Path Ka Daava
Author:
SharatchandraPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 280
₹
350
Available
शरत् के अत्यन्त लोकप्रिय उपन्यास ‘पथेर दाबी’ का यह नया और प्रामाणिक अनुवाद एक बार फिर आत्ममन्थन और वैचारिक-सामाजिक बेचैनी की उस दुनिया में ले जाने को प्रस्तुत है, जो साठ-सत्तर साल पहले इस देश की आम आबोहवा थी। एक तरफ़ अंग्रेज़ सरकार का विरोध, उसी के साथ-साथ सामाजिक रूढ़ियों से मुक्ति का जोश और एक सजग राष्ट्र के रूप में पहचान अर्जित करने की व्यग्रता—यह सब उस दौर में साथ-साथ चल रहा था। शरत् का यह उपन्यास बार-बार बहसों में जाता है, अपने वक़्त को समझने की कोशिश करता है, और प्रतिरोध तथा अस्वीकार की एक निर्भीक और स्पष्टवादी मुद्रा को आकार देने का प्रयास करता है।</p>
<p>पहली बार सम्पूर्ण पाठ के साथ, सीधे बांग्ला से अनूदित यह उपन्यास भावुक-हृदय शरत् के सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों और चिन्ताओं का एक व्यापक फलक प्रस्तुत करता है। तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों पर दो टूक बात करता यह उपन्यास एक लेखक के रूप में शरत् की निर्भीकता और स्पष्टवादिता का भी प्रमाण है। अंग्रेज़ी शासन और बंगाली समाज के बारे में उपन्यास के मुख्य पात्र डॉ. सव्यसाची की टिप्पणियों ने तब के प्रभु समाज को विकल कर दिया था, तो यह स्वाभाविक ही था। अपने ही रोज़मर्रापन में गर्क भारतीय समाज को लेकर जो आक्रोश बार-बार इस उपन्यास में उभरा है, वह मामूली फेरबदल के साथ आज भी हम अपने ऊपर लागू कर सकते हैं। उल्लेखनीय है डॉक्टर का यह वाक्य, “ऐसा नहीं होता, भारती, कि जो पुराना है वही पवित्र है। सत्तर साल का आदमी पुराना होने की वजह से दस साल के बच्चे से ज़्यादा पवित्र नहीं हो सकता।”</p>
<p>स्वतंत्रता संघर्ष की उथल-पुथल के दौर में भारतीय समाज के भीतर चल रही नैतिक और बौद्धिक बेचैनियों को प्रामाणिक ढंग से सामने लाता एक क्लासिक उपन्यास।
ISBN: 9788183614245
Pages: 352
Avg Reading Time: 12 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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परमाणु हथियारों की जरूरत किसे है, देशों और उनके नक़्शों को? वहाँ रहने वाले लोगों को, या उन लोगों के डरों को अपनी सत्ताकांक्षा की खुराक बनाने वाले राष्ट्राध्यक्षों को? या यह सिर्फ संसार के शक्ति-सन्तुलन की माँग है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती?
‘रुई लपेटी आग’ के केन्द्र में मूलत: यही प्रश्न हैं जिन्हें उपन्यास अपनी विशिष्ट कथा-शैली में धीरे-धीरे जरूरी प्रश्नों के तौर पर स्थापित कर देता है। कथा का एक सिरा संगीत है और दूसरा पोखरण। वही पोखरण जहाँ 1974 और फिर 1998 में भारत ने अपने सफल परमाणु परीक्षण किए थे और जिनके चलते दुनिया के परमाणु शक्ति-सम्पन्न देशों की श्रेणी में सम्मानित जगह बना पाया था। दूसरी तरफ पखावज है जिसकी रचना, एक किंवदन्ती के अनुसार, शिव के तांडव को लयबद्ध करने के लिए ब्रह्मा ने की थी ताकि सृष्टि के विनाश को रोका जा सके।
पखावज उस विनाश को रोक तो नहीं पाता लेकिन उससे पैदा हुए घावों को खुली आँखों से देखते हुए अपनी असहमति ज़रूर व्यक्त करता है। हिरोशिमा और नागासाकी को एक चेतावनी की तरह याद रखते हुए पखावज की साधिका अरुंधति पोखरण से मात्र चार किलोमीटर दूर स्थित खेतोलाई गाँव की भूमि को अपने कार्यक्रम के लिए चुनती है। पोखरण में हुए परमाणु विस्फोट के परिणामस्वरूप राजस्थान के इस गाँव में आज ऐसा कोई घर नहीं है जहाँ एक-दो लोग गम्भीर बीमारियों के शिकार नहीं हैं।
उपन्यास में भारत की उस सहज जीवनशैली को बखूबी रेखांकित किया गया है जिसमें विभिन्न समुदायों की सहजीविता समाज के सहजबोध का हिस्सा है, और जो बीच-बीच में साम्प्रदायिक राजनीति का शिकार होते रहने के बावजूद अभी तक बची हुई है।
लेकिन केंद्रीय प्रश्न परमाणु शक्ति की नैतिक वैधता का ही है, रुई में लिपटी रखी उस आग के औचित्य का जो कभी भी भड़क सकती है और पूरी मानव-जाति के विनाश का कारण बन सकती है।
Agin Pathar
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- Description: आज़ादी के साथ ही हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता का जो जख़्म देश के दिल में घर कर गया वो समय के साथ मिटने के बजाय रह-रहकर टीसता रहता है। इसे सींचते हैं दोनों सम्प्रदायों के तथाकथित रहनुमा। अफ़वाहों, भ्रान्तियों को हवा देकर साम्प्रदायिकता की आग भड़काई जाती है और उस पर सेंकी जाती है स्वार्थ की रोटी। चन्द गुंडे-माफ़िया अपनी मर्ज़ी से हालात को मनचाही दिशा में भेड़ की तरह मोड़ देते हैं और व्यवस्था अपने चुनावी समीकरण पर विचार करती हुई राजनीति का खेल खेलती है। प्रशासन को पता भी नहीं होता और बड़ी से बड़ी दुर्घटना हो जाती है। क़ानून के कारिन्दे सत्ता की कुर्सी पर बैठे नेताओं की कठपुतली बने रहते हैं। अपने को जनपक्षधर बतानेवाला लोकतंत्र का चौथा खम्भा भी बाज़ार की माँग के अनुसार अपनी भूमिका निर्धारित करता है। प्रिंट ऑर्डर बढ़ाने के चक्कर में सम्पादकीय नीति रातोंरात बदल जाती है और अख़बार किसी ख़ास सम्प्रदाय के भोंपू में तब्दील हो जाता है। साम्प्रदायिकता के इसी मंज़रनामे को बड़ी ही संवेदनशील भाषा में चित्रित करता है यह उपन्यास ‘अगिन पाथर’। मगर इस चिन्ताजनक हालात में भी रामभज, अरशद आलम, चट्टोपाध्याय, हरिभाई चावड़ा, इला और शान्तनु जैसे आम लोग जो मानवीयता की लौ को बुझने नहीं देते। ‘अगिन पाथर’ व्यास मिश्र का पहला उपन्यास है, मगर इसका शिल्प-कौशल और भाषा-प्रवाह इतना सधा हुआ और परिमार्जित है कि पाठक इसे एक बैठक में ही पढ़ना चाहेंगे।
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उड़िया के प्रख्यात कथाकार शांतनु कुमार आचार्य की कालजयी कृति है—‘शकुन्तला’। इसमें लेखक ने तेलंगाना की कृषक क्रांति की असफलता के कारणों के साथ-साथ उस क्षेत्र की तत्कालीन भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक स्थितियों का बेबाकी से खुलासा किया है। “तेलंगाना में स्थित कौनुआँ एक पुराना गाँव है। संभव है यह गाँव उस प्राचीन ‘कण्वाश्रम’ से भी अधिक पुराना हो। क्या पता कौनुआँ का कण्व होने से पहले यहाँ मनुष्य के भाग्य-मंच पर हजारों-लाखों बार ‘शकुन्तला’ नाटक का अभिनय हुआ हो!” किंतु जिस समय का यह इतिहास है, उस समय कौनुआँ गाँव नक्सलियों का अड्डा बन चुका था। नक्सलियों की धर-पकड़, मार-काट, लूट-खसोट—पूरा माहौल रक्तरंजित था। बिना तहकीकात किए, शक के आधार पर ही निर्दोषों को सजा देने की जैसे पुलिस ने कसम खा ली थी! ऐसे समय में एक औरत नदी को पार कर, एकदम अकेली कौनुआँ गाँव में आ पहुँची ‘अप्सरा’ बनकर। उसी नगरी में जहाँ कभी ‘कण्व ऋषि’ का आश्रम था। वह अप्सरा कोई और नहीं, शकुन्तला ही थी, जो अपने पीहर आई थी।
लेकिन आज सबके सामने वह एक मुजरिम की तरह खड़ी थी—बेबस, गुमसुम ! नक्सलियों के निर्मम आत्मसमर्पण के लिए वह अप्सरा अपने-आपको जिम्मेदार ठहरा रही थी। उसे अच्छी तरह मालूम था कि आगे की दुर्घटना का क्या मतलब है। स्वयं उसने नक्सलियों को उकसाया था। जनता का मुकाबला करने को। “यह गुरिल्ला युद्ध छोड़ो। जैसे भी हो, हमें आखिरकार जनता का सामना तो करना पड़ेगा न। दुनिया में आज तक ऐसी कोई सामाजिक क्रांति सफल नहीं हो पाई, जो समाज से छिपकर संघटित हुई।” नक्सलियों को यही तर्क देकर अप्सरा हरा सकी थी। किंतु आज, अंतिम क्षण में उसके नेतृत्व और निर्देशन के कारण यह दुर्घटना हो रही है—यह सोचकर अप्सरा स्वयं को मुजरिम मान लेती है। ...अब वह अप्सरा नहीं रह गई। वह सिर्फ असीमा उपाध्याय है—एक सर्वोदय कार्यकर्ता।
तत्कालीन परिवेश को अपने जीवंत रूप में प्रस्तुत करनेवाली एक महान कथाकृति—‘शकुन्तला’।
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