Yuddha Mein Ayodhya
Author:
Hemant SharmaPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 720
₹
900
Available
Awating description for this book
ISBN: 9789352667536
Pages: 480
Avg Reading Time: 16 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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पन्द्रह सर्गों के पाँच सर्ग-त्रिकोणों की संरचना वाली इस प्रबन्ध-गाथा में भारतीय और पाश्चात्य महाकाव्य-लक्षण अनुपस्थित हैं। यह लिरिकल मुक्तकों के कदम्बवाला एक ‘गीत-कामायनीयम्’ है। इसकी जीवनी का भी ‘कामना’ तथा ‘एक घूँट’ द्वारा विकास ढूँढ़ते हुए, तथा पांडुलिपि एवं प्रकाशित प्रति की तुलना और पाठालोचन करते हुए, प्रसाद की गूढ़ सृजन-प्रक्रिया भी उद्घाटित की गई है।
पाया गया कि तीन फंतासियों (नर्तित नटेश, त्रिदिक् विश्व, आनन्द लोक) द्वारा स्वप्न में किस तरह छलाँग लगाई गई है; कैसे देवताओं के स्वर्ग, मनुष्यों के नगर तथा प्रकृति-सुन्दरी की पूर्णकला के वस्तुपरक लोक वाले मिथक का सौन्दर्यदर्शन हुआ है; तथा कौन-से द्विपर्ण-विरोधों एवं युग्म-द्वन्द्वों (प्रलय-ज्वाला, कण-क्षण, कर्म-काम, संघर्ष-समाधि, अधिनायक-जनता, इच्छा-ज्ञान, पुरुष-प्रकृति) का काव्यदर्शन तथा दार्शनिक काव्य में रूपान्तरण किया गया है।
समानान्तरता में (तब) खोजे गए मुअनजोदड़ो को सारस्वत नगर में; स्वप्न-संघर्ष सर्गों को राष्ट्रीय-मुक्ति संघर्ष और स्वार्थ-केन्द्रित भीषण व्यक्तित्ववाद की आलोचना में; अन्ततः शैव त्रिपुर को आले-दुआले सामन्तीय-उपनिवेशवादी-पूँजीवादी दुर्व्यवस्थाओं में भी दूरागत प्रक्षेपण होते परिलक्षित पाया गया है। इसलिए अगर प्रसाद लम्बी आयु पाते तो वे ‘ध्रुवस्वामिनी’ सिंड्रोम से प्रतिश्रुत होकर यथार्थोन्मुखी होते चले जाते।
निष्कर्षतः ‘कामायनी’ छायावाद का सर्वोत्तम हीरक किरीट है जो भव्यवृत्तान्तों वाला एक लिरिकल प्रबन्ध-कदम्ब भी है।
Hindi Aalochana ka Aalochanatmak Itihas
- Author Name:
Amarnath
- Book Type:

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Description:
‘हिन्दी आलोचना का आलोचनात्मक इतिहास’ हिन्दी आलोचना का इतिहास है, लेकिन ‘आलोचनात्मक’। इसमें लेखक ने प्रचलित आलोचना की कुछ ऐसी विसंगतियों को भी रेखांकित किया है, जिनकी तरफ आमतौर पर न रचनाकारों का ध्यान जाता है, न आलोचकों का।
उदाहरण के लिए हिन्दी साहित्य के आलोचना-वृत्त से उर्दू साहित्य का बाहर रह जाना; जिसके चलते उर्दू अलग होते-होते सिर्फ एक धर्म से जुड़ी भाषा हो गई और उसका अत्यन्त समृद्ध साहित्य हिन्दुस्तानी मानस के बृहत काव्यबोध से अलग हो गया। कहने की जरूरत नहीं कि आज इसके सामाजिक और राजनीतिक दुष्परिणाम हमारे सामने एक बड़े खतरे की शक्ल में खड़े हैं। सुबुद्ध लेखक ने इस पूरी प्रक्रिया के ऐतिहासिक पक्ष का विवेचन करते हुए यहाँ उर्दू-साहित्य आलोचना को भी अपने इतिहास में जगह दी है।
आधुनिक गद्य साहित्य के साथ ही आलोचना का जन्म हुआ, इस धारणा को चुनौती देते हुए वे यहाँ संस्कृत साहित्य की व्यावहारिक आलोचना को भी आलोचना की सुदीर्घ परम्परा में शामिल करते हैं, और फिर सोपान-दर-सोपान आज तक आते हैं जहाँ मीडिया-समीक्षा भी आलोचना के एक स्वतंत्र आयाम के रूप में पर्याप्त विकसित हो चुकी है।
कुल इक्कीस सोपानों में विभाजित इस आलोचना-इतिहास में लेखक ने अत्यन्त तार्किक ढंग से विधाओं, प्रवृत्तियों, विचारधाराओं, शैलियों आदि के आधार पर बाँटते हुए हिन्दी आलोचना का एक सम्पूर्ण अध्ययन सम्भव किया है। अपने प्रारूप में यह पुस्तक एक सन्दर्भ ग्रंथ भी है और आलोचना को एक नए परिप्रेक्ष्य में देखने का वैचारिक आह्वान भी।
Ve Pandrah Din
- Author Name:
Prashant Pole
- Book Type:

- Description: उन पंद्रह दिनों के प्रत्येक चरित्र का, प्रत्येक पात्र का भविष्य भिन्न था! उन पंद्रह दिनों ने हमें बहुत कुछ सिखाया। माउंटबेटन के कहने पर स्वतंत्र भारत में यूनियन जैक फहराने के लिए तैयार नेहरू हमने देखे। लाहौर अगर मर रहा है, तो आप भी उसके साथ मौत का सामना करो'' ऐसा जब गांधीजी लाहौर में कह रहे थे, तब राजा दाहिर की प्रेरणा जगाकर, हिम्मत के साथ, संगठित होकर जीने का सूत्र' उनसे मात्र 800 मील की दूरी पर, उसी दिन, उसी समय, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्रीगुरुजी' हैदराबाद (सिंध) में बता रहे थे। कांग्रेस अध्यक्ष की पत्नी सुचेता कृपलानी कराची में सिंधी महिलाओं को बता रही थी कि ‘आपके मैकअप के कारण, लो कट ब्लाउज के कारण मुसलिम गुंडे आपको छेड़ते हैं। तब कराची में ही राष्ट्र सेविका समिति की मौसीजी हिंदू महिलाओं को संस्कारित रहकर बलशाली, सामर्थ्यशाली बनने का सूत्र बता रही थीं ! जहाँ कांग्रेस के हिंदू कार्यकर्ता, पंजाब, सिंध छोड़कर हिंदुस्थान भागने में लगे थे और मुसलिम कार्यकर्ता मुसलिम लीग के साथ मिल गए थे, वहीं संघ के स्वयंसेवक डटकर, जान की बाजी लगाकर, हिंदू सिखों की रक्षा कर रहे थे। उन्हें सुरक्षित हिंदुस्थान में पहुँचाने का प्रयास कर रहे थे। फर्क था, बहुत फर्क था-कार्यशैली में, सोच में, विचारों में सभी में। स्वतंत्रता प्राप्ति 15 अगस्त, 1947 से पहले के पंद्रह दिनों के घटनाक्रम और अनजाने तथ्यों से परिचित करानेवाली पठनीय पुस्तक।
Jayashankar Prasad : Mahanta Ke Aayam
- Author Name:
Karunashankar Upadhyay
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Description:
जयशंकर प्रसाद के रचनात्मक लेखन में भारतीय वाङ्मय की सम्पूर्ण प्रतिभा बोलती है जो भारतीय जन को बड़े स्वप्न देखने और उन्हें सत्य साकार करने के लिए प्रेरित करती है। वे अपने जीवन-दर्शन और जीवन-स्वप्न का प्रमाणीकरण करने वाले कलाकार हैं। उनके विराट एवं बहुआयामी व्यक्तित्व में जो आत्मप्रसार और आत्मपरिष्कार का भाव है वह भारत तथा हिन्दी जाति का समवेत सांस्कृतिक अवचेतन है।
अपने समन्वयात्मक चिन्तन के माध्यम से प्रसाद ने कविता में आत्मज्ञान एवं आन्तरिक संगति के माध्यम से मानव-जीवन में आनन्दवाद की प्राण-प्रतिष्ठा की। उन्होंने जिस कौशल के साथ आत्म-वेदना को विश्व-वेदना में रूपान्तरित किया, वह अपनी संवेदना को सांस्कृतिक धरातल एवं इतिहास-बोध द्वारा सर्जनात्मक सार्थकता प्रदान करने का एक महत्त्वाकांक्षी प्रयास है।
प्रसाद का सम्पूर्ण लेखन साहित्य, संगीत और कला की एकता का उज्ज्वलतम विग्रह है। उनका कृतित्व मानव जाति को सत्य, शिव और सौन्दर्य के समन्वय द्वारा पूर्ण सत्य, उदात्त प्रेम, अनन्त रमणीय सौन्दर्य और अखंड आनन्द तक ले जाता है। वे बड़ी चिन्ता के रचनाकार हैं और उनके चिन्तन के केन्द्र में भारतीय अस्मिता-बोध और विश्व-मनुष्यता का मंगल है। इसके लिए वे भारत-बोध का एक अभिनव प्रतिमान निर्मित करते हैं, साथ ही विश्वजीवन तथा सभ्यता के प्रति अतिशय गहन विमर्श प्रस्तुत करते हैं। इसीलिए उनके साहित्य को सम्पूर्णता में समझना और उसकी सम्यक् व्याख्या करना अपेक्षाकृत कठिन रहा है।
इस ग्रन्थ में विद्वान लेखक ने अन्तर्दृष्टि और विश्व-संदृष्टि के बल पर भारत-बोध को आत्मसात् करके उनके कृतित्व से आन्तरिक संलग्नता स्थापित करते हुए उसके वस्तुनिष्ठ विश्लेषण का गहन प्रयास किया है। इसमें गीता के अठारह अध्यायों की तरह महाकवि जयशंकर प्रसाद की महानता के अठारह प्रतिमान निर्मित किए गए हैं जिनके आधार पर विश्व के महत्तम कलाकारों की रचनात्मकता का विश्लेषण भी सहज संभाव्य है। प्रसाद के जीवन और व्यक्तित्व के अनछुए सन्दर्भों को भी इसमें देखा जा सकता है।
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