Sahitya Ka Samajshastra
Author:
Bachchan SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 280
₹
350
Available
राजनीतिक जगत की तरह आलोचना भी दो शिविरों में बँट गई है—समाजशास्त्र का शिविर और भाषाशास्त्र का शिविर। दोनों शिविर समय-समय पर एक दूसरे पर हमला करते हैं। आलोचना का संकट यह है कि क्या उसे हर हालत में शिविरबद्ध होकर ही रहना पड़ेगा? सही बात तो यह है कि हम न जीवन में विज्ञान और टेक्नोलॉजी से मुक्त हो सकते हैं और न साहित्य से। यदि साहित्य को अपनी रक्षा करनी है तो उसे विज्ञान और टेक्नोलॉजी से सहायता लेनी पड़ेगी। अत: साहित्य के रूपवादी दृष्टिकोण की एकतरफ़ा भर्त्सना नहीं की जा सकती। उसमें ऐसे तत्त्व मौजूद हैं जिनसे समाजशास्रीय आलोचना सम्पुष्ट और मुकम्मल होगी।
ISBN: 9788180312656
Pages: 100
Avg Reading Time: 3 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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द्विवेदी-युग के उत्तरार्ध में आचार्य शुक्ल के रूप में पहली बार हिन्दी-आलोचना ने पारम्परिक भारतीय काव्य-चिन्तन की अन्तरवर्ती प्राणधारा और आधुनिक यूरोप के विज्ञानालोकित कला-चिन्तन के उल्लसित प्रवाह की संश्लिस्ट शक्ति का आधार लेकर अपने मौलिक व्यक्तित्व का निर्माण किया, उनका मूल स्वर रीति-विरोधी और लोक-मंगल की साधना के गत्यात्मक सौन्दर्य का पोषक है। छायावादकालीन सौन्दर्यबोध का प्रेरक तत्त्व स्वातंत्र्य चेतना है जो देश की अभिनव आकांक्षा और नवीन सांस्कृतिक मूल्यों के स्वीकार का द्योतक है रचना के कलावादी रुझान का नहीं। छायावादोत्तर प्रगतिशील आलोचना का प्रेरक-तत्त्व सामाजिक न्याय की प्रतिष्ठा की सात्त्विक आकांक्षा है। वैचारिक ग्रहजन्य सीमाओं के बावजूद हिन्दी-साहित्य में उसकी ऐतिहासिक भूमिका का महत्त्व सर्वमान्य है।
प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. बच्चन सिंह तथा डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी जैसे महान समीक्षकों पर एक गवेषणात्मक दृष्टि डाली गई है।
Upanyas Ki Sanrachana
- Author Name:
Gopal Ray
- Book Type:

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उपन्यास एक अमूर्त रचना-वस्तु है। ‘वस्तु’ है तो उसका ‘रूप’ भी होगा ही। ‘रूप’ का एक पक्ष वह है, जिसे उपन्यासकार निर्मित करता है। उसका दूसरा पक्ष वह है जिसे पाठक अपनी चेतना में निर्मित करता है। पर उपन्यास का ‘रूप’ चाहे जितना भी अमूर्त और ‘पाठ-सापेक्ष’ हो, वह होता जरूर है। उसकी संरचना को समझना आलोचक के लिए चुनौती है, पर वह सर्वथा पकड़ के बाहर है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। अँगरेजी और यूरोप की अन्य भाषाओं में इसके प्रयास हुए हैं और इस विषय पर अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। पर उन आलोचकों ने स्वभावतः अपनी भाषाओं के उपन्यासों को ही अपने विवेचन का आधार बनाया है। यहाँ तक कि भारतीय साहित्य में उपलब्ध कथा-रूपों की ओर भी उनकी दृष्टि नहीं गई है। हिन्दी आलोचना भी उपन्यास की ओर विगत कुछ दशकों से ही उन्मुख हुई है। पर आलोचकों की दृष्टि जितनी उसके कथ्य पर रही है, उतनी उसकी संरचना पर नहीं। उपन्यास किस प्रकार ‘बनता’ है, पाठक की चेतना में वह कैसे ‘रूप’ ग्रहण करता है, इस किताब में इसी की तलाश लेखक का उद्देश्य है।
आरम्भिक दो परिच्छेदों में औपन्यासिक संरचना का सैद्धान्तिक विवेचन करने के बाद परवर्ती आठ परिच्छेदों में लगभग दो दर्जन हिन्दी उपन्यासों की संरचना का सविस्तार विवेचन किया गया है। विवेच्य रचनाओं के चयन में ध्यान इस बात का रखा गया है कि वे किसी संरचनाविशेष का प्रतिनिधित्व करती हों।
हिन्दी में उपन्यास की संरचना के विवेचन का यह पहला गम्भीर प्रयास है। पर यह कितना सफल है, इसका निर्णय तो पाठक ही करेंगे।
Kedarnath Singh Ki Kavita
- Author Name:
A. Arvindakshan
- Book Type:

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जीवनानुभव का विस्तार केदार जी की कविताओं की खासियत है। उनकी कविता हमारे भीतर उत्खनन का काम करती है और अपनी एक दुनिया भी सृजित करती है। उस दुनिया में हमारा प्रवेश तो आसानी से हो जाता है क्योंकि वह हमारी चिरपरिचित दुनिया है। प्रवेश के बाद की स्थिति सरल नहीं है। उनकी कविता के भीतर कई प्रतिध्वनियाँ होती हैं; ध्वनियों और प्रतिध्वनियों का वह एक जटिल संकुल है। उनमें एक समय नहीं बल्कि समय की बहुलता है।
साधारण अर्थ में यह सही है कि उनकी कविताएँ राजनीति के रंग-रूपों के अनुसरण में नहीं लिखी गई हैं। सम्भवतः यह उनका मकसद भी नहीं था। मनुष्य का जीवन, हमारा समय, समय की जटिलताएँ, हमारा स्वत्व, हमारा लोकजीवन, आदि-आदि उनकी कविता में विषय के रूप में आते हैं जिनमें प्रकटतः राजनीति का प्रवेश नहीं है। लेकिन इन्हीं प्रसंगों के अपने राजनीतिक आशय भी हैं। इस अर्थ में केदार जी की कविताएँ सूक्ष्मतम स्तर पर राजनीतिक हैं।
उनकी कविताओं का संस्कृति-पाठ ही दरअसल अनिवार्य रूप से होना है। समय-समय पर उनकी कविताएँ अपसंस्कृति के रूपकों को अवतरित करती रही हैं। अपसंस्कृति के रूपकों का यह अवतरण अपने-आप में कविता में प्रतिरोध का एक सुदृढ़ अन्तस्थल सृजित करता है। उनके यहाँ प्रतिरोध की मुखरता मुख्य नहीं है बल्कि प्रतिरोध की अन्तर्धाराएँ मुख्य हैं। यह पुस्तक उनकी कविताओं के ऐसे ही सूक्ष्म तन्तुओं को पकड़ने के प्रयास का फल है।
Maithilishran
- Author Name:
Nandkishore Naval
- Book Type:

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मैथिलीशरण गुप्त खड़ीबोली के पहले महान कवि हैं। टी.एस. इलियट के अनुसार महान कवि कविता में नई रुचि का निर्माण करता है, उसके अनुरूप काव्य-सृजन करता है और उसमें श्रेष्ठता का प्रतिमान स्थापित करता है। गुप्त जी इन तीनों ही कसौटियों पर खरे उतरनेवाले कवि हैं। खड़ीबोली की कविता में उनके महत्त्व को ऐतिहासिक समझा जाता है, लेकिन साहित्य में ऐतिहासिक और साहित्यिक महत्त्व दो नहीं होते। वे ऐसे कवि हैं, जिन्होंने हिन्दी कविता में सभी आधुनिक मूल्यों की प्रस्तावना की है और अपने कंठ से सम्पूर्ण युग को वाणी दी है। ‘जयद्रथ-वध’, ‘पंचवटी’, ‘साकेत’, ‘यशोधरा’ और ‘भारत-भारती’ उनकी अविस्मरणीय कृतियाँ हैं।
त्रिलोचन ने लिखा है कि गुप्त जी के रचनात्मक प्रयोगों का पूरी तरह आकलन करके काम होना बाक़ी है। हिन्दी के सुपरिचित आलोचक डॉ. नंदकिशोर नवल ने इस चुनौती को स्वीकार कर प्रस्तुत पुस्तक में उनके युग सहित उनका सामान्य परिचय देते हुए उनकी सबसे सुन्दर ग्यारह कृतियों के रचनात्मक प्रयोगों का पूर्णता से आकलन किया है और इस क्रम में उन्होंने न केवल उनके सौन्दर्य को उन्मीलित किया है, बल्कि कवि के शब्द-संसार को विस्तार भी दिया है।
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