Kahani Ki Arthanveshi Alochana
Publisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 476
₹
595
Available
हिन्दी कथालोचना के लगभग सौ वर्षों के इतिहास में यह आलोचनाकृति एक अन्यतम शिखर उपलब्धि है। यह सुपरिचित कहानियों की दुनिया के अब तक कराए गए प्रत्यक्ष से सर्वथा विलग उसकी अन्दरूनी छिपी दुनिया को पहली बार ‘रिवील’ करती है।</p>
<p>इस कृति से कहानी की आलोचना की एक समीचीन नयी सरणि आविष्कृत और प्रतिष्ठित हुई है।</p>
<p>इस पुस्तक में पहली बार ‘कफन’ में आधुनिकता बनाम उत्तर-आधुनिकता, कर्म-संस्कृति बनाम उपभोक्ता-संस्कृति, ‘पूस की रात’ में प्रकृति बनाम संस्कृति और ‘वर्ग-चेतना’, की विमुखता बनाम सजगता, ‘मंत्र-2’ में बाहरी बनाम आन्तरिक सर्प, ‘ईदगाह’ में मूर्त बनाम अमूर्त ईदगाह, ‘वापसी’ में कालपरक बनाम स्थलपरक, विधेयात्मक बनाम निषेधात्मक वापसी, ‘वारेन हेस्टिंग्स का साँड’ में पशु साँड बनाम हेस्टिंग्स रूपी साँड, ‘और अन्त में प्रार्थना’ में हैजा का संक्रमण बनाम भ्रष्टाचार का संक्रमण, ‘रुको इंतज़ार हुसैन’ में इंतजार हुसैन बनाम जवाहरलाल तथा ‘कब तक’ में परिवार से देश तक में यथास्थितीकरण से मुक्ति की छटपटाहट का यहाँ पहली बार सर्जनात्मक उद्घाटन किया गया है।</p>
<p>इन सबको जानने, समझने हेतु सभी पाठकों के लिए यह कृति पठनीय, विचारणीय और संग्रहणीय है।<br><br>
ISBN: 9789390625543
Pages: 174
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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दो खंडों में विभाजित इस पुस्तक के पहले खंड ‘आशा’ में हिन्दी के उत्थान में अन्य भारतीय भाषाओं की भूमिका के साथ अन्य भाषाओं के साहित्य के माध्यम से उन प्रदेशों की भाषा, संस्कृति व इतिहास से परिचय कराया गया है और यह स्थापित किया गया है कि साहित्य का सन्देश एक ही होता है—मानवीय संस्कृति को जाग्रत कर मानव को संवेदना से परिपूर्ण बनाना।
इस खंड में उल्लिखित लेखकों तथा विश्व-शान्ति के सन्दर्भ में भारतीय साहित्य व दर्शन के विवेचन से परिचित कराने के साथ ही राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, तमिल के कवि सुब्रह्मण्य भारती और मलयालम के कवि वल्लत्तोल के काव्य और उनके विचारों से भी अवगत कराया गया है।
दूसरे खंड ‘आस्था’ में विभिन्न भाषाओं—असमिया, बांग्ला, डोगरी, अंग्रेज़ी, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मराठी, मणिपुरी, मलयालम, मैथिली, नेपाली, ओड़िया, पंजाबी, राजस्थानी, संस्कृत, सिन्धी, तमिल व उर्दू के शीर्षस्थ साहित्यकारों से भेंटवार्ताएँ दी गई हैं। इन भेंटवार्ताओं के माध्यम से हमें साहित्यकारों के व्यक्तित्व व कृतित्व से ही परिचय नहीं मिलता, बल्कि उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं तथा तत्कालीन समाज की राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक समस्याओं का भी पता चलता है।
Madhyakaleen Kavita Ka Punarpaath
- Author Name:
Karunashankar Upadhyay
- Book Type:

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Description:
मध्यकालीन साहित्य अपने व्यापक सन्दर्भों और उदात्त मूल्यबोध के कारण निरन्तर प्रासंगिक रहा है। दलितों, वंचितों, पीड़ितों, उपेक्षितों और स्त्रियों समेत जीवमात्र के प्रति गहरी सहानुभूति और संवेदनशीलता के रूप में लोकमंगल की जो भावना इसमें दिखाई पड़ती है, उसने इसको आज और अधिक प्रासंगिक बना दिया है। लेकिन मध्यकालीन साहित्य शास्त्रीय रूढ़ियों, सामाजिक वर्जनाओं, धार्मिक संकीर्णताओं आदि के विरुद्ध लोकचेतना के उन्मेष से उपजे इस साहित्य की अर्थवत्ता को वर्तमान सन्दर्भों में समझने-समझाने के लिए इस पर नए सिरे से दृष्टि डालना आवश्यक है। यह पुस्तक यही काम करती है।
पाठ केन्द्रित आलोचना पर ज़ोर देते हुए यह पुस्तक मध्यकालीन साहित्य को समाज, वस्तु, घटना, विचार, परिवर्तन, अन्तर्वृत्तियों और व्यक्तियों की सापेक्षता में विश्लेषित-मूल्यांकित करती है, ताकि उसका वस्तुनिष्ठ और मानक पाठ तैयार किया जा सके। यह सप्रमाण दिखलाती है कि सतर्क पाठ-विश्लेषण न केवल इस साहित्य के बहुस्तरीय और गहन अर्थ को उद्घाटित कर सकता है, बल्कि युग सापेक्ष दृष्टिबोध भी प्रस्तुत कर सकता है।
इसमें भक्ति साहित्य और रीति साहित्य, दोनों पर विचार किया गया है। मध्यकालीन साहित्य के कवियों की निजी अनुभूति के ‘स्व’ से ‘पर’ और ‘पर’ से ‘सर्व’ में रूपान्तरण और लोकसत्ता से एकाकार होकर सार्वभौम होने की प्रक्रिया का उद्घाटन इस पुस्तक की उल्लेखनीय विशेषता है।
निश्चय ही, यह पुस्तक मध्यकालीन साहित्य के अध्येताओं के साथ-साथ सामान्य पाठकों के लिए भी पठनीय और संग्रहणीय सिद्ध होगी।
Vichar Ka Aina : Kala Sahitya Sanskriti : Jaishankar Prasad
- Author Name:
Jaishankar Prasad
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Description:
विचार का आईना शृंखला के अन्तर्गत ऐसे साहित्यकारों, चिन्तकों और राजनेताओं के ‘कला साहित्य संस्कृति’ केन्द्रित चिन्तन को प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्होंने भारतीय जनमानस को गहराई से प्रभावित किया। इसके पहले चरण में हम मोहनदास करमचन्द गांधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, राममनोहर लोहिया, रामचन्द्र शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ और गजानन माधव मुक्तिबोध के विचारपरक लेखन से एक ऐसा मुकम्मल संचयन प्रस्तुत कर रहे हैं जो हर लिहाज से संग्रहणीय है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य के शुरुआती निर्माताओं में से एक जयशंकर प्रसाद भारतीय संस्कृति के मूल्यवान तत्वों को साहित्य में पुनर्स्थापित करने वाले लेखक-चिन्तक हैं। उन्होंने दिखाया कि साहित्य इस बात के लिए पूरी तरह से तैयार है कि वह दर्शन की गहराइयों को अपने भीतर जगह दे। उन्होंने इतिहास के नायकों को अपना साहित्य नायक बनाया और परम्परा से निरन्तर संवादरत रहे लेकिन वे अतीतजीवी नहीं थे। आज जब राजनीतिक पूर्वाग्रहों से लैस होकर इतिहास का उत्खनन किया जा रहा है ऐसे में हमें उम्मीद है कि उनके प्रतिनिधि निबन्धों की यह किताब उस धुन्ध को साफ करने में हमारी मदद करेगी जिसकी गिरफ्त में इतिहास और वर्तमान दोनों ही डूबे हुए हैं।
Nirmal Verma Aur Uttar Upniveshvad
- Author Name:
Sudhish Pachauri
- Book Type:

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Description:
निर्मल इस उत्तर-औपनिवेशिक दौर की ऐसी आहत भारतीय आत्मा है जो अपने आत्म-विभाजन से मुक्ति के लिए पचास साल से छटपटा रही है। निर्मल की कथा यूरोपीय आधुनिकता में खोए भारतीय मनुष्य की मुक्ति की दुर्धर्षता की गाथा है। उनके निबन्ध आधुनिकता से एक सुदीर्घ और अटूट जिरह है, उनकी कथाएँ उस जिरह की दृष्टान्त या कहें कि पलटकर उनके निबन्ध उनके वृत्तान्तों के ‘पूरक’ विमर्श हैं। उनकी हिन्दू तितिक्षा से इस सबका बड़ा गहरा सम्बन्ध है। अपने लेखन में उन्होंने तर्क और अनुभव के बीच ही नहीं, भारतीय विमर्श के बीच भी एक सुसंगति पैदा करके यूरोपीय विभक्ति से निजात पाने का रास्ता भी सुझाया है। सरलीकृत प्रगतिशील आधुनिकता के वे सर्वाधिक कठिन प्रतिकार हैं, पश्चिम की आधुनिक योजनाओं के अचूक दुश्मन हैं और अपने स्वत्व की पहचान के लिए मँडराते एक भारतीय मन के आर्तनाद हैं।
वे भारत के नीत्शे हैं : जितने ख़तरनाक उतने ही मनोहर और अनिवार। नीत्शे को महामानव का इन्तजार था, निर्मल को हर महामानव पर सन्देह है : वे उत्तर-उपनिवेशी भारत के रूपक हैं : अपने लुप्त ‘स्वत्व’, विदीर्णित ‘स्मृति’ और विकृत ‘प्रकृत स्वप्न’ की रक्षा करते। वे अपूर्ण और विभक्त कर दिए गए मनुष्य में पूर्णता का अहसास भरने का कलात्मक उपाय हैं। वे ‘पश्चिम के भारत’ हैं और ‘भारत के पश्चिम’ हैं। एक ‘पूरब’ उन्हें पश्चिम को टोकने-रोकने और ललकारने की ताक़त देता है। एक ‘पश्चिम’ उनके पूरब को समस्याग्रस्त करता है। यह विकट उत्तर-उपनिवेशी विमर्श है जो चालू पश्चिमी विकासमूलक हिन्दी समीक्षा और विमर्श के लिए आफ़त करता है।
यूरोप के द्वारा दमित उनका हाशियाकृत हिन्दू-हाशिया एक नए उत्तर-औपनिवेशिक पाठ की माँग करता है। वे यूरोपीय आधुनिकता की जगह अपने क़िस्म की आधुनिकता की तलाश में एक नई सभ्यता-समीक्षा के सूत्र देते हैं। पश्चिम की समग्रता के बरक्स वे एक पूरब और उसमें भी भारत की पूर्वजता और भारतीयता को समग्र बनाना चाहते हैं। एडवर्ड सईद और तमाम उत्तर-उपनिवेशी विमर्शकार निर्मल में उत्तर-आधुनिकता के सीमान्त पर ज़िद भरे ‘स्थानीयतावादी अभिमान’ और ‘मूलवादी’ को ख़ूब पढ़ सकते हैं। यही उनकी समस्या नज़र आ सकती है।
Hindi Samiksha Aur Acharya Shukla
- Author Name:
Namvar Singh
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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को निर्विवाद रूप से हिन्दी आलोचना का शिखर-व्यक्तित्व स्वीकार किया जाता है। जब हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं को कसौटी पर कसने के प्रतिमान निर्मित हो रहे थे, तब आचार्य शुक्ल ने अपनी अद्भुत योग्यता से उन्हें एक सार्थक स्वरूप प्रदान किया। इसका महत्त्व ऐसे भी समझा जा सकता है कि आज तक रचनाओं, प्रवृत्तियों व रचनाकारों को लेकर होनेवाली बहुतेरी बहसों की पृष्ठभूमि आचार्य शुक्ल द्वारा रेखांकित सूत्रों से ही आकार लेती है।
‘हिन्दी समीक्षा और आचार्य शुक्ल’ पुस्तक में डॉ. नामवर सिंह द्वारा समय-समय पर लिखे गए लेख संकलित हैं। पुस्तक के सम्पादक ज्ञानेन्द्र कुमार सन्तोष के अनुसार, ‘निःसन्देह रूप से कहा जा सकता है कि आचार्य शुक्ल की वास्तविक प्रासंगिकता और उनकी सीमाओं का सम्यक् सन्तुलित और चरम बौद्धिक आलोचनात्मक अध्ययन पहली बार नामवर सिह ने ही किया है।’
एक तरह से यह पुस्तक हिन्दी के दो दिग्गज आलोचकों का ‘समेकित विमर्श’ भी है। संकलित लेख ऐतिहासिक महत्त्व के तो हैं ही, इनमें निहित दृष्टि परम्परा व समकालीनता के विश्लेषण में भी सहायक है। सम्पादक ज्ञानेन्द्र कुमार सन्तोष की भूमिका इन लेखों की प्रासंगिकता रेखांकित करते हुए नामवर सिंह के आलोचना-कर्म का मर्म भी उद्घाटित करती है।
Kabeer (Radha)
- Author Name:
Vijendra Snatak
- Book Type:

- Description: Awating description for this book
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