Kavita Ke Prasthan
Author:
Sudhir Ranjan SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 400
₹
500
Available
‘कविता के प्रस्थान’ को आधुनिक हिन्दी की कविता की सम्पूर्ण पड़ताल कहा जा सकता है। एक गम्भीर और सजग शोध जिसका उद्देश्य सिर्फ़ इतिहास-क्रम प्रस्तुत करना नहीं, बल्कि कविता के इतिहास के वैचारिक प्रस्थान-बिन्दुओं और पड़ावों को रेखांकित करना भी है। बल्कि वही ज़्यादा है।</p>
<p>आधुनिक हिन्दी के आरम्भिक विकास और उसमें कविता की उपस्थिति को विभिन्न रचनाओं, कृतियों और विचार-सरणियों के सोदाहरण विवेचन से लेकर उसके बाद 'कविता क्या है’ इस पूरी बहस का विस्तृत परिचय देते हुए पुस्तक वर्तमान कविता तक पहुँचती है। हिन्दी कविता के इस बृहत् वृत्तान्त में कविता और उसके साथ-साथ चल रही आलोचना, दोनों का सर्वांग परिचय हमें मिलता है। साथ ही उन तमाम विवादों और प्रयोगों का भी जो हिन्दी काव्येतिहास में कभी दिलचस्प और कभी निर्णायक मोड़ रहे हैं। 'प्रतिमानों की राजनीति’ और 'काव्यशास्त्रीय प्रस्थान-बिन्दु’ शीर्षक आलेख इस लिहाज़ से ख़ास तौर पर पठनीय हैं।</p>
<p>आलोचना को जो चीज़ सबसे ज़्यादा मदद पहुँचाती है, वह रचना ही है, लेखक की इस मूल धारणा के चलते यह आलोचना-पुस्तक अध्येताओं के लिए जितनी उपयोगी होगी, उससे ज़्यादा विचारोत्तेजक होगी। उनका मानना है कि आलोचना को कोई काव्यशास्त्र पहले से प्राप्त नहीं होता, अपना शास्त्र उसे ख़ुद गढ़ना पड़ता है और उसी तरह सदैव रचनारत रहना होता है जैसे अपने वृत्त में कविता ख़ुद रहती है।</p>
<p>व्यवस्थित अध्ययन और सन्दर्भ सामग्री के विपुल प्रयोग के कारण हिन्दी कविता के विद्यार्थियों के लिए यह पुस्तक विशेष रूप में उपादेय साबित होगी।
ISBN: 9788126728282
Pages: 196
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Book Type:

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Description:
पुरुषोत्त्म अग्रवाल इस समय हिन्दी में सोचने-लिखने वाले और विचार को तार्किक स्पष्टता के साथ आगे बढ़ानेवाले चिन्तकों में अग्रणी हैं। देश की राजनीति से लेकर समाज, संस्कृति और साहित्य की दशा-दिशा पर पिछले दशकों में उन्होंने लगातार हस्तक्षेपकारी लेखन किया है।
‘स्कोलेरिस की छाँव में’ पुस्तक में उनका 2005 से 2007 तक का लेखन संकलित है जो समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर पाठकों के सामने आया और विचार-विमर्श का विषय बना। देश में मानवाधिकारों का हालात का प्रश्न हो या पूरी मानवता के लिए भविष्य की वैकल्पिक व्यवस्था का, उपनिवेश और आधुनिकता का सवाल हो या इधर बढ़ रहे बात-बात पर आहत होकर हत्या पर उतारू हो जानेवाले क़िस्म-क़िस्म के समूहों का, यहाँ भी पुरुषोत्तम जी इन तमाम मुद़्दों पर मुखर हैं।
पुस्तक के दो खंड हैं। पहले में उनके अमेरिका यात्रा और वहाँ हुए व्याख्यानादि के दौरान उपजे विचारों और प्रतिक्रियाओं का संकलन है, और दूसरे में समकाल को खँगालती अन्य टिप्पणियाँ और आलेख हैं।
शैतानों और विद्वानों का पेड़ कहे जानेवाले एल्स्टोनिया स्कोलेरिस के बहाने, जो लेखक को इंडिया इंटरनेशनल लाइब्रेरी के सामने खड़ा मिला, उन्होंने ललित चिन्तन का एक अद्भुत नमूना रचा है, जो इस किताब का शीर्षक भी बना।
Vivah Ki Museebaten
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

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Description:
यह पुस्तक राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के चिन्तनपूर्ण, लोकोपयोगी निबन्धों का श्रेष्ठ संकलन है। दिनकर जी के चिन्तन-स्वरूप का विस्मयकारी साक्षात्कार करानेवाले ये निबन्ध पाठक के ज्ञान-क्षितिज का विस्तार भी करते हैं। इन निबन्धों में जहाँ एक ओर विवाह, प्रेम, काम, नैतिकता और शिक्षा जैसे विषयों पर विद्वान कृतिकार का सन्तुलित दृष्टिकोण उद्घाटित होता है, वहीं दूसरी ओर लोकतंत्र, धर्म और विज्ञान तथा मूल्य-ह्रास जैसे ज्वलन्त प्रश्नों पर उनकी प्रगतिशील दृष्टि मार्गदर्शक की भूमिका निभाती है।
भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति-पद पर कार्य करते हुए दिनकर जी ने जो अनुभव किया, उसका लेखा-जोखा प्रस्तुत है ‘शिक्षा : तब और अब’ निबन्ध में इस चेतावनी के साथ कि ‘शिक्षा का स्तर अभी भी बहुत नीचा है। अगर वह और भी नीचे लाया गया तो बेकारों की फ़ौज बढ़ेगी और उनकी फ़ौज भी, जिन्हें कोई भी काम नहीं सौंपा जा सकता।’
इसी तरह ‘पुरानी और नई नैतिकता’, ‘लोकतंत्र : कुछ विचार’, ‘धर्म और विज्ञान’, ‘मूल्य-ह्रास के पच्चीस वर्ष’ निबन्धों में सारगर्भित विचार-सूक्तियाँ ही नहीं, एक प्रबुद्ध विचारक की सामयिक चेतावनी भी है।
ये निबन्ध राष्ट्रकवि दिनकर के व्यक्तित्व को भी समझने में सहायक सिद्ध होते हैं।
समाज में अनन्त काल से प्रेम के प्रति सन्तों, चिन्तकों और शास्त्रकारों का व्यवहार पुलिस का-सा रहा है। और उन्हीं के भय से मनुष्य ने अपने चेहरे पर पवित्रता का नक़ाब लगाना मंज़ूर कर लिया, यद्यपि इस नक़ाब का उसे अभ्यास नहीं था। अथवा यों कहें कि यह नक़ाब जितने अच्छे सूत का है, उतने बारीक और महीन सूत आदमी की भीतरी ज़िन्दगी में नहीं काते जाते।
Stree Lekhan : Swapn Aur Sankalp
- Author Name:
Rohini Agrawal
- Book Type:

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स्त्री-लेखन स्त्री की आकांक्षाओं का दर्पण है। यह स्त्री की मानवीय इयत्ता को पाने और जीने का स्वप्न है; मुक्ति की राहों के अन्वेषण का संघर्ष है; और उन राहों पर अविराम चलने की संकल्पदृढ़ता भी। स्त्री-लेखन स्त्री मानस के तलघर को बिना किसी छेड़छाड़ के सामने रखता है जहाँ व्यवस्था के विरोध में उफनते हुंकारों के साथ व्यवस्था में परित्राण पाने की बेचारगियाँ भी हैं और भेड़ की तरह जिबह होने की यंत्रणा के साथ भेड़िया बनकर दूसरों को लील जाने की कुटिलताएँ भी। इसे मानवीय दुर्बलताओं की नैसर्गिक अभिव्यक्ति कहिए या अन्तर्विरोधों का स्वीकार—स्त्री-लेखन पारम्परिक ‘माइंड सेट’ से लड़ने की कोशिश में परम्परा और ‘माइंड सेट’ दोनों की ताक़त को एक ठोस सामाजिक-मानसिक सच्चाई और चुनौती के रूप में सतह पर लाता है। लेकिन क्या वास्तव में स्त्री-लेखन इतनी निःसंग विश्लेषणपरकता के साथ अपने स्व को और समाज के शास्त्र को जाँच सका है?
यह पुस्तक स्त्री के नज़रिए से स्त्री-लेखन का पाठ है; उसकी क्षमताओं, सीमाओं और अन्तर्विरोधों का आकलन करते हुए युग की नब्ज़ को टटोलने का जतन भी। यह पुस्तक उन दरारों-दरकनों में झाँकने का प्रयास भी है जहाँ स्त्री को ‘स्त्री’ बनाए रखने की ‘प्रगतिशील साज़िशों’ में स्त्री-मुक्ति के एजेंडे को गुमराह करने और स्त्री-विमर्श को देह-विमर्श में रिड्यूस करने की कोशिशें निहित हैं। दुर्भाग्यवश हिन्दी आलोचना ‘आरोप’ लगाकर स्त्री-लेखन के महत्त्व को ख़ारिज करती आई है या उसे घर-सम्बन्धों के संकुचित दायरे से बाहर निकलकर बृहत्तर मुद्दों से जुड़ने की ‘सीख’ देती रही है। प्रकारान्तर से दोनों ही स्थितियाँ स्त्री-लेखन के बुनियादी सरोकारों से मुँह चुराने की कोशिशें हैं। यह पुस्तक पहली बार इस तथ्य को रेखांकित करती है कि स्त्री-विमर्श का लक्ष्य पाठक में अब तक के ‘अनदेखे’ को देखने और गुनने की संवेदनशीलता विकसित करना है ताकि लैंगिक विभाजन से मुक्त मनुष्य और समाज की रचना के स्वप्न को साकार किया जा सके।
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