनाता।<br>—कान्तिकुमार जैन
ISBN: 9788171198740
Pages: 108
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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“चाहत! चाहत का मतलब समझते हैं आप लोग? एक इनसान को दो वक़्त का खाना देने से ही क्या चाहत होती है? सिर छुपाने के लिए थोड़ी-सी जगह दे देने से ही क्या कर्तव्य ख़त्म हो जाता है? ब्याह कर भाइयों के पास बीवी को छोड़ जाने से ही क्या शौहर के सब दायित्वों का निर्वाह हो जाता है?...दिन-पर-दिन उसके भाई मुझ पर हाथ उठाते हैं...अशोभनीय भाषा में गाली-गलौच करते हैं...माता-पिता तक को गालियाँ देते हैं...”
सुष्मिता बंद्योपाध्याय का दिल दहला देनेवाला आत्मकथात्मक उपन्यास है—‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी’।
बंगाली ब्राह्मण परिवार की लड़की का एक अफ़ग़ानी लड़के से प्रेम, फिर विवाह और फिर आठ साल तक अफ़ग़ानिस्तान में यातनाओं का कुचक्र—यही कथाभूमि है इसकी।
इस आत्मकथ्य में जहाँ तालिबानी पृष्ठभूमि की, निरंकुश धार्मिक कट्टरताओं को बेनक़ाब किया गया है, वहीं निरपेक्ष रूप से एक स्त्री की, छोटे बच्चे की तरह अपने घर वापस आने की छटपटाहट को भी मार्मिक अभिव्यक्ति मिली है।
भीतर तक हौला देनेवाला उपन्यास है—‘काबुलीवाले की बंगाली बीवी’।
Shri Shriganesh Mahima
- Author Name:
Mahashweta Devi
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यह बिहार के एक गाँव की कहानी है, जो बीसवीं सदी में नहीं, अभी भी मध्ययुग के बीहड़ अँधेरों में जी रहा है और जहाँ आज भी भारत सरकार का नहीं, बल्कि ऊँची जाति के राजपूत मालिकों का प्रभुत्व चलता है। वही निरंकुश यह तय करते हैं कि नीची जातियों के मर्द–औरतों की भूमिका कब ज़रख़रीद ग़ुलाम, कब बँधुआ मज़दूर, कब उजड़े किसान और कब रखैल की होगी।
भूमि–अधिपति श्री श्री गणेश है, इस बर्बर और हिंस्र व्यवस्था का निरंकुश शासक जिसकी महिमा का बखान जन्म से लेकर उसके पिताश्री की रखैल और उसकी धाय माता लछिमा के हाथों मारे जाने तक बड़ी सशक्त शैली में किया गया है। लेकिन फ़िलहाल हारी जानेवाली इस लड़ाई में शामिल लोगों की चित्र–वीथी में हैं हर जगह और हर युग में अत्याचारी के विरुद्ध चिनगारी फूँकने वालों की परम्परा में राँका दुसाध, गांधीवादी अभय महतो, नक्सली जुगलकरन और बस्तियों से जंगलों में भागकर आई अनाम भीड़।
उपन्यास में हरेक की छवि बड़ी ही सहज और सशक्त रंगों में उभारी गई है। मध्यवर्ग की नई पीढ़ी की यौवन पल्लवी शाह की बौनी सहानुभूति पर किया गया कटाक्ष इस उपन्यास के पाठक कभी भूल नहीं पाएँगे। लेकिन बीहड़ अँधेरे में किरण है सरसतिया की आवाज़, जो अपनी कोख से राँका दुसाध जैसी उद्धत सन्तान को टेर रही है, यही है इस उपन्यास में उपन्यासकार की आस्था का उद्घोष।
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