Sarjnatmak Kavyalochan
Publisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 440
₹
550
Available
हिन्दी में सर्जनात्मक काव्यालोचन का प्राय: अभाव रहा है, जिससे आलोचना की सर्जनात्मक मौलिकता अब तक स्थापित-प्रतिष्ठित नहीं हो पाई है। अभाव-रूपी इस अफाट सन्नाटे को भंग करनेवाली डॉ. ‘शीतांशु’ की यह पुस्तक ऐसी पहली सहृदय-संवेद्य, प्रगुणात्मक पुस्तक है, जिसमें लेखक ने 28 हिन्दी कविताओं के काव्यमर्म तथा अन्तर्न्यस्त साभिप्रायता को उद्घाटित-विवेचित किया है।</p>
<p>कविता का विवेचन उसकी सर्जनात्मक सार्थकता का विवेचन होता है। यह सार्थकता भावकीय प्रतिभा से कविता की कलावटी गाँठों को खोलते हुए उसके अर्थ-गह्वर में प्रवेश करने से सम्भव हो पाती है। हिन्दी काव्यालोचन अब तक अपनी लक्ष्मण-रेखा में घिरा रहा है। वह प्रवृत्तिगत, विकासात्मक, सैद्धान्तिक और वादारोपित बहस-मुबाहसे से ग्रस्त-सा है। मार्क्सवादी आलोचना को तो अपनी एकरसता में किसी भी कविता की आन्तर गहराई में उतरने से प्राय: परहेज़ ही रहा है, जिसके कारण कविता का भावन और बोधन केवल सामाजिक यथार्थ की अभिधेयात्मकता तक सीमित-प्रतिबन्धित रह गया है, जबकि उसमें अशेष प्रतीयमान, सर्जनात्मक साभिप्रायता विद्यमान होती है। यहाँ तक कि इसमें मार्क्सवादी सामाजिक यथार्थ की अनेकानेक परतें भी समाविष्ट रहती हैं।</p>
<p>ऐसे में प्रतीयमान आभ्यन्तर को उद्घाटित करनेवाली यह वह प्रतीक्षित आलोचना-कृति है, जो स्थापित करती है कि कविता की सही पहचान-परख उसके तलान्वेषित कथ्यों और अर्थच्छवियों की बहुआयामिता पर निर्भर है।</p>
<p>कहना होगा कि कविताओं की साभिप्राय पुनस्सर्जना के माध्यम से काव्यलोचन के नए क्षितिज का सन्धान और दिशा-निर्देश करनेवाली यह पुस्तक अब तक की निर्धारित लक्ष्मण-रेखा के बाहर जाकर हिन्दी काव्यालोचन को समृद्ध करती है। साथ ही नई आलोचकीय प्रतिभाओं को इस दिशा में सक्रिय होने हेतु आमंत्रित भी करती है। हिन्दी आलोचना में कविता के पाठकों और आलोचकों को संवेदन-समृद्ध करनेवाली एक अत्यन्त उपयोगी एवं पठनीय पुस्तक।
ISBN: 9788180318276
Pages: 272
Avg Reading Time: 9 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
विचार का आईना शृंखला के अन्तर्गत ऐसे साहित्यकारों, चिन्तकों और राजनेताओं के ‘कला साहित्य संस्कृति’ केन्द्रित चिन्तन को प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्होंने भारतीय जनमानस को गहराई से प्रभावित किया। इसके पहले चरण में हम मोहनदास करमचन्द गांधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, राममनोहर लोहिया, रामचन्द्र शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ और गजानन माधव मुक्तिबोध के विचारपरक लेखन से एक ऐसा मुकम्मल संचयन प्रस्तुत कर रहे हैं जो हर लिहाज से संग्रहणीय है।
मोहनदास करमचन्द गांधी ऐसे जननेता हैं जो वैश्विक उपस्थिति रखते हैं। वे भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के ऐसे नायक हैं जिन्होंने इसे जनता का आन्दोलन बना दिया। औपनिवेशिक सत्ता का प्रतिरोध करते हुए उन्होंने सत्य और अहिंसा को अपनी लड़ाई का केन्द्रीय शिल्प बनाया। उन्होंने साध्य ही नहीं साधन की भी पवित्रता की बात की, बेलगाम उपभोग की संस्कृति का विरोध किया। सत्याग्रही के रूप में विरोधी के प्रति भी किसी तरह की कटुता न रखने की बात कही। अपने समय के शीर्ष लेखकों, चिन्तकों और कलाकारों पर गांधी के विचारों का गहरा असर रहा। वे लोगों से निरन्तर संवादरत रहे और अपने विचारों को मजबूती से रखते रहे। हमें उम्मीद है कि उनके कला, साहित्य और संस्कृति सम्बन्धी लेखन को पढ़ते हुए इस कठिन समकाल से जूझने की अनेक राहें रोशन होंगी।
Acharya Mahaveerprasad Dwivedi Ke Shreshth Nibandh
- Author Name:
Acharya Mahaveerprasad Dwivedi
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आज हम जो कुछ भी हैं, उन्हीं के बनाए हुए है। यदि पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी न होते तो बेचारी हिन्दी कोसों पीछे होती, समुन्नति की इस सीमा तक आने का अवसर ही नहीं मिलता। उन्होंने हमारे लिए पथ भी बनाया और पथ-प्रदर्शक का भी काम किया। हमारे लिए उन्होंने वह तपस्या की है जो हिन्दी-साहित्य की दुनिया में बेजोड़ ही कही जाएगी। किसी ने हमारे लिए इतना नहीं किया, जितना उन्होंने। वे हिन्दी के सरल सुन्दर रूप के उन्नायक बने, हिन्दी-साहित्य में विश्व-साहित्य के उत्तमोत्तम उपकरणों का उन्होंने समावेश किया; दर्जनों कवि, लेखक और सम्पादक बनाए। जिसमें कुछ प्रतिभा देखी उसी को अपना लिया और उसके द्वारा मातृभाषा की सेवा कराई। हिन्दी के लिए उन्होंने अपना तन, मन, धन सब कुछ अर्पित कर दिया। हमारी उपस्थित उपलब्धि उन्हीं के त्याग का परिणाम है।
—प्रेमचन्द
अंग्रेज़ी भाषा में जो स्थान डॉ. जॉनसन का है वर्तमान में वही स्थान द्विवेदी जी का है। जिस प्रकार अंग्रेज़ी भाषा का वर्तमान स्वरूप बहुत दूर तक डॉ. जॉनसन का दिया हुआ है, उसी प्रकार हिन्दी का वर्तमान स्वरूप द्विवेदी जी का।
—सेठ गोविन्द दास
द्विवेदी जी ने समाजशास्त्र और इतिहास के बारे में जो कुछ लिखा है, उससे समाज-विज्ञान और इतिहास लेखन के विज्ञान की नवीन रूप-रेखाएँ निश्चित होती हैं। इसी दृष्टिकोण से उन्होंने भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का नवीन मूल्यांकन किया। एक ओर उन्होंने इस देश के प्राचीन दर्शन, विज्ञान, साहित्य तथा संस्कृति के अन्य अंगों पर हमें गर्व करना सिखाया, एशिया के सांस्कृतिक मानचित्र में भारत के गौरवपूर्ण स्थान पर ध्यान केन्द्रित किया, दूसरी ओर उन्होंने सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक रूढ़ियों का तीव्र खंडन किया और उस विवेक परम्परा का उल्लेख सहानुभूतिपूर्वक किया जिसका सम्बन्ध चार्वाक और बृहस्पति से जोड़ा जाता है। अध्यात्मवादी मान्यताओं, धर्मशास्त्र की स्थापनाओं को उन्होंने नई विवेक दृष्टि से परखना सिखाया।
—रामविलास शर्मा
उल्लेखनीय है कि महावीरप्रसाद द्विवेदी की 'सरस्वती' ज्ञान की पत्रिका कही गई है और उनका गद्य हिन्दी साहित्य का ज्ञानकांड। इस प्रकार, भारत का उन्नीसवीं शताब्दी का नवजागरण यूरोप के 'एनलाइटेनमेंट' अथवा 'ज्ञानोदय' की चेतना के अधिक निटक प्रतीत होता है और पन्द्रहवीं शताब्दी का नवजागरण 'रेनेसां' के तुल्य।
—नामवर सिंह
Agyey Hone Ka Arth : Drishti Ka Vivek
- Author Name:
Sachchidananda Hirananda Vatsyayan 'Ajneya'
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- Description: यह किताब अज्ञेय के बहुआयामी सर्जक व्यक्तित्व के साथ कई पीढ़ियों का संवाद है। अज्ञेय हमारे देश की एक ऐसी सांस्कृतिक शख्सियत थे जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व में भारतीयता के अनेक मायने, अन्तर्विरोध और अन्तर्दृष्टियां निहित हैं। अज्ञेय साहित्य की अलग-अलग 'विधाओं की प्रकृति में अन्तर की गहरी समझ रखते थे। इस पुस्तक में संग्रह किये गये तमाम लेखों में अज्ञेय की रचनाशीलता के विविध आयामों के साथ साक्षात्कार न केवल उनके साहित्य के विशेषज्ञों, बल्कि तमाम युवतर लेखकों द्वारा भी किया गया है। अज्ञेय व्यक्तित्व की अनन्यता, अद्वितीयता, मौलिकता को कितना भी महत्त्व क्यों न देते रहे हों, उनका 'व्यक्तित्ववाद' भी प्रबुद्ध बुर्जुवा व्यक्तिवाद था जिसमें लोकतंत्र, आधुनिकता, धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकार के प्रति प्रतिबद्धता निहित थी। अज्ञेय के काव्य में सतत निजता की सुरक्षा और अहं से निजात पाने का द्वन्द्व चलता रहता है। अज्ञेय उत्तरोत्तर इतिहास से ज़्यादा सनातनता को महत्त्व देते गए। उन्हें एक मूल, सनातन मनुष्य की तलाश थी, अपने भीतर भी और बाहर भी, जो इतिहास (जैसा कि उसे समझा जाता है) के बाहर ही संभव थी। मुक्ति की तलाश में वे अहं को समाज में घुलाने की राह नहीं अपनाते बल्कि अहं से निष्कृति के लिए वे क्रमशः प्रेम, प्रकृति और तथागत (जापानी बौद्ध चिन्तन की रहस्वादी जेन शाखा का प्रत्यय) तथा गैर-धार्मिक आध्यात्म की दूसरी चिन्तन-पद्धतियों की ओर अग्रसर होते दिखाई देते हैं। मुक्ति उनके लिए सत्य की ही तरह वैयक्तिक है जो उन्हें मौन की साधना, सन्नाटे का छन्द बन जाने की ओर ले जाती है। उनसे वाद-विवाद-संवाद का रिश्ता हर पीढ़ी के साहित्यानुरागी का बना रहेगा।
Vichar Ka Dar
- Author Name:
Krishna Kumar
- Book Type:

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हिन्दी गद्य का स्वरूप साठ के दशक में बदलना शुरू हो चुका था। सत्तर के दशक में यह बदलाव कई विधाओं में प्रकट हुआ। लोकतांत्रिक चेतना के फैलाव से पैदा हुए तनावों के अलावा शिक्षा और संचार के आधुनिक माध्यमों का विस्तार गद्य को जिज्ञासा और समझ की नई ज़मीनें तोड़ने के लिए तैयार कर रहा था। इस विकास को कुंठित करनेवाली ताक़तें—अंग्रेज़ी की चौधराई, राज्याश्रित हिन्दी की राजनीति और उत्तर के समाज में फैली सामन्ती प्रवृत्तियाँ भी—पोषण पा रही थीं; विचार का डर हमें इन ताक़तों को समझने में मदद दे सकता है।
इस पुस्तक में संकलित पद्य पिछले दो दशकों में प्रकाशित कृष्ण कुमार की वैचारिक रचनाशीलता की बानगी तो देता ही है, इस समूचे दौर की गतिशील प्रवृत्तियों का बिम्ब भी प्रस्तुत करता है। विषयों की दृष्टि से ये लेख, निबन्ध और संस्मरण हिन्दी समाज के सरोकारों का पैमाना कहे जा सकते हैं। अर्थ और राजनीति से लेकर साहित्य, संचार और मनोरंजन के तेज़ी से बदलते हुए ढाँचों के बीच तकनीक, भाषा, फ़िल्म-संगीत, स्त्री, साम्प्रदायिक हिंसा और पत्रकारिता जैसे सन्दर्भों की जाँच इस कृति को एक नई तरह का, बहुत फैला हुआ पाठक समुदाय देती है।
Anuvad Vigyan Ki Bhumika
- Author Name:
Krishan Kumar Goswami
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अनुवाद आधुनिक युग में एक सामाजिक आवश्यकता बन गया है। भूमंडलीकरण से समूचा संसार ‘विश्वग्राम’ के रूप में उभरकर आया है और इसी कारण विभिन्न भाषा-भाषी समुदायों तथा ज्ञानक्षेत्रों में अनुवाद की महत्ता और सार्थकता में वृद्धि हुई है। इधर भाषाविज्ञान और व्यतिरेकी विश्लेषण के परिप्रेक्ष्य में हो रहे अनुवाद चिन्तन से अनुवाद सिद्धान्त अपेक्षाकृत नए ज्ञानक्षेत्र के रूप में उभरा है तथा इसके कलात्मक स्वरूप के साथ-साथ वैज्ञानिक स्वरूप को भी स्पष्ट करने का प्रयास हो रहा है। इसीलिए अनुवाद ने एक बहुविधात्मक और अपेक्षाकृत स्वायत्त विषय के रूप में अपनी पहचान बना ली है। इसी परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत पुस्तक में सैद्धान्तिक चिन्तन करते हुए उसे सामान्य अनुवाद और आशु-अनुवाद की परिधि से बाहर लाकर मशीनी अनुवाद के सोपान तक लाने का प्रयास किया गया है। ‘अनुप्रायोगिक आयाम’ में साहित्य, विज्ञान, जनसंचार, वाणिज्य, विधि आदि विभिन्न ज्ञानक्षेत्रों को दूसरी भाषा में ले आने की इसकी विशिष्टताओं की जानकारी दी गई है। ‘विविध अवधारणाएँ’ आयाम में तुलनात्मक साहित्य, भाषा-शिक्षण, शब्दकोश आदि से अनुवाद के सम्बन्धों के विवेचन का जहाँ प्रयास है, वहाँ अनुसृजन और अनुवाद की अपनी अलग-अलग सत्ता दिखाने की भी कोशिश है।
अनुवाद की महत्ता और प्रासंगिकता तभी सार्थक होगी जब इसकी भारतीय और पाश्चात्य परम्परा का भी सिंहावलोकन किया जाए। इस प्रकार अनुवाद के विभिन्न आयामों और पहलुओं पर यह प्रथम प्रयास है। अतः उच्चस्तरीय अध्ययन तथा गम्भीर अध्येताओं के लिए इसकी सार्थक और उपयोगी भूमिका रहेगी।
Balmukund Gupt Ke Shresh Nibandh
- Author Name:
Satyaprakash Mishra
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