Baramasi
Author:
Gyan ChaturvediPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 280
₹
350
Available
ज्ञान चतुर्वेदी ने परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी और श्रीलाल शुक्ल की व्यंग्य-परम्परा को न केवल आगे बढ़ाया है, वरन् कई अर्थों में उसे और समृद्ध किया है। विषय-वैभिन्नय तथा भाषा और शैलीगत प्रयोगों के लिए वे हिन्दी व्यंग्य में ‘हमेशा ही कुछ नया करने को आतुर’ लेखक के रूप में विख्यात हैं। लकीर पीटने के वे सख़्त खिलाफ हैं–चाहे वह स्वयं उनकी अपनी खींची हुई ही क्यों न हो !<br />‘बारामासी’ बुन्देलखंड के एक छोटे से कस्बे के, एक छोटे से आँगन में पल रहे छोटे-छोटे स्वप्नों की कथा है–वे स्वप्न, जो टूटने के लिए ही देखे जाते हैं और टूटने के बाद तथा बावजूद देखे जाते हैं। स्वप्न देखने की अजीब उत्कंठा तथा उन्हें साकार करने के प्रति धुँधली सोच और फिर-फिर उन्हीं स्वप्नों को देखते जाने का हठ–कथा न केवल इनके आसपास घूमती हुई मानवीय सम्बन्धों, पारम्परिक शादी-ब्याह की रस्मों, सडक़छाप कस्बाई प्यार, भारतीय कस्बों की शिक्षा-पद्धति, बेरोजगारी, माँ-बच्चों के बीच के स्नेहिल पल तथा भारतीय मध्यवर्गीय परिवार के जीवन-व्यापार को उसके सम्पूर्ण कलेवर में उसकी समस्त विडम्बनाओं-विसंगतियों के साथ पकड़ती है, साथ ही बुन्देलखंडी परिवेश के श्वास-श्वास में स्पन्दित होते सहज हास्य-व्यंग्य को भी समेटती चलती है।
ISBN: 9788126708673
Pages: 248
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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ऐतिहासिक औपन्यासिक कृतियों की शृंखला में ‘प्रथमं शैलपुत्री च’ तथा ‘मंत्रपुत्र’ के बाद ‘पुरोहित’ मायानंद मिश्र का तीसरा उपन्यास है। इस उपन्यास की कथा पूर्व उत्तरवैदिक काल के संधि संक्रमणकालीन ब्राह्मण युग (ई.पू. 1200 ई. से ई.पू. 1000 ई. तक) के भारत की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवन-परम्परा की जटिल गुत्थियों को बहुत ही बारीकी से खोलती और विश्लेषित करती है। इस काल की महत्ता लेखक के शब्दों में : ‘‘वस्तुतः स्वयं भारतवर्ष तथा उसकी ‘आत्मा’ का जन्म इसी ब्राह्मण काल में हुआ है। आज जो भी भारत में है, चाहे वह भौतिकता का विकास हो अथवा आध्यात्मिकता का उत्कर्ष, वह इसी काल की देन है।’’
प्रामाणिक ऐतिहासिक साक्ष्यों को आधार बनाकर उस काल में आर्यावर्त्त के विभिन्न जनपदों में क़ायम शासन प्रणाली और उसकी व्यवस्था में आ रहे परिवर्तन का लेखक ने बड़ा ही जीवन्त चित्रण किया है। इस उपन्यास से उस काल के शिक्षा-कर्म, पौरोहित्य-कर्म, कृषि-कर्म, राज-काज और जीवन-दर्शन का स्वाभाविक परिचय मिलता है। काल-पात्र अनुकूल शब्दावली को काव्यात्मक सरस भाषा में ढालकर रोचक प्रवाह क़ायम रखना मायानंद मिश्र की चिर-परिचित विशेषता है जिस कारण उपन्यास में सर्वत्र ग़ज़ब की पठनीयता बनी रहती है।
मेधा और कुशबिन्दु के सहज स्वाभाविक प्रेम और चुहल के साथ उसकी कर्त्तव्यनिष्ठा और व्यावहारिकता ही नहीं; अथर्वण ऋताश्व, आचार्य गालव, आचार्य श्रुतिभव, आचार्य चाक्रायण आदि की जीवन-साधना और उनके दर्शन से सम्बन्धित विभिन्न प्रसंग उस काल की विभिन्न स्थितियों-परिस्थितियों की सूचना और वैचारिक उत्तेजना देते हैं।
Bhavbhuti Katha
- Author Name:
Mahesh Katare
- Book Type:

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भवभूति आठवीं सदी में हुए थे। नाटककार थे, कवि थे। संस्कृत में लिखे उनके नाटकों को कालिदास की रचनाओं के बराबर माना जाता है।
यह उपन्यास उनके जीवन पर आधारित है, जिसकी मुख्य कथाधारा ब्राह्मण होने के बावजूद नाट्य-कर्म में उनकी प्रवृत्ति और उसके चलते अपने समाज में उनके संघर्ष के साथ-साथ चलती है।
महेश कटारे इससे पूर्व भर्तृहरि पर केन्द्रित एक अत्यन्त लोकप्रिय उपन्यास की रचना कर चुके हैं। भारत के सांस्कृतिक इतिहास के उल्लेखनीय पड़ावों को औपन्यासिक कलेवर में प्रस्तुत करते हुए वे तत्कालीन तथ्यों और आज के प्रश्नों को बराबर ध्यान में रखते हैं। देश, काल और पात्रानुकूल भाषा तथा जीवन-व्यवहार के विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हुए वे एक तरफ जहाँ अतीत को मूर्तिमान कर देते हैं, वहीं मानव-समाज और व्यवस्था के लिए हमेशा प्रासंगिक रहने वाले मुद्दों को भी अनदेखा नहीं करते।
भवभूति के बहुवर्णी चरित्र पर केन्द्रित यह उपन्यास भी उसका अपवाद नहीं है।
Bhairavee
- Author Name:
Shivani
- Book Type:

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...“कैसा आश्चर्य था कि वही चन्दन, जो कभी सड़क पर निकलती अर्थी की रामनामी सुनकर माँ से चिपट जाती थी, रात-भर भय से थरथराती रहती थी, आज यहाँ शमशान के बीचोबीच जा रही सड़क पर निःशंक चली जा रही थी। कहीं पर बुझी चिन्ताओं के घेरे से उसकी भगवा धोती छू जाती, कभी बुझ रही चिता का दुर्गंधमय धुआँ हवा के किसी झोंके के साथ नाक-मुँह में घुस जाता।...”
जटिल जीवन की परिस्थितियों ने थपेड़े मार-मारकर सुन्दरी चन्दन को पतिगृह से बाहर किया और भैरवी बनने को बाध्य कर दिया। जिस ललाट पर गुरु ने चिता-भस्मी टेक दी हो क्या उस पर सिन्दूर का टीका फिर कभी लग सकता है?
शिवानी के इस रोमांचकारी उपन्यास में सिद्ध साधकों और विकराल रूपधारिणी भैरवियों की दुनिया में भटककर चली आई भोली, निष्पाप चन्दन एक ऐसी मुक्त बन्दिनी बन जाती है, जो सांसारिक प्रेम-सम्बन्धों में लौटकर आने की उत्कट इच्छा के बावजूद अपनी अन्तर्आत्मा की बेड़ियाँ नहीं त्याग पाती और सोचती रह जाती है—क्या वह जाए? पर कहाँ?
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