Patrangpur Puran
Author:
Mrinal PandePublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 100
₹
125
Unavailable
रचनात्मक गद्य की गहराई और पत्रकारिता की सहज सम्प्रेषणीयता से समृद्ध मृणाल पाण्डे की कथाकृतियाँ हिन्दी जगत में अपने अलग तेवर के लिए जानी जाती हैं<strong>।</strong> उनकी रचनाओं में कथा का प्रवाह और शैली उनका कथ्य स्वयं बुनता है<strong>।</strong></p>
<p>‘पटरंगपुर पुराण’ के केन्द्र में पटरंगपुर नाम का एक गाँव है जो बाद में एक क़स्बे में तब्दील हो जाता है<strong>।</strong> इसी गाँव के विकास-क्रम के साथ चलते हुए यह उपन्यास कुमाऊँ-गढ़वाल के पहाड़ी क्षेत्र के जीवन में पीढ़ी-दर-पीढ़ी आए बदलाव का अंकन करता है<strong>।</strong> कथा-रस का सफलतापूर्वक निर्वाह करते हुए इसमें काली कुमाऊँ के राजा से लेकर भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति तक के समय को लिया गया है<strong>।</strong></p>
<p>परिनिष्ठित हिन्दी के साथ-साथ पहाड़ी शब्दों और कथन-शैलियों का उपयोग इस उपन्यास को विशेष रूप से आकर्षित बनाता है, इसे पढ़ते हुए हम न केवल सम्बन्धित क्षेत्र के लोक-प्रचलित इतिहास से अवगत होते हैं, बल्कि भाषा के माध्यम से वहाँ का जीवन भी अपनी तमाम सांस्कृतिक और सामाजिक भंगिमाओं के साथ हमारे सामने साकार हो उठता है<strong>।</strong> कहानियों-क़िस्सों की चलती-फिरती खान, विष्णुकुटी की आमा की बोली में उतरी यह कथा सचमुच एक पुराण जैसी ही है<strong>।</strong>
ISBN: 9788183613668
Pages: 164
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
अन्तिम अरण्य निर्मल वर्मा का आख़िरी उपन्यास है जिसका प्रकाशन दो सदियों के सन्धि-बिन्दु पर वर्ष 2000 में हुआ था। हिन्दी समाज में एक घटना की तरह प्रकट हुआ यह उपन्यास लम्बे समय तक चर्चाओं का विषय रहा।
कुछ समीक्षकों ने इसे मृत्यु का आख्यान कहा, लेकिन यह ठीक-ठीक वही नहीं है, नश्वरता का एक गहरा अहसास इस उपन्यास के केन्द्र में ज़रूर है। जीवन के एक विशिष्ट मोड़ पर आकर ठहरे हुए इसके चरित्र एक तरह से अपने भीतर की यात्रा पर निकले हैं और इस तरह जिजीविषा और मृत्यु की अपरिहार्यता का अन्वेषण करते हुए उस जीवन से साक्षात्कार करते हैं जो जिया जा चुका है, लेकिन अभी भी स्मृतियों के रूप में सजीव है।
पूरा उपन्यास नैरेटर की डायरी की शक्ल में सामने आता है जिसमें वह मेहरा साहब से बात करते हुए नोट्स लेता है। वह स्वयं भी अपने कुछ प्रश्नों के उत्तर तलाश रहा है। अतीत, वर्तमान और भविष्य में आवाजाही करते हुए इस तरह एक संश्लिष्ट कथा बनती है जो अन्त तक आते-आते एक आध्यात्मिक और निर्मल ऊँचाई तक पहुँच जाती है।
पहाड़ और पहाड़ का जीवन इस उपन्यास में एक सम्पूर्ण पात्र की तरह मौजूद जो इसके विमर्श को और गहराता है, कथा को एक विलक्षणता प्रदान करता है और बिम्बों, प्रतीकों, छवियों का एक भूगोल रचता है जिससे अस्तित्व से जुड़े गहन प्रश्नों को एक विराट पृष्ठभूमि मिलती है। अन्तिम अरण्य निर्मल वर्मा का आख़िरी उपन्यास है जिसका प्रकाशन दो सदियों के सन्धि-बिन्दु पर वर्ष 2000 में हुआ था। हिन्दी समाज में एक घटना की तरह प्रकट हुआ यह उपन्यास लम्बे समय तक चर्चाओं का विषय रहा।
कुछ समीक्षकों ने इसे मृत्यु का आख्यान कहा, लेकिन यह ठीक-ठीक वही नहीं है, नश्वरता का एक गहरा अहसास इस उपन्यास के केन्द्र में ज़रूर है। जीवन के एक विशिष्ट मोड़ पर आकर ठहरे हुए इसके चरित्र एक तरह से अपने भीतर की यात्रा पर निकले हैं और इस तरह जिजीविषा और मृत्यु की अपरिहार्यता का अन्वेषण करते हुए उस जीवन से साक्षात्कार करते हैं जो जिया जा चुका है, लेकिन अभी भी स्मृतियों के रूप में सजीव है।
पूरा उपन्यास नैरेटर की डायरी की शक्ल में सामने आता है जिसमें वह मेहरा साहब से बात करते हुए नोट्स लेता है। वह स्वयं भी अपने कुछ प्रश्नों के उत्तर तलाश रहा है। अतीत, वर्तमान और भविष्य में आवाजाही करते हुए इस तरह एक संश्लिष्ट कथा बनती है जो अन्त तक आते-आते एक आध्यात्मिक और निर्मल ऊँचाई तक पहुँच जाती है।
पहाड़ और पहाड़ का जीवन इस उपन्यास में एक सम्पूर्ण पात्र की तरह मौजूद जो इसके विमर्श को और गहराता है, कथा को एक विलक्षणता प्रदान करता है और बिम्बों, प्रतीकों, छवियों का एक भूगोल रचता है जिससे अस्तित्व से जुड़े गहन प्रश्नों को एक विराट पृष्ठभूमि मिलती है।
Para Para
- Author Name:
Pratyaksha
- Book Type:

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समाज की, प्रेम की, और देह की एक-दूसरे को काटती नैतिकताओं के द्वन्द्व में उलझा एक मन है जो फ़ौरी राहत के लिए अपने अतीत के सफ़र पर निकल पड़ता है। अतीत की नीम रौशन गलियों में जहाँ अपने-अपने वक़्तों को जीते पुरखे हैं, पुरखिनें हैं, उनके रिश्ते हैं, सुख-दुख हैं, उनका वैभव है, एक बड़ी दुनिया जो अब तुड़ी-मुड़ी पुरानी तस्वीरों और पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आती स्मृतियों में जीवित है।
अपने विवाहित जीवन में आई प्रेम की ताज़ा और जीवन्त हिलोर में बँधी हीरा सिर्फ़ प्रेम की सम्पूर्णता को जानती है, और उसे उसी निष्पाप भाव से जीना चाहती है; लेकिन जीवन की सुपरिभाषित सरणियों में न उसकी कामना अँट पाती है, न उसका प्रेम। नतीजा ख़ुद की और अपने सुकून की तलाश में भीतर और बाहर का सफ़र जो अपने साथ हमें भी एक दूसरी ही दुनिया में ले जाता है; जो परिवार अब दुनिया के अलग-अलग शहरों में फैला हुआ है, उसकी गहरी जड़ों को छूने की कोशिश ताकि कहीं से अपने आज के खंड-खंड सच को समझने का कोई सूत्र मिल जाए। वह सुकून मिल जाए जो किसी भी साँस लेती देह को चाहिए।
प्रत्यक्षा का यह नया उपन्यास स्मृति और इच्छा की इसी बुनत में एक सघन पाठ की रचना करता है।
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