Barah Baje Raat Ke
Author:
Dominique LapierrePublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 399.2
₹
499
Available
स्वाधीनता-आन्दोलन की चरम परिणति थी आज़ादी लेकिन उससे जुड़ा सदी का कुरूपतम सच—विभाजन। बारह बजे रात के उसी का वृत्तान्त है। यह बड़ी–बड़ी परिघटनाओं वाला इतिहास नहीं बल्कि छोटी-छोटी घटनाओं, मामूली विवरणों, हज़ारों दस्तावेजों और साक्षात्कारों से सजा सूक्ष्म इतिहास है।
हालाँकि लैरी कॉलिन्स और डोमीनिक लापियर दोनों विदेशी लेखक हैं, फिर भी जिस आत्मीयता और निष्पक्षता से उन्होंने विभाजन के गोपन रहस्यों, षड्यंत्रों, साम्प्रदायिक नंगई और ओछेपन को उजागर किया है, उसकी चतुर्दिक सराहना हुई है। दिलचस्प है कि इसमें कहीं भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद का पक्ष नहीं लिया गया है।
विरले ही कोई ग़ैर-साहित्यिक कृति क्लासिक बनती है लेकिन सच्चाई, पठनीयता और निष्पक्षता की बदौलत यह क्लासिक बन गई है। भारतीय उपमहाद्वीप की कई पीढ़ियाँ इसे पढ़ेंगी।
ISBN: 9788171198580
Pages: 399
Avg Reading Time: 13 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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रचना अच्छी, कहीं-कहीं बहुत अच्छी, अच्छी के अतिरिक्त सशक्त लगी। न यह स्थानाबद्ध है और न समयाबद्ध...यह रचना की विशेषता है। जिन पात्रों और घटनाओं को लेखक ने लिया है, पात्रों के जो कार्यकलाप हैं, उसके पीछे की मार्मिक कारण-जगत की खोज लेखक को निरंतर रही है। अपने को औरों में खोजने की वृत्ति...जो ‘लाल पीली जमीन’ की औपन्यासिक दृष्टि है...वह मुझे विश्वसनीय प्रतीत होती है।
–जैनेन्द्र कुमार
पढ़ने में रुचिकर और सिर्फ पाठक की दृष्टि से कहूँ तो यह एक सफल, सशक्त और एक स्थायी प्रभाव छोड़नेवाला उपन्यास है। इसके कई चरित्र और घटनाएँ मुझे याद हैं और उनकी याद रहेगी। आंचलिकता केवल भाषिक परिवेश तक सीमित है। उपन्यास की भाषा ने मुझे बहुत आकृष्ट किया। इस उपन्यास ने
बहुत-से ऐसे शब्द हिन्दी को दिए हैं जो ज्यादा आसानी से आज की साधु हिन्दी ग्रहण कर सकती है। भाषा की दृष्टि से इस उपन्यास की यह महत्त्वपूर्ण देन रही।
–अज्ञेय
बुंदेलखंड का जन्म से मरण तक कोई ऐसा पहलू नहीं है जो इस उपन्यास में न आया हो और सो भी ‘फर्स्ट हैंड’। इस उपन्यास के कई गुण हैं मगर सबसे बड़ा गुण है, गोविन्द मिश्र के बयान का अन्दाज जो बातों को शुरू से अन्त तक कहानी बनाए रखता है। यह पुस्तक हमारे उपन्यास साहित्य में एक नक्षत्र की तरह चमकती रहेगी।
–भवानी प्रसाद मिश्र
उपन्यास की घटनाएँ बहुत सजीव हैं। कोई पात्र ‘स्टॉक’ नहीं जान पड़ता, बराबर एक साफ, सुडौल, विशिष्ट, महीन से महीन रेखाओं से उकेरा हुआ व्यक्ति सामने आता है।
–निर्मल वर्मा
Chiwar
- Author Name:
Rangeya Raghav
- Book Type:

-
Description:
उपन्यासकार रांगेय राघव ने ‘सीधा सादा रास्ता’ और ‘कब तक पुकारूँ’ जैसे समकालीन विषय-वस्तु पर आधारित उपन्यासों के साथ ऐतिहासिक उपन्यासों से भी हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। अपनी मार्क्सवादी विश्व-दृष्टि के आधार पर वे प्रत्येक विषय को अपने ख़ास नज़रिए से चित्रित करते हैं।
‘चीवर’ उनके प्रमुखतम ऐतिहासिक उपन्यासों में से एक है। इसमें उन्होंने हर्षवर्धन काल के पतनशील भारतीय सामन्तवाद को रेखांकित किया है। ब्राह्मण और बौद्ध मतों के परस्पर संघर्ष के साथ-साथ मालव गुप्तों, वर्धनों और मौखरियों के बीच राजनीतिक सत्ता के लिए होनेवाला संघर्ष भी हमें यहाँ दिखाई देता है।
भाषा के स्तर पर यह उपन्यास सिद्ध करता है कि शब्दावली अगर घोर तत्समप्रधान हो तब भी उसमें रस की सर्जना की जा सकती है—बशर्ते लेखनी किसी समर्थ रचनाकार के हाथ में हो। यह इस उपन्यास की प्रवहमान भाषा का ही कमाल है कि इसमें विचरनेवाले पात्र, वह चाहे राज्यश्री हो या हर्षवर्धन या कोई और हमारी स्मृति पर अंकित हो जाते हैं।
Ratinath Ki Chachi
- Author Name:
Nagarjun
- Book Type:

-
Description:
हिन्दी उपन्यास में लोकोन्मुखी रचनाशीलता की जिस परम्परा की शुरुआत प्रेमचन्द ने की थी, उसे पुष्ट करनेवालों में नागार्जुन अग्रणी हैं। ‘रतिनाथ की चाची’ उनका पहला हिन्दी उपन्यास है। सर्वप्रथम इसका प्रकाशन 1948 में हुआ था। इसके बाद उनके कुल बारह उपन्यास आए। सब में दलितों-वंचितों-शोषितों की कथा है। ‘रतिनाथ की चाची’ जैसे चरित्रों से आरम्भ हुई यात्रा में बिसेसरी, उगनी, इन्दिरा, चम्पा, गरीबदास, लक्ष्मणदास, बलचनमा, भोला जैसे चरित्र जुड़ते गए। उनके उपन्यास में नारी-चरित्रों को मिली प्रमुखता ‘रतिनाथ की चाची’ की ही कड़ी है। इसीलिए इस कृति का ऐतिहासिक महत्त्व है।
‘रतिनाथ की चाची’ विधवा है। देवर से प्रेम के चलते गर्भवती हुई तो मिथिला के पिछड़े सामन्ती समाज में हलचल मच गई। गर्भपात के बाद तिल-तिल कर वह मरी। यह उपन्यास हिन्दी का गौरव है।
Agle Janam Mohe Bitiya Na Kijo
- Author Name:
Qurratul Ain Haider
- Book Type:

-
Description:
‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो’ मामूली नाचने-गानेवाली दो बहनों की कहानी है, जो बार-बार मर्दों के छलावों का शिकार होती हैं। फिर भी यह उपन्यास जागीरदार घरानों के आर्थिक ही नहीं, भावात्मक खोखलेपन को भी जिस तरह उभारकर सामने लाता है, उसकी मिसाल उर्दू साहित्य में मिलना कठिन है। एक जागीरदार घराने के आग़ा फ़रहाद बकौल खुद पच्चीस साल के बाद भी रश्के-क़मर को भूल नहीं पाते और हालात का सितम यह कि उसके लिए बन्दोबस्त करते हैं तो कुछेक ग़ज़लों का ताकि ‘अगर तुम वापस आओ और मुशायरों में मदऊ (आमंत्रित) किया जाए तो ये ग़ज़लें तुम्हारे काम आएँगी।’ आख़िर सबकुछ लुटने के बाद रश्के-कमर के पास बचता है तो बस यही कि ‘कुर्तों की तुरपाई फ़ी कुर्ता दस पैसे...’
खोखलापन और दिखावा—जागीरदार तबके की इस त्रासदी को सामने लाने का काम ‘दिलरुबा’ उपन्यास भी करता है। मगर विरोधाभास यह है कि समाज बदल रहा है और यह तबका भी इस बदलाव से अछूता नहीं रह सकता। यहाँ लेखिका ने प्रतीक इस्तेमाल किया है फ़िल्म उद्योग का, जिसके बारे में इस तबके की नौजवान पीढ़ी भी उस विरोध-भावना से मुक्त है जो उनके बुज़ुर्गों में पाई जाती थी।
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